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Updated: 17 सितम्बर, 2020 09:23 PM
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नीतीश कुमार (Nitish Kumar) ठीक पांच साल बाद बिहार चुनाव में किस्मत आजमाने जा रहे हैं. 2015 की ही तरह नीतीश कुमार इस बार भी चुनावी गठबंधन के साथ जनता के दरबार में जा रहे हैं. पांच साल पहले की ही तरह फिर से नीतीश कुमार ही गठबंधन के नेता बने हुए हैं - लेकिन क्या 2020 के हालात भी 2015 जैसे ही हैं या किसी तरह का फर्क भी है?

वस्तुस्थिति से तो अच्छी तरह तो नीतीश कुमार ही वाकिफ होंगे, लेकिन जिस तरह बीजेपी (BJP) उनको हाथोंहाथ लिये हुए है, लालू यादव के साथ की तुलना में वो बेहतर स्थिति में लगते हैं. बगैर चुनावी गठबंधन के तो नीतीश कुमार के लिए बिहार में राजनीति कभी मुमकिन नहीं हो पायी. देखा जाये तो लालू यादव (Lalu Yadav) के साथ की ही तरह बीजेपी की नीतियों के चलते नीतीश कुमार को कई समझौते करने पड़े हैं और कई बार मन मसोस कर भी रह जाना पड़ा है.

2015 बिहार चुनाव बनाम 2020 बिहार चुनाव

बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने महागठबंधन छोड़ने के लिए बहाना तो तत्कालीन डिप्टी सीएम तेजस्वी यादव पर लगे भ्रष्टाचार के आरोपों को बनाया था, लेकिन कहा ये था कि 'सरकार चलाना मुश्किल हो रहा था'. तब तेजस्वी यादव ने अपनी सफाई में मूंछों की दुहाई भी दी थी लेकिन नीतीश कुमार इस्तीफा चाहते थे, लेकिन लालू यादव उसके लिए तैयार नहीं हुए. फिर नीतीश कुमार ने तरकीब निकाली - खुद ही मुख्यमंत्री पद से इस्तीफा गवर्नर को सौंप दिया. मुख्यमंत्री का इस्तीफा पूरी कैबिनेट का इस्तीफा होता है. तेजस्वी यादव की डिप्टी सीएम की पोस्ट भी जाती रही. तभी बीजेपी के सपोर्ट के साथ नये डिप्टी सीएम सुशील कुमार मोदी के साथ फिर से मुख्यमंत्री बन गये.

मुमकिन है, नीतीश कुमार के लिए बीजेपी के साथ अगली पारी थोड़ी मुश्किल हो, लेकिन अभी तक तो ऐसा कुछ देखने को नहीं ही मिला है. अब तो यही देखा गया है कि नीतीश कुमार अपने मन से ही सरकार चलाते रहे हैं. जब नीतीश कुमार ने एनडीए में वापसी की थी तो गोरक्षों के उत्पात एक दो बार देखने को जरूर मिले थे. ये भी सुना गया था कि सत्ता के समीकरण बदल गये हैं, लेकिन बाद में ऐसा कुछ तो नहीं ही हुआ - और नीतीश कुमार बड़े आराम से सरकार चलाते रहे हैं.

हां, नीतीश कुमार को अपनी पॉलिटिकल लाइन में थोड़ा बदलाव जरूर करना पड़ा है. बीजेपी की जिन नीतियों के वो विरोधी हुआ करते थे, बदले हालात में सभी का सपोर्ट करना पड़ा है. धारा 370 और नागरिकता संशोधन कानून को हंसते हंसते गले भी लगाना पड़ा है, लेकिन NRC के खिलाफ प्रस्ताव पास करना और मोदी कैबिनेट 2.0 से दूर रहने का फैसला और उस पर कायम रहना भी कोई मामूली बात तो नहीं रही. दूसरी तरफ, बिहार कैबिनेट में बीजेपी को और जगह न देना जैसे नीतीश कुमार के सख्त तेवर भी तो देखने को मिले हैं.

नीतीश कुमार तब भी गठबंधन के नेता थे और अब भी हैं. 2015 में गठबंधन का नेता घोषित किये जाने के लिए नीतीश कुमार को काफी संघर्ष करना पड़ा था और आखिरी वक्त में राहुल गांधी का दबाव मददगार साबित हु्आ था. लालू यादव ने सरेआम जहर पीने की बात बोल कर सबूत भी दे दिया था. चुनाव नतीजे आने के बाद और फिर सरकार बन जाने पर भी लालू यादव, तेजस्वी यादव से लेकर राबड़ी देवी तक के मुंह से नीतीश कुमार को सुनते रहना पड़ा था कि आरजेडी की ज्यादा सीटें आने के बावजूद उनको मुख्यमंत्री बनाया गया.

nitish kumar, narendra modi2015 में नीतीश कुमार और नरेंद्र मोदी आमने सामने थे - 2020 में साथ साथ हैं

2020 के लिए बिहार बीजेपी के कुछ नेताओं ने नीतीश कुमार का विरोध जरूर किया था - गिरिराज सिंह, संजय पासवान और ऐसे कई नेताओं ने नीतीश कुमार को तरह तरह की नसीहतें भी दे डाली. जैसे, नीतीश कुमार को बीजेपी के लिए खुद ही मुख्यमंत्री पद छोड़ देना चाहिये, युवाओं को मौका देना चाहिये - लेकिन अमित शाह के एक दो मौकों पर नीतीश कुमार को एनडीए का नेता बता देने के बाद वो बातें भी ठंडी पड़ गयीं - और बाद में तो रैली करके अमित शाह और फिर जेपी नड्डा लगातार दोहराते रहे हैं कि नीतीश कुमार ही एनडीए के नेता हैं और बीजेपी, एलजेपी मिल कर विधानसभा चुनाव लड़ने जा रहे हैं. ये बात अलग है कि अब भी चिराग पासवान के तेवर ठंडे नहीं पड़े हैं.

2015 में नीतीश कुमार ने करीब दो दशक बाद लालू यादव से हाथ मिलाया था और प्रशांत किशोर को चुनावी मुहिम की कमान सौंपी थी. प्रशांत किशोर के जिम्मे चुनावी मुहिम के साथ साथ नीतीश कुमार और लालू यादव दोनों के बीच लगातार संवाद सेतु के रूप में भी काम करने पड़े थे. नीतीश कुमार जो बातें सीधे सीधे लालू प्रसाद के साथ नहीं कर पाते रहे, प्रशांत किशोर ही टास्क उठाते और डील फाइनल करा कर रही दम लेते.

ये उसी दौर की बात है जब नीतीश कुमार बात बात पर रहीम और कबीर के दोहे भी सुनाते रहे - 'चंदन विष व्यापत नहीं, लिपटे रहत भुजंग...'

तब विपक्ष में रही बीजेपी ने खूब शोर मचाया कि नीतीश कुमार ने लालू यादव को भुजंग बोल दिया है - और अचानक आधी रात को नीतीश कुमार को लालू यादव के घर पहुंच कर स्थिति स्पष्ट करनी पड़ी थी. बाद में नीतीश कुमान ने बताया कि भुजंग से उनका आशय राजनीतिक विरोधियों से रहा. तब के हिसाब से उसका मतलब बीजेपी निकाला गया. ये क्या कम है कि इस बार नीतीश कुमार को ऐसी चीजों के लिए जूझते रहने की जरूरत नहीं है.

सीटों के बंटवारे में भी बीजेपी मेहरबान

जेपी नड्डा के बार बार नीतीश कुमार को एनडीए के नेता के तौर पर प्रोजेक्ट करने के बावजूद एलजेपी नेता चिराग पासवान के तेवर नरम नहीं पड़ रहे हैं. राम विलास पासवान की तबीयत खराब है और वो पहले ही बता चुके हैं कि चिराग पासवान ठीक से पार्टी का काम कर रहे हैं और उनका ख्याल भी पूरा रख रहे हैं. राम विलास पासवान ने ये भी कहा कि वो पार्टी को लेकर चिराग पासवान के हर फैसले के साथ हैं.

जब भी सवाल उठता है चिराग पासवान कहते हैं कि सीटों को लेकर तो नीतीश कु्मार के साथ कोई विवाद ही नहीं है. अब वो बीजेपी को ये भी सलाह दे रहे हैं कि उसे नीतीश कुमार की पार्टी जेडीयू से ज्यादा सीटों पर चुनाव लड़ना चाहिये. हालांकि, ठीक उसी वक्त उनकी पार्टी ये प्रस्ताव भी पारित कर देती है कि 143 सीटों पर चुनाव लड़ा जाएगा. 2015 में बीजेपी ने एलजेपी को 40 सीटें दी थीं और एलजेपी महज दो सीटों पर जीत हासिल कर पायी थी.

2010 में बीजेपी और जेडीयू साथ चुनाव लड़े थे और तब तो नीतीश कुमार निर्विवाद रूप से एनडीए के नेता रहे - किसी को ऐसी की घोषणा की जरूरत भी नहीं थी और कोई ऐसी स्थिति में भी नहीं था. अब तक तो यही देखने को मिला है कि सीटों के बंटवारे में नीतीश कुमार को जूझना जरूर पड़ता है लेकिन असरदार भी वही साबित होते हैं. 2015 में भी ऐसा ही देखने को मिला और अब भी आसार काफी हद तक ऐसे ही लग रहे हैं.

2010 में बीजेपी को नीतीश कुमार ने 102 सीटें दी थी और खुद जेडीयू के लिए 141 सीटें ले ली थी. नतीजे आये तो भी नीतीश के पक्ष में नंबर ज्यादा आये थे. तब बीजेपी 91 सीटें जीती थी और जेडीयू को 115 सीटें मिली थीं. पासवान का लालू यादव के साथ गठबंधन रहा और उनको 75 सीटों पर चुनाव लड़ने का मौका मिला था क्योंकि 168 सीटों पर आरजेडी ने उम्मीदवार उतारे थे. रामविलास पासवान की पार्टी को 3 सीटें मिली थीं जबकि लालू यादव की पार्टी के हिस्से में 22 विधायक चुन कर आये थे.

नवभारत टाइम्स ने नीतीश कुमार के एक करीबी मंत्री के हवाले से खबर दी है कि इस बार भी लगता है 2010 के हिसाब से ही बीजेपी और नीतीश कुमार के बीच सीटों का बंटवारा होने वाला है. मतलब, ये कि बीजेपी की तुलना में जेडीयू की सीटें ज्यादा हो सकती हैं.

बकौल कैबिनेट मंत्री, रिपोर्ट में बताया गया है, 'लोकसभा चुनाव से पहले भी सीट शेयरिंग पर तरह-तरह की बातें हो रही थी. कुछ लोग तो जेडीयू को 8 सीटें दे रहे थे. अंत में 50-50 फॉर्मूला बना... विधानसभा चुनाव में तो हालात और अलग हैं... यहां नीतीश के चेहरे पर चुनाव लड़ने की बात खुद PM मोदी कह चुके हैं. जब नीतीश की अगुआई में एनडीए चुनाव लड़ेगा तो सीट शेयरिंग में भी उसकी छाया दिखेगी... ये सैद्धांतिक समझौता खींचतान नहीं बल्कि परस्पर सम्मान के आधार पर हुआ है.'

रिपोर्ट के मुताबिक, मंत्री ने बताया है कि आपसी सहमति से तय हुआ है कि जेडीयू के खाते में आधे से ज्यादा सीटें जाएंगी. बिहार विधानसभा में कुल 243 सीटें हैं और इस हिसाब से आधे का मतलब हुआ 121 सीटें. सूत्रों के हवाले से रिपोर्ट में बताया गया है कि नीतीश कुमार के हिस्से में इस बार 121 से 125 सीटें हो सकती हैं.

वक्त वक्त की बात होती है. 2019 के आम चुनाव में नीतीश कुमार की हालत ये हो गयी थी कि वो जेडीयू का मैनिफेस्टो तक नहीं ला सके थे. अब तो बिहार विधानसभा चुनाव 2020 के लिए कैंपेन गीत भी अभी से आ चुका है. पिछली बार प्रशांत किशोर की तरफ से स्लोगन रहा - बिहार में बहार हो, नीतीशे कुमार हो! वैसे कोरोना की मुश्किलों और बाढ़ संकट के बीच यही लाइन नीतीश की आलोचना के लिए भी इस्तेमाल की गयी.

भोजपुरी में लाये गये 2 मिनट 51 सेकंड के जेडीयू के ताजा कैंपेन गीत का टाइटल है 'राइजिंग बिहार' और बोल हैं - कदम कदम बढ़ावऽ हो, विकास गीत गावऽ हो, नीतीश जी के सपना के, बिहार तू बनावऽ हो!'

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