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Updated: 24 अगस्त, 2019 12:48 PM
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सीनियर बीजेपी नेता अरुण जेटली को 9 अगस्त को दिल्ली के एम्स में दाखिल कराया गया था - और अब अस्पताल के अधिकारियों ने इस बात की पुष्टि कर दी है कि वो अब हमारे बीच नहीं रहे.

अरुण जेटली डायबिटीज तो काफी पहले से रहा, उनका किडनी ट्रांसप्लांट भी हो चुका है. कैंसर का पता चलने के बाद वो इलाज के लिए अमेरिका भी गये थे. मोटापे को लेकर वो बैरिएट्रिक सर्जरी भी करा चुके हैं.

जब भी राजनीतिक बुद्धिजीवियों की बात आती है, विपक्ष, खासकर लेफ्ट बीजेपी और RSS को निशाना बनाता रहा है - ये अरुण जेटली ही हैं जो एनडीए की वाजपेयी सरकार में और मोदी सरकार 1.0 में भी वन-मैन थिंक टैंक के रूप में स्थापित रहे - और तमाम राजनीतिक विरोधी भी जेटली का लोहा मानते रहे हैं.

जब मोदी की जबान बने जेटली!

जब नरेंद्र मोदी प्रधानमंत्री बने तो उनकी चुनौतियां भी अटल बिहारी वाजपेयी से कम न थीं, बस थोड़ा फर्क रहा. वाजपेयी के सामने बड़ी चुनौती गठबंधन की सरकार चलाना और मोदी के सामने बाहरी होकर दिल्ली में फिट होना रहा. मोदी ने सांसद बनने के लिए गुजरात से बाहर वाराणसी की सीट चुनी और चुनाव जीते भी, लेकिन दिल्ली की नौकरशाही में काबिज अफसर कदम कदम पर मोदी के लिए चुनौती साबित हो रहे थे. वैसे तो मोदी ने ये राह आसान करने के लिए गुजरात के आजमाये हुए भरोसेमंद अफसरों को भी जल्दी ही दिल्ली बुला लिया - लेकिन ये नाकाफी था.

ये अरुण जेटली ही रहे जो नरेंद्र मोदी के सबसे बड़े मददगार साबित हुए. अरुण जेटली ने प्रधानमंत्री मोदी के मन की बात को सुनते और समझते हुए ऐसी सटीक और सधी हुई तरकीबें निकालीं कि मोदी के लिए जल्दी ही काम करना बेहद आसान हो गया. अटल बिहारी वाजपेयी के लिए ये सब कोई चुनौती नहीं रही, वो सिर्फ राजनीतिक फैसले लिया करते रहे - बाकी अफसरों का काम उन पर छोड़ कर आगे बढ़ जाते रहे. हालांकि, वाजपेयी के बाद प्रधानमंत्री की कुर्सी पर बैठे मनमोहन सिंह जब तक फैसलों को अमलीजामा नहीं पहना लेते अफसरों के साथ दफ्तर में ही जमे रहते थे. वायपेयी और मनमोहन सिंह के कामकाज के तरीके में ये बुनियादी फर्क माना जाता है.

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी अपने दोनों की पूर्ववर्तियों - मनमोहन सिंह और अटल बिहारी वाजपेयी से अलग लेकिन दोनों में कुछ कॉमन तौर तरीकों का इस्तेमाल करने के लिए जाने जाते हैं. प्रधानमंत्री मोदी आगे बढ़ कर राजनीतिक मोर्चे तो संभालते ही हैं - हर विभाग के अफसरों से भी लगातार संवाद में रहते हैं.

केंद्र की नौकरशाही को रास्ते पर लाना और अपने मनमुताबिक काम करा लेना अरुण जेटली बखूबी जानते रहे.

arun jaitley importance for modiहर मुश्किल घड़ी में मोदी की जबान बने रहे जेटली!

वाजपेयी सरकार के संकटमोचकों में दो नाम सबसे ऊपर आते हैं - ब्रजेश मिश्र और जसवंत सिंह. ब्रजेश मिश्र राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार होते हुए भी डिप्लोमेटिक चुनौतियां बड़े आसानी से हल कर लेते थे, जिसमें उनका पुराना अनुभव और संपर्क काम आता रहा. जसवंत सिंह तो कई मंत्रालय संभालने के साथ साथ आंतकवादियों द्वारा अगवा किये गये भारतीय यात्रियों को छुड़ाने कंधार तक जा पहुंचे थे.

लुटियंस मीडिया कभी वाजपेयी के लिए चैलेंज नहीं रहा क्योंकि वो शुरू से ही दिल्ली में जमे रहे, ये बात अलग थी कि चुनाव वो देश में अलग अलग जगहों से लड़ते रहे. मोदी के लिए लुटियंस मीडिया शुरू से ही चुनौतीपूर्ण रहा है - और अब भी मोदी के आलोचक मानते हैं कि वो उनकी हेट-लिस्ट में बना हुआ है. इस मामले में भी अरुण जेटली ने प्रधानमंत्री मोदी के लिए हर कठिन राह को सरल बनाने का काम किया है.

मोदी सरकार 1.0 में ऐसे कई मौके आये जब अरुण जेटली ने प्रधानमंत्री नरेंद्र की आंख, नाक और कान बन कर सबसे बड़े संकटमोचक की भूमिका निभायी - कई बार तो ऐसे मौके भी आये जब जेटली, मोदी की जबान भी नजर आये.

1. मोदी सरकार की आर्थिक नीति : आर्थिक नीतियों को लेकर जब भी विपक्ष, अर्थशास्त्री या विरोधी बुद्धिजीवी मोदी सरकार पर हमलावर हुए, अरुण जेटली बड़ी ही मजबूती के साथ मैदान में आकर मोर्चा संभाले और हर किसी का जवाब दिया. ये सब जेटली तब करते रहे जब वो खुद बीजेपी के जुझारू नेता सुब्रह्मण्यन स्वामी के निशाने पर पूरे पांच साल बने रहे.

2. नोटबंदी : नोटबंदी को लेकर मोदी सरकार की खूब आलोचना हुई. विरोधी पक्ष के कई नेताओं का तो यहां तक आरोप है कि नोटबंदी का पूरा प्लान अकेले प्रधानमंत्री मोदी का रहा, जबकि अरुण जेटली वित्त मंत्री रहे. वैसे जब तक नोटबंदी का भूत, सामाजिक-आर्थिक-राजनीतिक सभी, पूरी तरह जनता के दिमाग से ओझल नहीं हुआ - अरुण जेटली हमेशा मोदी सरकार का अलग अलग फोरम पर बचाव करते रहे.

3. GST : जीएसटी के मामले में भी मोदी सरकार 1.0 विरोधी राजनीतिक दलों के निशाने पर तो रही ही, कारोबारी तबके का गुस्सा भी थमने का नाम नहीं ले रहा था. गुजरात चुनावों से तो कांग्रेस नेता राहुल गांधी ने जीएसटी को नया नाम ही दे डाला - गब्बर सिंह टैक्स. तमाम विरोधों के बावजूद अरुण जेटली लोगों को यही समझाते रहे कि जीएसटी का मतलब होता है - गुड एंड सिंपल टैक्स. दरअसल, ये परिभाषा नरेंद्र मोदी ने गढ़ी थी.

जेटली को मंजूर न था 'दिल्ली का मेयर' बनना

दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल के शिकायतों के पुलिंदे में एक है - जनता की चुनी हुई सरकार के पास न तो एक चपरासी के ट्रांसफर का अधिकार है, न नियुक्ति का. ऐसे कई मुद्दे तो हैं ही, और भी रजनीतिक वजहें हैं जिनके चलते दिल्ली सरकार और दिल्ली के उप राज्यपाल में जो जंग छिड़ी वो तब तक नहीं खत्म होने वाली जब तक केंद्र और राजधानी में एक ही पार्टी की सरकार हो - जैसे शीला दीक्षित के कुर्सी पर रहते ज्यादातर वक्त रही.

हिंदुस्तान टाइम्स में वरिष्ठ पत्रकार शिशिर गुप्ता एक वाकये का जिक्र करते हैं, जिससे मालूम होता है कि अरुण जेटली अपनी राजनीतिक हैसियत को लेकर कितने सजग रहते थे.

2008 में दिल्ली विधानसभा के चुनाव होने जा रहे थे. अरुण जेटली के कैलाश कालोनी वाले घर पर उनके दो करीबी दोस्त लंच के लिए पहुंचे थे. कुछ पत्रकारों को भी लंच पर बुलाया गया था. तभी जेटली के दोनों ही दोस्तों ने जेटली से कहा कि वो क्यों नहीं शीला दीक्षित को चैलेंज करते. जेटली ने बगैर कुछ ज्यादा सोचे तपाक से जवाब दिया - दिल्ली का मेयर बनने में मेरी कोई दिलचस्पी नहीं है.

बहुत लोगों को अरुण जेटली के उन दोनों दोस्तों के नाम सुन कर ताज्जुब होगा - एक थे नरेंद्र मोदी और दूसरे नीतीश कुमार. तब दोनों क्रमशः गुजरात और बिहार के मुख्यमंत्री हुआ करते थे. हालांकि, 2014 के चुनाव में दोनों में से एक दोस्त मोदी की सलाह पर जेटली ने अमृतसर लोक सभा सीट से किस्मत आजमायी लेकिन सफलता हाथ नहीं लगी - शायद इसलिए भी क्योंकि आगे बड़ी सफलताएं अरुण जेटली का दिल्ली में ही इंतजार कर रही थीं.

16 मई 2019 को द प्रिंट वेब साइट पर अरुण जेटली का एक लेख प्रकाशित हुआ, जिसमें वो मोदी की वापसी की डंके की चोट पर भविष्यवाणी किये थे. अरुण जेटली ने अपनी समझ को लेकर समझदार दलील दी थी - TINA फैक्टर. TINA का मतलब होता है There Is No Alternative यानी कोई विकल्प है ही नहीं. 23 मई को अरुण जेटली सही साबित हुए जब प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की अगुवाई में बीजेपी 2014 से भी बड़े बहुमत के साथ जीत हासिल की.

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