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Updated: 08 जून, 2018 07:58 PM
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कर्नाटक और कैराना से पहले साथी दलों को लेकर बीजेपी की सोच बिलकुल अलग रही. बाद में नतीजों ने राय बदल दी. नींव तो गुजरात बचाने के संघर्ष के साथ ही पड़ चुकी थी, कर्नाटक और कैराना ने तो इमारत ही खड़ी कर दी.

ये अमित शाह ही हैं जो पहले समझाते रहे कि किसी के आने जाने से बहुत फर्क नहीं पड़ने वाला. मिसाल भी हाजिर होती - 'नायडू गये जरूर लेकिन नीतीश आये भी तो हैं.' जीत बड़ी बड़ी बातों की भी परवाह नहीं करने देती, हार छोटी छोटी चीजों के बारे में भी राय बदल देती है. वैसे नीतीश के समर्थकों का उछलना भी अच्छे संकेत नहीं दे रहा है.

हालत ये हो चुकी है कि बीजेपी अध्यक्ष अमित शाह को 'संपर्क फॉर समर्थन' अभियान के तहत साथियों से भी मिलना पड़ रहा है. बावजूद सारी कवायदों के बात नहीं बन रही. उद्धव ठाकरे से लेकर बादल तक. जो हाल मुलाकातों का है, वही बिहार में एनडीए के भोज का.

बनते बनते बिगड़ी बात

बीजेपी की ही ओर से बताया गया था कि 'संपर्क फॉर समर्थन' अभियान के तहत देश के एक लाख ऐसे लोगों से मिला जाएगा जिनकी बातों का समाज में प्रभाव होता है. बीजेपी ऐसे लोगों से समर्थन चाहती है ताकि 2019 में उसे उनके विचार से प्रभावित लोग बीजेपी को वोट दें.

हैरानी तो तब होती है जब बीजेपी अध्यक्ष अमित शाह एनडीए के सहयोगी दलों के नेताओं से भी इसी हिसाब से मिलने लगे हैं. सहयोगी दलों से संपर्क कर समर्थन मांगना तो यही बता रहा है कि वे कहने भर के ही सहयोगी हैं. अमित शाह का मातोश्री पहुंचना तो और भी कई सवाल खड़े करता है.

अभी अमित शाह शिवसेना अध्यक्ष उद्धव ठाकरे से मिले भी नहीं थे कि सामना के जरिये बीजेपी पर धावा बोल दिया गया. शिवसेना मुखपत्र सामना में लिखा गया - 'एक ओर जहां मोदी पूरी दुनिया में घूम रहे हैं, वहीं शाह पूरे देश में घूम रहे हैं. बीजेपी को उपचुनावों में हार मिली है, क्या इसलिए अब उसने सहयोगी पार्टियों से मिलना शुरू कर दिया है?'

amit shah, uddhav thackerayदिल की बात बता देते हैं असली नकली चेहरे...

उद्धव ठाकरे ने मिलने अमित शाह महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री देवेंद्र फडणवीस के साथ मातोश्री पहुंचे थे. अमित शाह की इस मुलाकात का मकसद तो शिवसेना नेतृत्व से गिले-शिकवे दूर करना था. बताते हैं शाह ने उद्धव से अकेले में मिलने की इच्छा जतायी और फिर दोनों नेता पौने दो घंटे तक एकांत विमर्श करते रहे.

बीजेपी नेतृत्व ने अपनी ओर से उद्धठ ठाकरे को यहां तक समझाने की कोशिश की कि अगर दोनों अलग अलग मैदान में उतरे और नतीजे उल्टे पड़े तो सब कुछ उल्टा पुल्टा हो जाएगा. एनसीपी गठबंधन न सिर्फ आगे निकल जाएगा, सत्ता भी गंवानी पड़ सकती है. असर ये हुआ कि लोक सभा को लेकर सहमति तो बनी, लेकिन विधानसभा को लेकर सब गड़बड़ हो गया.

मुलाकात के बेनतीजा होने के बावजूद बीजेपी नरम, जबकि शिवसेना गरम नजर आ रही है. कहा जा रहा है कि बीजेपी ने अभी उम्मीद नहीं छोड़ी है और शाह फिर से मुलाकात कर कर उद्धव को मनाने की कोशिश कर सकते हैं.

मुंबई में शिवसेना कार्यकर्ताओं को संबोधित करते हुए उद्धव ठाकरे ने पालघर चुनाव को लेकर बीजेपी को टारगेट किया. बोलने का अंदाज ही नहीं शब्दों का चयन भी तल्ख दिखा, ‘‘अब जो कुछ भी हो रहा है वो सब ड्रामा है.’’

उद्धव का कहना रहा - 'भले ही अब वो कनेक्शन बनाने की कोशिश करे, लेकिन अब बहुत देर हो चुकी है... चंद्रबाबू नायडू एनडीए छोड़ गये, नीतीश कुमार भी अलग बयान दे रहे हैं...'

जो हाल एनडीए का है बिहार में बीजेपी के महाभोज में भी आलम वही रहा - और अमित शाह की 'बादलों' से भी मुलाकात का माहौल मातोश्री जैसा ही रहा.

कहीं ड्रामा, तो कहीं युद्ध!

अमित शाह के चंडीगढ़ दौरे से पहले शिरोमणि अकाली दल ने भी वैसा ही रुख अख्तियार किया जो मुंबई में शिवसेना का रहा. तकरीबन सामना वाले ही लहजे में सुखबीर बादल बोले, "एनडीए में सब कुछ ठीक नहीं चल रहा है. युद्ध जैसी स्थिति है."

गिले-शिकवे हर रिश्ते हर रिश्ते की खासियत होते हैं, लेकिन बात आगे निकल जाये तो लौटना काफी मुश्किल होता है. बादल परिवार और बीजेपी के बीच काफी कुछ वही रूप ले चुका है.

2014 में केंद्र की सत्ता पर कब्जे के बाद ही अमित शाह सहयोगी दलों को संदेश देने लगे थे कि बीजेपी का नया नेतृत्व गठबंधन की राजनीति से कम ही इत्तेफाक रखता है. शिरोमणि अकाली दल को भी तभी अहसास हो गया था कि बीजेपी चुनावी मैदान में अकेले उतरने की तैयारी में है. यहां तक कि 2017 के पंजाब विधानसभा में भी बीजेपी नेतृत्व की हिस्सेदारी लगभग वैसी ही रही जैसे नीतीश कुमार के चुनाव प्रचार के लिए अरविंद केजरीवाल बिहार गये और चले आये.

शाह और प्रकाश सिंह बादल की इस मुलाकात में सुखबीर बादल के अलावा सीनियर नेता सुखदेव सिंह ढींढसा भी मौजूद रहे. उद्धव की ही तरह शाह ने सीनियर बादल के साथ भी अकेले में मिले, मगर सिर्फ आधे घंटे के लिए. मुलाकात को लेकर कुछ अकाली नेताओं की शिकायत भी यही रही कि चार साल तक तो कोई पूछता भी नहीं रहा और चुनाव पास आते ही बीजेपी प्यार लुटाने लगी है.

बिहार में बहती अलग बयार

रूठे साथियों को मनाने को लेकर बनी फेहरिस्त में शिवसेना और शिरोमणि अकाली दल के अलावा नंबर जेडीयू और बिहार से जुड़े नेताओं का भी है. शाह की मुलाकात से पहले पटना में बीजेपी की ओर से एनडीए के साथी दलों के लिए महाभोज का आयोजन किया गया था. महाभोज का नतीजा ये हुआ कि जो कुछ पर्दे के पीछे चल रहा था वो सारा लड़ाई झगड़ा सामने आ गया.

कुछ दिन पहले उपेंद्र कुशवाहा ने पटना में मानव शृंखला बनायी थी और ध्यान देने वाली बात रही उसमें आरजेडी नेताओं की हिस्सेदारी. इस आयोजन के बाद उपेद्र कुशवाहा के एनडीए छोड़ने जैसी चर्चा होने लगी. ये वाकया तभी का है जब चंद्रबाबू नायडू स्पेशल पैकेज की मांग तो कर रहे थे लेकिन एनडीए छोड़े नहीं थे. बाद में मालूम हुआ कि ये सब कुशवाहा की प्रेशर पॉलिटिक्स का हिस्सा भर रहा.

हाल फिलहाल नीतीश कुमार भी पहले जैसा व्यवहार नहीं कर रहे हैं. पहले जैसा मतलब - '2019 में मोदी का कोई मुकाबला कर भी सकता है क्या?' जेडीयू की ओर से मांग की जा रही है कि बिहार में एनडीए का चेहरा नीतीश कुमार को बनाया जाये. बीजेपी का चेहरा तो मोदी ही हैं, उसमें कोई दो राय नहीं है. उधर, कुशवाहा के लोक उन्हें नीतीश से बड़ा नेता बताते हुए अगले विधानसभा चुनाव में एनडीए का मुख्यमंत्री चेहरा बनवाना चाहते हैं.

बीजेपी के महाभोज में नीतीश तो पहुंचे लेकिन कुशवाहा ने दूरी बना ली. कुशवाहा के साथी नागमणि कहते फिर रहे हैं, "बिहार में कुशवाहा का बड़ा जनाधार है. वो सीएम मैटीरियल हैं."

वैसे ताजा किचकिच सिर्फ लोक सभा सीटों के बंटवारे को लेकर है. बिहार में लोक सभा की 40 सीटें हैं. 2014 में एनडीए को 31 सीटें मिली थीं जिसमें बीजेपी को 22, एलजेपी को 6 और कुशवाहा की पार्टी आरएसएलपी को 3 सीटें मिली थीं. नीतीश की पार्टी जेडीयू को सिर्फ 2 सीटें मिली थीं जिसे जोड़ कर फिलहाल एनडीए के पास बिहार से 33 सांसद हो गये हैं.

बीजेपी के लिए इस बार मुसीबत नीतीश की पार्टी खड़ी कर रही है. जेडीयू 40 में से 25 पर दावेदारी जता रही है. इसी तरह राम विलास पासवान की पार्टी 7 और कुशवाहा की पार्टी 5 सीटें चाहती है. फिर तो बीजेपी के लिए सिर्फ 3 सीटें बचेंगी.

बिहार की ये राजनीति समझने में थोड़ी मुश्किल हो सकती है. नीतीश के तेवर कुछ और ही कहानी कह रहे हैं. महागठबंधन से तो न्योता उन्हें पहले ही मिल चुका है. ये कहना भी मुश्किल है कि नीतीश का दम आरजेडी के साथ पहले ज्यादा घुट रहा था या बीजेपी के साथ अब? मुमकिन है उपेंद्र कुशवाहा को भी बीजेपी से ग्रीन सिग्नल मिला हो. वैसे भी नीतीश के लिए एनडीए में उपेंद्र कुशवाहा से बेहतर बैलेंसिंग फैक्टर फिलहाल तो नहीं दिखता. नीतीश समर्थकों को चिराग पासवान भी जवाब दे चुके हैं - 'चुनाव में चेहरा तो मोदी ही होंगे.'

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