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Updated: 02 जनवरी, 2020 04:51 PM
मृगांक शेखर
मृगांक शेखर
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अमित शाह (Amit Shah Bengali Lessons) आम चुनाव में अपना जौहर दिखा चुके हैं - और पश्चिम बंगाल में दो से 18 सीटों पर पहुंचना भी उसी में शुमार है. पश्चिम बंगाल विधानसभा चुनाव के लिए अमित शाह लक्ष्य भी पहले से निर्धारित कर चुके हैं - मिशन 250 (Mission 250 West Bengal assembly seats for BJP). मतलब, बहुमत से भी सौ सीटें ज्यादा. लक्ष्य बहुत कठिन है, जाहिर है तैयारी भी वैसी ही करनी होगी.

झारखंड के नतीजे बीजेपी अध्यक्ष के लिए बहुत बड़े सबक हैं. महाराष्ट्र और हरियाणा चुनावों में भी बीजेपी की फजीहत की वजह सीटों की कम संख्या ही बनी, लिहाजा अब ये सब हल्के में नहीं लिया जा सकता - और यही वजह है कि अमित शाह एक साथ चार चार भारतीय भाषायें सीख रहे हैं. इनमें दो तो बांग्ला और तमिल हैं. चुनावी राजनीति के हिसाब से देखें तो बांग्ला पश्चिम बंगाल के लिए और तमिल भाषा तमिलनाडु के लिए. पश्चिम बंगाल और तमिलनाडु दोनों ही राज्यों में 2021 में विधानसभा चुनाव होने हैं.

2019 के लोक सभा चुनाव में अमित शाह के बीजेपी को 18 सीटें तो दिलाने का असर ये हुआ कि तृणमूल कांग्रेस 34 से 22 पर पहुंच गयी - ममता बनर्जी (Mamata Banerjee) के लिए ये बहुत बड़ा झटका रहा. फिर ममता बनर्जी ने चुनावी रणनीतिकार प्रशांत किशोर को कैंपेन के लिए हायर किया - और वो उस पर काम भी कर रहे हैं.

अब अमित शाह का राजनीतिक कौशल विकास कार्यक्रम यानी बांग्ला भाषा सीखना कितना असरदार होगा, ये सब ममता बनर्जी की क्षमताओं पर निर्भर करता है कि वो कैसे काउंटर करती हैं?

शाह बांग्ला सीखना क्यों चाहते हैं?

अगर सवाल ये है कि अमित शाह बांग्ला क्यों सीख रहे हैं? तो अगला ये भी हो सकता है कि ममता बनर्जी हिंदी क्यों सीख रही थीं?

जिस तरह मान्यता है कि प्रधानमंत्री पद का रास्ता यूपी से होकर गुजरता है, उसी तरह ये भी है कि वही नेता कुर्सी पर बैठ या टिक सकता है जिसे हिंदी आती हो.

2016 में ममता बनर्जी के भी हिंदी सीखने की खबरें आयी थीं. तभी ये भी मालूम हुआ था कि वो अपने पास हिंदी का शब्दकोश रखने लगी हैं - और उनके ट्वीट भी इस बात के सबूत देने लगे थे. उस वक्त कुछ दिनों तक ममता बनर्जी के ट्विटर हैंडल से हिंदी में कई ट्वीट देखने को मिले थे - दिखे तो बाद में भी लेकिन सिर्फ कभी कभार ही.

अमित शाह के बांग्ला भाषा सीखने की ललक 'दोस्त कैसे बनायें' जैसे किताबी ज्ञान तक सीमित नहीं लगता - ये काफी आगे की सोच लगती है. पहली नजर में अमित शाह के बांग्ला सीखने की उपयोगिता भाषणों की शुरुआत के लिए मानी जा रही है. अगर बराक ओबामा बगैर हिंदी सीखे शाहरुख खान की फिल्म का डायलॉग बोल कर छाप छोड़ सकते हैं तो भला अमित शाह को इतनी मशक्कत करने की जरूरत क्यों आ पड़ी?

अगर अमित शाह को भाषणों के शुरू में बांग्ला के कुछ शब्द बोलने की जरूरत होती तो वो किसी भी स्क्रिप्ट में लिख कर रट लेते और बोल सकते हैं - असल बात तो ये है कि बांग्ला भाषा को लेकर अमित शाह की जरूरतें अलग हैं.

amit shah bengali vs mamata banerjee hindiअमित शाह की बांग्ला भाषा बनाम ममता बनर्जी की हिंदी

ये तो साफ है कि ममता बनर्जी की ही तर्ज पर अमित शाह भी पश्चिम बंगाल में परिवर्तन का नारा बुलंद करना चाहते हैं. अमित शाह का ये परिवर्तन नये बदलावों की ओर इशारा करता है - और उसमें बांग्ला सीख कर उनका मकसद महज 'पोरिबर्तन' बोलना भर नहीं है.

मोदी और शाह की भाषायी जरूरतें अलग अलग हैं

अपने ऑडिएंस से कनेक्ट होने के लिए हर वक्ता अलग अलग तरकीबें अपनाता है. प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ये ट्रिक बहुतायत में प्रयोग करते हैं और तमाम तरीके से लोगों को समझा लेते हैं कि कैसे वो उनके अपने ही हैं. कभी कभार को छोड़ दें तो नियमित तौर पर प्रधानमंत्री मोदी हिंदी में ही भाषण देते हैं - और जहां जरूरी होता है ऑडिएंस को समझाने के लिए कोई अपेक्षित भाषा में उसका तर्जुमा कर देता है.

कर्नाटक चुनावों के दौरान अमित शाह के लिए भी ऐसा इंतजाम किया गया था - लेकिन कम से कम दो मौके ऐसे रहे जब उनके हिंदी भाषण का कन्नड़ में गलत अनुवाद हो गया.

क्या ऐसे हादसों को रोकने के लिए ही अमित शाह बांग्ला और तमिल सहित चार भारतीय भाषाएं सीख रहे हैं? कुछ हद तक ये भी वजह हो सकती है - लेकिन पूरी वजह नहीं.

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और बीजेपी अध्यक्ष अमित शाह के चुनावी टास्क में एक खास फर्क भी होता है. मोदी को लोगों से कनेक्ट होने के लिए कुछ स्थानीय शब्दों या खासियतों की जरूरत होती है. एक बार जब भाषण शुरू हो गया तो प्रवाह नहीं रुकता. मोदी और शाह दोनों ही कार्यकर्ताओं से संवाद करते हैं, लेकिन मोदी के मुकाबले शाह को इसकी ज्यादा जरूरत पड़ती है. मोदी के पास जनता से संवाद का जिम्मा ज्यादा होता है, लेकिन शाह को बार बार स्थानीय कार्यकर्ताओं से बात करनी होती है. पार्टी कार्यकर्ताओं से फीडबैक लेना होता है. उनकी मन की बात सुननी होती है. आम लोग क्या सोच रहे हैं और उस पर एक बूथ लेवल कार्यकर्ता क्या नजरिया रखता है, ये भी समझना होता है.

फिर कार्यकर्ताओं को उनके स्तर तक पहुंच कर उनकी भाषा में संवाद स्थापित कर उनमें जोश भरना होता है. कोई भी कार्यकर्ता एक बार अपने नेता के मन की बात समझ ले फिर उसे टास्क पूरा करने में वक्त नहीं लगता - आगे के लिए इशारा भर काफी होता है.

पश्चिम बंगाल में अमित शाह को इस काम में मदद करने वाले कई लोग हैं जिनमें मुकुल रॉय और दिलीप घोष का नाम सबसे ऊपर है. मान कर चलना चाहिये अमित शाह ने लोक सभा चुनाव में ऐसे नेताओं को आजमाया भी होगा - लेकिन हाल के विधानसभा चुनाव के नतीजों के बाद संभव है ये नाकाफी लगने लगा हो.

चुनावों में अमित शाह की कामयाबी का राज उनके बूथ लेवल मैनेजमेंट में छिपा होता है. कहते हैं अमित शाह ने जेल में रहते ही अपनी हिंदी को परिष्कृत करने में काफी मेहनत की. ऐसा तब किया था जब उनके गुजरात जाने पर पाबंदी लगी थी और यूपी में जाकर पार्टी का काम संभालना था. 2014 से पहले यूपी पहुंचते ही अमित शाह ने अपना इरादा जाहिर कर दिया था - सीटें नहीं जीतनी, हमें बूथ जीतने हैं. पश्चिम बंगाल में भी अमित शाह फिर से बूथ जीतने में जुट गये हैं.

जिस तरह ममता बनर्जी भी मान कर चल रही थीं कि प्रधानमंत्री बनने के लिए हिंदी बोलना जरूरी है, अमित शाह को भी लगा होगा कि चुनाव जीतने के लिए स्थानीय भाषा की समझ अच्छी होनी चाहिये - अच्छी समझ में अच्छे से बोलना भी जरूरी हो, ऐसा नहीं है. दरअसल, अमित शाह को ममता बनर्जी ही नहीं उनकी चुनावी मुहिम देख रहे प्रशांत किशोर को भी ध्यान में रख कर रणनीति तैयार करनी है और वो उनके भी दांवपेच से बखूबी वाकिफ हैं.

देखें तो अमित शाह को पीके के हुनर से भी टक्कर लेनी है. साथ ही, शाह को साबित करना है कि बीजेपी को पीके की जरूरत नहीं है. कुछ भी हो, चुनावी मुकाबला काफी दिलचस्प होने वाला है.

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लेखक

मृगांक शेखर मृगांक शेखर @mstalkieshindi

जीने के लिए खुशी - और जीने देने के लिए पत्रकारिता बेमिसाल लगे, सो - अपना लिया - एक रोटी तो दूसरा रोजी बन गया. तभी से शब्दों को महसूस कर सकूं और सही मायने में तरतीबवार रख पाऊं - बस, इतनी सी कोशिश रहती है.

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