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Updated: 09 अगस्त, 2017 03:30 PM
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अहमद पटेल ने फिर से साबित कर दिया कि हर जंग एक ही हथियार से नहीं जीती जाती. सुई और तलवार का फर्क भी इसीलिए बताया गया है. सियासत में सिकंदर तो वो होता है जो जीत को 'मैनेज' कर ले, सिर्फ वही नहीं जो सधी रणनीति बनाये, जो जोड़-तोड़ करके कुछ दुश्मनों को दोस्त बनाकर अपने पाले में मिला ले और तमाम साम, दाम, दंड, भेद के सहारे स्वर्णिम काल के ख्वाब देखे.

ऐसे में जब कांग्रेस के भीतर उसके डूबती जहाज होने पर बहस छिड़ी हो, अहमद पटेल ने अपनी जीत मैनेज कर ये तो जता ही दिया है कि वो खुद सुल्तान तो हैं, लेकिन सल्तनत का नहीं मालूम, भले ही उनके तमाम साथी उन्हें उसे गर्क में पहुंचाने का भी जिम्मेदार मानते हों.

ऐसे में जब एक राज्य सभा सीट का संग्राम निहायत ही निजी लड़ाई में तब्दील हो चुका हो, ये नतीजे, फिर भी, पटेल की जीत कम और शाह की शिकस्त ज्यादा बताते हैं.

जो मैनेज हो जाये वही जीत है

राज्य सभा चुनाव में जो कुछ गुजरात में दिखा क्या पूरा सच वही है? सबूत हो सकता है लेकिन पूरा सच नहीं. देखा तो यही गया कि कांग्रेस के दो बागियों - भोलाभाई गोहिल और राघवजी पटेल ने बैलेट पेपर पूरा तो अपनी पार्टी के प्रतिनिधि को दिखाया लेकिन थोड़ा सा अमित शाह को भी दिखा दिया. फिर क्या था, शक्तिसिंह गोहिल ने लपक लिया और शोर मचा दिया. ये शोर इतना मचा कि रात भर धमा चौकड़ी मची रही. जब तक कि पटेल को विजेता घोषित नहीं कर दिया गया.

ahmed patel, sonia gandhi, rahul gandhiजो जीता वो सुल्तान!

क्या ये सब कुछ अचानक हुआ? कांग्रेस के बागियों ने बड़ी ही मासूमियत से अपनी नयी वफादारी का सबूत पेश किया या जीत हार की बाजी में ये भी कोई सोची समझी चाल थी. अपनी पार्टी के प्रतिनिधि को तो उन्हें दिखाना ही था, क्या शाह ने भी उनसे पहले से सबूत दिखाने को कहा होगा? नियम तो शाह को भी मालूम होंगे, तो क्या वो बागियों को ऐसा करने को कहे होंगे? पहली नजर में तो ऐसा नहीं लगता, लेकिन बड़ी बड़ी लड़ाइयों में छोटी छोटी गलतियां भी तो होती रहती हैं. तो क्या ये चूक उस शख्स से हो गयी जिसे सत्ताधारी पार्टी का चाणक्य कहा जाने लगा है?

या फिर दोनों विधायकों का वो 'एक्ट' पूर्व नियोजित था जो मैदान में उतरे दूसरे चाणक्य के निर्देशन में चल रहे खेल का हिस्सा था? क्या उन विधायकों को अहमद पटेल ने अपने आदमियों की मदद से इसके लिए राजी कर लिया था? या फिर किसी ने उन विधायकों को गलत सलाह दे दी वे उस पर अमल कर बैठे? कहीं ये गलत सलाह पटेल की टीम की ओर से तो नहीं पहुंचायी गयी थी?

ऐसे कई सवाल हैं जो उन बातों पर यकीन नहीं करने देते जो नजर आ रही हैं. सच तो यही है कि ये बातें ही सबूत हैं. और सबूत जब तय सवालों का जवाब दे देते हों तो उन्हें सच मान लिया जाता है. नैसर्गिक इंसाफ के सिद्धांत और व्यावहारिक पक्ष तो इसी बात की पुष्टि करते हैं.

बहरहाल, ऐसा भी नहीं कहा जा सकता कि पटेल ने अपनी जीत अकेले मैनेज किया है. गुलाम नबी आजाद भले कह चुके हों कि पटेल की हार जीत को सोनिया गांधी से न जोड़ा जाये, लेकिन पटेल सोनिया को क्रेडिट देने में कोई देर नहीं की. वैसे भी पटेल के तमाम दुश्मन लामबंद हो गये थे लेकिन सोनिया आखिर तक डटी रहीं. ये सही है कि शक्तिसिंह गोहिल की तत्परता के बगैर भी ये जीत असंभव थी - और कांग्रेस नेता गोहिल की बात को लेकर आखिर तक चुनाव आयोग के सामने अड़े नहीं रहते तब भी.

फिर तो सल्तनत का ये हाल न होता

कांग्रेस नेता जयराम रमेश ने पार्टी ने नयी बहस छेड़ दी है. जयराम रमेश ने समझाने की कोशिश है कि सल्तनत चली गयी मगर लोग कांग्रेस के नेता अब भी खुद को सुल्तान ही समझते हैं. जयराम रमेश को इस पर तीखे हमले भी झेलने पड़े हैं. शीला दीक्षित का कहना है कि सल्तनत का बेड़ा गर्क करने में जयराम रमेश का भी रोल कम नहीं है. ऐसी ही बातें अहमद पटेल को लेकर भी होती रही हैं. कांग्रेस के कई सीनियर नेता मानते हैं कि खुद की कुर्सी बचाये रखने के लिए पटेल ने किसी को बहुत आगे नहीं बढ़ने दिया. शंकरसिंह वाघेला भी उसी जमात का हिस्सा हैं.

अहमद पटेल ने भले ही अपनी जीत मैनेज कर ली हो, लेकिन क्या गुजरात में कांग्रेस को गर्त में पहुंचाने के लिए वो खुद सवालों के घेरे में खड़े नहीं होते?

ये पटेल ही हैं जिनकी सलाहियत ने कांग्रेस को हाल के वर्षों में गुजरात की सत्ता के करीब नहीं फटकने दिया. देश भर की बात छोड़ भी दें तो क्या अहमद पटेल चाहते गुजरात में कांग्रेस की स्थिति बेहतर नहीं होती? कांग्रेस वहां तीन दशक से सत्ता से दूर है. क्या अब तक ऐसा कोई मौका नहीं आया कि कांग्रेस अपनी स्थिति सुधार सके? मान लेते हैं कि नरेंद्र मोदी के मुख्यमंत्री रहते ये काम मुश्किल रहा होगा. लेकिन जब हार्दिक पटेल और जिग्नेश मेवाणी के आंदोलनों से बीजेपी परेशान होने लगी तब भी? बीजेपी को तो परेशान होकर अपना मुख्यमंत्री तक बदलना पड़ा.

आखिर वाघेला को कांग्रेस को नहीं रोक पायी. ऐसा तो है नहीं कि वाघेला ने खुशी खुशी कांग्रेस छोड़ने की घोषणा की. वैसे भी बीजेपी उन्हें उतना तो कभी नहीं देने वाली जितना वो कांग्रेस में पा सकते थे, या उसके हकदार थे?

फिर जितनी तत्परता गुजरात में देखने को मिली क्या वैसी कोशिश अरुणाचल प्रदेश में हुई होती तो कांग्रेस को सरकार गंवानी पड़ती? चुनावों से पहले उत्तराखंड में अगर कांग्रेस की सरकार बची तो उसका क्रेडिट सिर्फ हरीश रावत को मिलना चाहिये. लेकिन चुनाव बाद क्या तत्पर होकर कांग्रेस गोवा और मणिपुर में सरकार नहीं बना सकती थी? या कांग्रेस के कुछ सिपहसालारों ने ये मौका इसलिए जाने दिया कि इससे दिग्विजय सिंह को हाशिये पर भेजना का मौका खोज रहे थे? क्या ऐसे अवसर गवांने में अहमद पटेल की कोई भी भूमिका नहीं रही होगी?

जो भी हो, गुजरात में राज्य सभा के इस चुनाव से दो अहम बातें सामने आयी हैं. एक, अहमद पटेल ने ये तो साबित कर दिया कि वो अब भी सुल्तान बने हुए हैं और दूसरी, बीजेपी सरकार के मंत्रियों के लगातार दबाव के बावजूद चुनाव आयोग 'तोता' नहीं बना. चुनाव जीते या हारे कोई भी, बेपरवाह चुनाव आयोग ने लोकतंत्र को हारने नहीं दिया और इसके लिए उसे बहुत बहुत बधाई मिलनी चाहिये.

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