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Updated: 10 जून, 2022 04:24 PM
दर्पण सिंह
दर्पण सिंह
  @darpan.singh
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विवाद, और ताजा अपडेट:

पैगंबर मुहम्मद के बारे में नुपुर शर्मा की कथित टिप्पणी को बहुत से लोगों ने ईशनिंदा करार दिया है. वहीं, दूसरे पक्ष के लोगों की ओर से उनकी टिप्पणी को एक कड़वी सच्चाई के तौर पर पेश किया गया है. नुपुर शर्मा ने इस मामले माफी मांगते हुए कहा है कि उन्होंने जो कहा, वह हिंदू धर्म के मजाक के जवाब में था. वहीं, पश्चिम एशियाई देशों के साथ ईरान की हालिया आपत्ति को ध्यान में रखते हुए भारत ने साफ कर दिया है कि सरकार पैगंबर मोहम्मद का सम्मान करती है. भारत सरकार ने कहा कि 'अपराधियों से इस तरह निपटा जाएगा कि यह अन्य लोगों के लिए सबक हो.' और, 9 जून को दिल्ली पुलिस ने असदुद्दीन ओवैसी और यति नरसिंहानंद पर भड़काऊ टिप्पणी को लेकर मामला दर्ज कर लिया है. क्योंकि, नुपुर शर्मा विवाद पर अभी भी बवाल जारी है.

आखिर क्या हो ग्राउंड रूल?

एक सभ्य समाज में किसी भी धर्म का मजाक उड़ाने के लिए कोई जगह नहीं होनी चाहिए. और, इसके साथ ही ईशनिंदा पर किसी का एकाधिकार या इसे एकतरफा नहीं होना चाहिए. यह सच है कि दोनों के गलत होने के बीच कोई एक सही नहीं हो जाता है. यह चर्चा करना बेकार है कि नुपुर शर्मा ने जो कहा, वह ईशनिंदा या कड़वी सच्चाई था. नुपुर को ऐसी टिप्पणी नहीं करनी चाहिए थी. ये नियम उन टिप्पणियों पर भी लागू होता है, जिसके जवाब में नुपुर की ये टिप्पणियां आई थीं. लेकिन फिर वही बात आएगी कि दो गलतियां किसी एक को सही नही बनाती हैं. पुलिस ने नुपुर शर्मा के साथ ही उसे सजा के तौर पर हिंसा, बलात्कार और हत्या की बात कहने वाले की खिलाफ भी जांच कर रही है.

अब असली सवाल ये है-

क्या नुपुर शर्मा की कथित टिप्पणी के बाद दी जाने वाली 'सिर तन से जुदा' कर देने वाली धमकियों की निंदा की गई है? अब तक सामने आ चुके ऐसे दर्जनों बयानों के बारे में क्या कोई निंदा प्रस्ताव या कड़ी आपत्ति का पत्र जारी किया गया है? खैर, इन बयानों के बाद नुपुर शर्मा को पुलिस सुरक्षा दे दी गई है. लेकिन, भारत कानून और संविधान से चलने वाला देश है. क्या इस तथ्य को बाकी सभी चीजों से ऊपर आदर्श मानते हुए वरीयता नहीं देनी चाहिए? अगर हम गोहत्या के लिए होने वाली लिचिंग या किसी को केवल मुस्लिम होने पर जय श्री राम का नारा न लगाने के लिए पीटने या परेशान करने के मामलों की निंदा करते हैं. तो, हमें हर तरह की हिंसक भीड़ की मानसिकता की निंदा करनी चाहिए.

इन 'गुनाहगारों' का क्या?

पुलिस ने इस विवाद में राजस्थान के बूंदी के मौलाना मुफ्ती नदीम सहित कुछ अन्य लोगों के खिलाफ भी मामला दर्ज किया है. जिन्होंने कहा था कि पैगंबर के खिलाफ बोलने वालों की आंखें निकाल ली जाएंगी. पैगंबर पर कथित टिप्पणी विवाद में भीम सेना प्रमुख नवाब सतपाल तंवर भी इन मौलानाओं से अलग नजर नहीं आते हैं. सतपाल तंवर ने नूपुर शर्मा की जुबान लाने वाले के लिए 1 करोड़ रुपये का इनाम देने का ऐलान किया है. इतना ही नहीं, तंवर ने कहा है कि 'वह उसे (नुपुर शर्मा) अपने सामने 'मुजरा' करवाएगा और वह फांसी की हकदार है.' लेकिन, कितने नेताओं ने इन बयानों की निंदा की है? कुछ नेताओं ने ये जरूर कहा है कि 'पैगंबर का नाम बहुत ऊंचा है और इसकी रक्षा के लिए आतंकवादियों की जरूरत नहीं है.' लेकिन क्या ऐसी बातें कहने वाली आवाजें और नहीं आनी चाहिए? जिहादियों और आतंकवादियों की निंदा करने का भार हमेशा कुछ चुनिंदा लोगों पर ही क्यों होना चाहिए?

दोमुंही दुनिया!

उस तालिबान के बारे में भी बात कीजिए, जिसने भारत में इस्लाम और मुसलमानों के खिलाफ कट्टरता पर लेक्चर दिया है? हम सभी जानते हैं कि तालिबान अफगानिस्तान में अपने लोगों यानी मुसलमानों के साथ क्या कर रहा है. उस इस्लामिक सहयोग संगठन (OIC) के बारे में भी बात होनी चाहिए. जिसने संयुक्त राष्ट्र से भारत में मुसलमानों के अधिकारों की रक्षा करने की अपील की है. 57 सदस्यीय इस्लामिक देशों के इस समूह की पाषाण युग वाले विचार और विभाजनकारी एजेंडे को कौन नहीं जानता है? और, आखिर भारत से माफी मांगने के लिए क्यों कहा जा रहा है? नूपुर शर्मा सरकार का हिस्सा नही थीं. और, उनकी पार्टी ने उनके खिलाफ कार्रवाई की है.

बात उस पाकिस्तान के बारे में में भी होनी चाहिए. जिसने नुपुर शर्मा की कथित टिप्पणी पर भारत को लेक्चर दिया है. और, जब यह लेख लिखा जा रहा था, समाचार एजेंसी पीटीआई की एक रिपोर्ट सामने आई, जिसमें कराची के एक हिंदू मंदिर में देवताओं की मूर्तियों को नष्ट कर दिया गया था. पाकिस्तान में यह अल्पसंख्यक हिंदू समुदाय के पूजास्थलों के खिलाफ तोड़फोड़ की हालिया घटना है. जब इमरान खान पाकिस्तान के प्रधानमंत्री थे, तो उन्होंने अफगानिस्तान में महिलाओं के साथ तालिबान के निंदनीय व्यवहार का पूरी शिद्दत से बचाव किया था. जबकि, अफगानिस्तान में टीवी चैनलों पर महिला एंकरों को अपना चेहरा ढंकना पड़ता है. और, रेस्तरां में बैठे एक जोड़े के सामने भी किसी समय कोई समस्या खड़ी हो सकती है.

निष्कर्ष:

किसी भी लोकतांत्रिक समाज में संविधान ही एकमात्र सबसे जरूरी किताब होनी चाहिए. इसके साथ ही चुनावी और धार्मिक विचारों को हमारे सार्वजनिक रुख को बदलने का मौका नहीं देना चाहिए. जैसा कि जर्मनी केंट ने एक बार कहा था, 'कुछ नहीं कहना कुछ कहना ही है. आपको उन चीजों की निंदा करनी चाहिए, जिनके खिलाफ आप हैं. या कोई यह मान सकता है कि आप उन चीजों का समर्थन करते हैं, जो आप वास्तव में नहीं करते हैं.'

लेखक

दर्पण सिंह दर्पण सिंह @darpan.singh

लेखक इंडिया टुडे डिजिटल में वरिष्ठ पत्रकार हैं.

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