New

होम -> सियासत

बड़ा आर्टिकल  |  
Updated: 16 मई, 2018 11:20 PM
राजदीप सरदेसाई
राजदीप सरदेसाई
  @rajdeep.sardesai.7
  • Total Shares

15 मई, 2018 इतिहास के पन्नों में एक ऐसे दिन की तरह दर्ज होगा जब भारतीय राजनीति ने हेरोल्ड विल्सन के प्रचलित वाक्य "एक सप्ताह राजनीति में एक लंबा समय है" को फिर से लिखा गया है. भारत में निस्संदेह चार घंटे बहुत ज्यादा हैं. दोपहर 12 बजे भाजपा, कर्नाटक में बड़ी जीत का जश्न मना रही थी; 4 बजे तक, जेडी (एस) के एचडी कुमारस्वामी किंग मेकर की भूमिका में आने के बाद अपने समर्थकों का धन्यवाद कर रहे थे.

इस हाई लेवल ड्रामे पर मेरे 10 प्वाइंट्स-

1) कर्नाटक ने एक "खंडित" जनादेश दिया है: बीजेपी का दावा है कि बहुमत से सिर्फ आठ विधायक कम होने के बाद भी वो एकमात्र सबसे बड़ी पार्टी हैं. पार्टी ने लोगों का जनादेश जीता है. लेकिन सच्चाई ये है कि कर्नाटक ने त्रिशंकु विधानसभा की स्थिति है, जो बीजेपी को "नैतिक" जीत के दावे करने का अधिकार तो देती है, लेकिन राजनीतिक नहीं.

जनादेश अंतिम संख्याओं के बारे में होता है: 2014 के आम चुनावों में, बीजेपी के पास 31 प्रतिशत वोट थे, लेकिन उन्होंने 282 सीटें जीतीं थीं, जो एक निर्णायक जनादेश था. कर्नाटक में, बीजेपी ने 36.2 प्रतिशत वोटों के साथ 222 सीटों में से 104 सीट जीते. ये एक मजबूत प्रदर्शन जरुर है, लेकिन निर्णायक जीत से बहुत दूर है.

2) सत्ता विरोधी लहर थी: ये तो साफ है कि कर्नाटक के लोगों ने सिद्धारम्मैया सरकार को खारिज कर दिया है. सरकार के एक दर्जन मंत्रियों को हार का मुंह देखना पड़ा. वहीं खुद मुख्यमंत्री को चामुंडेश्वरी विधानसभा सीट पर 30,000 से ज्यादा वोटों से हार का सामना करना पड़ा और बादामी में भी बड़ी मुश्किल से जीत पाए. भले ही कांग्रेस इस तथ्य से अपना दिल बहला सकती है कि उसको भाजपा की तुलना में दो प्रतिशत (और 2013 में मिले बहुमत की तुलना में भी एक प्रतिशत अधिक है) वोट ज्यादा मिले हैं. लेकिन ये सिर्फ दिल बहलाने की बातें हैं. क्योंकि जहां पर जादुई आंकड़े महत्वपूर्ण होते वहां बहुमत के लिए सीटें ही मायने रखती हैं वोट प्रतिशत नहीं. और सच्चाई यही है कि राज्य के हर क्षेत्र में कांग्रेस की सीटों में गिरावट आई है, जो कई मौजूदा विधायकों के खिलाफ गुस्से का भी संकेत है.

3) सिद्धारम्मैया पूरे कर्नाटक के नेता नहीं हैं: पूरे प्रचार अभियान के दौरान कांग्रेस के मुख्यमंत्री ने खुद को नरेंद्र मोदी के सामने खुद को एक निरंकुश शासक के रुप में पेश किया. उन्होंने कन्नडिगा समुदाय का नायक होने का दावा किया. उनकी इस छवि ने कई लोगों को उनसे दूर कर दिया. मुझे भी.

Karnataka election 2018, HD deve Gaowdaसिद्धरम्मैया के घमंड ने कांग्रेस को डुबो दिया

अंत में, सिद्धारम्मैया, कर्नाटक की जातिगत, क्षेत्रीय और धार्मिक विभाजनों को काट नहीं सके: चामुंडेश्वरी में उनकी हार से यही पता चला. यहां तक कि अपने गढ़ में भी वो उसी जगह वापस आ गए जहां से उन्होंने अपना राजनीतिक करियर शुरु किया था: सबसे तेज तर्रार कुर्बा जाति के नेता, लेकिन कन्नडिगा लोगों के आइकन नहीं, जिसकी हमने कल्पना की थी.

हालांकि एक तरफ जहां उनकी अन्ना भाग्य जैसी कल्याणकारी योजनाओं ने उन्हें लोगों के बीच प्रचलित किया तो वहीं कुछ राजनीतिक फैसलों जैसे लिंगायतों को अल्पसंख्यक दर्जा देना, गौड़ा परिवार से टकराव, कांग्रेस के अन्य नेताओं के साथ सत्ता साझा करने से इनकार करना या राज्य के पैसों से टीपू जयंती मनाना, इत्यादि ने उनपर ही पलटवार कर दिया. लोगों को जोड़ने वाले नेता के बदले उनकी छवि एक मतदाताओं का ध्रुवीकरण करने वाले नेता की हो गई.

4) नरेंद्र मोदी और अमित शाह, भाजपा की ताकत भी हैं और कमजोरी भी: अगर बीजेपी ने लगभग कर्नाटक को जीत ही लिया है, तो उसका सारा श्रेय मोदी-शाह जोड़ी को जाता है. उन्होंने एक ऐसी पार्टी में जान फूंक दी जो बदलाव के लिए जूझ रही थी. जिनके पास कोई स्थानीय नेतृत्व नहीं था और जिसका सामाजिक आधार कांग्रेस से बहुत ही छोटा था.

शाह की संगठनात्मक क्षमता और मोदी की वाकपटुता ने इसे लगभग खींच लिया: दरअसल ये मानने का पर्याप्त कारण हैं कि प्रधानमंत्री ने कांग्रेस के हाथ से चुनाव मई में छीन लिया जब उन्होंने लगातार एक के बाद एक चुनावी रैलियां की और बीजेपी को जीत मिली.

मोदी पर जरुरत से ज्यादा निर्भरता एक दोधारी तलवार है: इससे पार्टी को राष्ट्रपति पद जैसे चुनावों में बढ़ावा तो मिलता है, लेकिन लंबे समय में इससे जोखिम बढ़ जाता है. बीजेपी समर्थक खुद से एक साधारण सा सवाल पूछना चाहेंगे: एचडी कुमारस्वामी ने कांग्रेस से हाथ क्यों मिलाया, भाजपा को क्यों नहीं चुना?

कभी-कभी, एक अजेय राजनीतिक मशीन छोटी पार्टियों को डरा सकती है. ये भी एक कारण है जिसकी वजह से शाह-मोदी को गठबंधन के मंत्र से निपटना मुश्किल हो सकता है. खासतौर पर 2019 के चुनावों में.

5) जाति कर्नाटक की अंतिम "ब्रह्मास्त्र" बनी हुई है: भ्रष्टाचार, बुनियादी ढांचों का गिरना, पीने की पानी की कमी, किसानों की आत्महत्या, सरकार के सारे "भाग्य" योजनाएं, सभी को भूल जाइए. अंत में सिर्फ जातिगत झुकाव ही वोटों को तय करता है. वोक्कालिगा, गौड़ के साथ खड़े हुए; लिंगायत, येदुरप्पा के साथ खड़े हुए; कुर्बा और मुसलमान सिद्धारम्मैया के साथ खड़े थे. सिर्फ दलितों ही थे जो "लेफ्ट" और "राइट" दलितों के बीच खुले तौर पर बंटे हुए थे. ये जाति के अंदर ही उप-जाति के गहरे तक जमे होने का प्रमाण है.

6) विंध्य के दक्षिण में वोटों को हिंदुत्व दूर कर सकता है: मोदी सही कहते हैं कि बीजेपी ने दक्षिणी राज्य में अपने मजबूत प्रदर्शन के साथ इस विश्वास को तोड़ दिया है कि भाजपा एक हिंदी-हिंदू-हिंदुस्तान पार्टी है. लेकिन फिर भी यह सुशासन का वादा नहीं है बल्कि हिंदूओं के एकजुटता का एक संदेश है.

इसका सबसे बढ़िया उदाहरण तटीय कर्नाटक में बीजेपी की जीत है. यहां भाजपा ने कांग्रेस को हिंदु विरोधी, अल्पसंख्यक समर्थक पार्टी के रुप में पेश किया ताकि वो हिंदु वोटों को अपने तरफ खींच सके. "हिंदू-वाद" की ये छिपी हुई भावना एक चेतावनी है कि "शिक्षित" मध्यम वर्ग विषाक्त और विभाजनकारी धार्मिक एजेंडे के लिए अतिसंवेदनशील है.

7) देवेगौड़ा और उनके बेटे सफल व्यवसायी हैं: पूरे चुनावों में अधिकांश राजनीतिक पंडितों ने जनता दल (सेक्युलर) को एक कमजोर राजनीतिक पार्टी के रूप में लिखा. एक ऐसी पार्टी जो दो बड़ी "राष्ट्रीय" दलों के बीच दबकर रह जाएगी. हम लेकिन ये बात भूल गए कि सुपर मॉल के इस जमाने में भी गली के किराने वालों के अपने निश्चित ग्राहक होते हैं और वो उनके वफादार होते हैं.

Karnataka election 2018, HD deve Gaowdaदेवेगौड़ा ने भी सारे मौके भुना लिए

गौड़ा 50 से अधिक वर्षों तक राजनीति में हैं: 2018 में उन्होंने भाजपा के साथ एक चुनाव के पहले "गुप्त" समझौता किया था, जिसके द्वारा दक्षिणी कर्नाटक में भाजपा के वोट जेडी (एस) को स्थानांतरित किए गए थे. इसके बदले तटीय, केंद्रीय कर्नाटक और यहां तक कि पुराने मैसूर के कुछ हिस्सों में भी जेडी (एस) ने उनको वापस लौटाया. चुनाव हुए, गौड़ा और उनके बेटे ने किंगमेकर नहीं बल्कि राजा बनने के प्रयास में कमजोर कांग्रेस के साथ सौदा कर लिया. राजनीति के इस बाजार में वो न तो स्थायी दोस्त हैं और न ही स्थायी दुश्मन.

8) राहुल गांधी अभी भी प्रयोग में ही हैं: कांग्रेस अध्यक्ष के रूप में पद संभालने के बाद कर्नाटक राहुल गांधी के लिए सबसे बड़ा इम्तेहान था. हालांकि वो पूरी तरह से फेल नहीं हुए लेकिन पास भी नहीं हुए. राहुल गांधी के राजनीतिक करियर के बारे में कमोबेश यही बताता है: न तो वो यहां के हैं और न ही वहां के. इसमें कोई शक नहीं कि पूरे चुनाव अभियान में एड़ी चोटी का जोर लगा दिया और बहुत प्रयास भी किया लेकिन फिर भी जनता के साथ जुड़ने का कौशल अभी भी उनमें कम है.

इस बात के भी चर्चे हैं कि स्थानीय स्तर पर सभी कांग्रेसी नेता सिद्धारम्मैया के जीतने के पक्ष में भी नहीं थे: एक ऐसी पार्टी में जहां आप अपने प्रतिद्वंद्वियों को नीचे गिराकर ही तरक्की कर सकते हैं. राहुल को खुद को और उनकी पार्टी को नए सिरे से खड़ा करने की जरूरत है: इसके लिए साहस, आकर्षण और धैर्य जैसी चीजों की जरुरत होगी. ये साफ है कि चुनाव के बाद जब भी सौदेबाजी हुई, तो सोनिया गांधी और कांग्रेस के वरिष्ठ नेताओं को ही सामने आना पड़ा: आखिर राहुल ने गौड़ा और उनके बेटों को बीजेपी की बी-टीम कहा था.

9) राजनीति नैतिकता का खेल नहीं है बल्कि सिर्फ सत्ता को पाने की होड़ है: चुनाव के बाद होने वाले जोड़तोड़ त्रिशंकु विधानसभा का एक अभिन्न अंग है. तो इसलिए चलो कर्नाटक में जो कुछ भी हो रहा है उसके लिए बहुत हैरान होने की जरुरत नहीं है. बीजेपी ने गोवा, मणिपुर और मेघालय में इसे पूरी बेबाकी से अपनाया है, अब कांग्रेस और जेडी (एस) कर्नाटक में चुनाव के बाद गठबंधन का प्रयास कर रहे हैं. जबकि बीजेपी पार्टियों को तोड़ने में लगेगी है. रिसॉर्ट बुक किए जाएंगे, विधायक लुप्त हो जाएंगे, राजभवन में राजनीतिक गहमागहमी का दृश्य होगा.

बीजेपी को कोई दूध की धुली पार्टी ने समझें, कांग्रेस ये तर्क न दें कि कभी भी उन्होंने राज्यपाल के कार्यालय का दुरुपयोग नहीं किया है. "इस हमाम सब नंगे हैं". राजनीतिक शासकों के लिए ये मेरा पसंदीदा वर्णन है. या, जैसा कि समाजवादी पार्टी के पूर्व नेता अमर सिंह ने एक बार टीवी पर बहस में कहा था: "तुम कर तो रासलीला, हम करें तो कैरेक्टर ढीला."

कर्नाटक के लोगों के लिए सिर्फ दुख हो सकता है, जिन्हें अच्छे शासन की आवश्यकता है, राजनीतिक अस्थिरता की नहीं.

10) पत्रकारों कभी कभी राजनीतिक पंडितों से बेहतर होते हैं: भविष्यवाणी करने के लिए कर्नाटक एक कठिन राज्य है. यहां एक प्रतिशत का उलटफेर भी सीटों की संख्या में बड़ा अंतर ला सकता है. इसलिए हमें उन लोगों को बख्श देना चाहिए जिन्होंने चुनाव की गलत भविष्यवाणी की: उदाहरण के लिए इंडिया टुडे के एक्सिस माई इंडिया को एक कठोर वास्तविकता का सामना करना पड़ा.

शायद, हमारे जो संवाददाता 50-50 लड़ाई का सुझाव दे रहे थे, वो त्रिशंकु विधानसभा की तरफ ही इशारा कर रहे थे. और मैं एक्जिट पोल के गलत होने के लिए माफी चाहता हूं. लेकिन फिर भी मुझे ये याद दिलाने दीजिए: चुनावों के पहले के मेरे 10 प्वाइंट में मैंने चेतावनी दी थी कि कर्नाटक राजनीतिक लीग सुपर-ओवर के लिए जा रही है.

और वही हुआ है.

(राजदीप सरदेसाई की वेबसाइट rajdeepsardesai.net से साभार )

ये भी पढ़ें-

'कांग्रेस-जेडीएस सरकार' को रोककर बीजेपी गलती कर रही है

कर्नाटक में 'काला जादू' शुरू

लेखक

राजदीप सरदेसाई राजदीप सरदेसाई @rajdeep.sardesai.7

वरिष्ठ पत्रकार, लेखक

iChowk का खास कंटेंट पाने के लिए फेसबुक पर लाइक करें.

आपकी राय