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Updated: 19 दिसम्बर, 2017 02:28 PM
सुशांत झा
सुशांत झा
  @jha.sushant
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1. बीजेपी को मिली इस जीत में कई धमकियां और कई आश्वासन भी छुपे हुए हैं. धमकियां ये कि खेती-किसानी वाले ग्रामीण इलाकों में पार्टी कमजोर साबित हुई और पार्टी विरोधी मतों का बंटवारा कम होता गया. अब गुजरात में ठीक है कि शहरी वोट ज्यादा थे, तो कहिए कि गोली कनपटी छूकर निकल गई. लेकिन अगर ये देश में दोहरा गया तो क्या होगा!

2. मतलब बीजेपी जीत तो गई, लेकिन जैसा कि एक कार्टून ने दर्शाया कि मोदीजी कह रहे थे 'ग्लास आधा भरा है'. राहुल भी यही कह रहे थे. मोदी ने खुद स्वीकार किया कि ये जीत 'असाधारण' जीत है. यानी परिस्थिति की गंभीरता का उन्हें एहसास है. आप कह सकते हैं कि गुजरात की जीत बीजेपी के लिए वैसी ही है जैसे दूसरे विश्वयुद्ध के बाद इंग्लैंड-फ्रांस की थी या हाल में JNU में लेफ्ट यूनिटी की है. जीते तो, लेकिन लहूलुहान होकर.

3. बीजेपी खुश हो सकती है कि 5 बार सत्ता-विरोधी मूड को धता बता दिया. सही बात है. लेकिन जिस तरह से विरोधी मत (व सूक्ष्म रूप से दल भी) एकजुट हो गए, अगर वैसी परिपक्वता और धैर्य उन्होंने अन्यत्र दर्शाया तो बीजेपी को लेने के देने पड़ जाएं. आप बिहार विधानसभा या दिल्ली चुनाव को याद करें.

4. हां, आश्वासन ये है कि बीजेपी ने अपना फैलाव समाज की दुर्बल जातियों तक कर लिया है. गुजरात में अधिकांश पटेल मत भले बीजेपी को न मिले हों, लेकिन उसके वोट शेयर मे पिछले विधानसभा चुनाव की तुलना में बढ़ोत्तरी हुई. यानी भाजपा ने एक बड़े हिस्से की भरपाई कहीं और से की और जाहिर है पटेल (करीब 15%), दलित(करीब 7%), पिछड़ी जातियां-आदिवासियों की ठीकठाक संख्या की भरपाई बीजेपी ने अत्यंत पिछड़ी जातियों और कुछ दलित जातियों से की है.

Gujarat, Modi, Rahulगुजरात के नतीजे मोदी और राहुल दोनोंं के लिए सबक हैं

5. ये वही वोट बैंक है जो महाराष्ट्र में गैर-मराठा जातियों की है. हरियाणा में गैर-जाटों की हैं. यूपी-बिहार में गैर-यादव पिछड़ों की हैं. यानी बीजेपी साठ के दशक की सिर्फ ब्राह्मण-बनियों की पार्टी नहीं रही. अब उसमें दुर्बल जातियों का प्रवेश हो गया है, जिसका प्रतिनिधित्व सूक्ष्म रूप से खुद मोदी भी करते हैं. ये वही जातियां हैं जिसका नेतृत्व बिहार में नीतीश कुमार या कर्पूरी करते थे. तमिलनाडु में किसी रूप में जयललिता करती थी और आंध्रप्रदेश में चंद्रबाबू नायडू या तेलंगाना में के. चंद्रशेखर राव के इर्द-गिर्द खड़ी हैं.

6. यानी बीजेपी जिस राह पर बढ़ रही है वो मंडल-2 की तरफ जाता है. मंडल-1 में पिछड़ी जातियों का जागरण तो हुआ, लेकिन उसका राजनीतिक और संभावित आर्थिक लाभ ज्यादातर सबल और ज्यादा संख्या वाली जातियों को मिला. उसके बाद उसमें कुछ जाट और पटेल जैसी कुछ सामान्य जातियां भी हिस्से की मांग करने लगीं. बीजेपी ने खुलकर इस पर स्टैंड लिया है, जबकि कांग्रेस ढुलमुल दिख रही है. इस चुनाव का असर आनेवाले समय में पिछड़ा वर्ग आयोग को संवैधानिक दर्जा दिए जाने से संबंधित विधेयक पर पड़ सकता है, जिसके समर्थन के प्रति कांग्रेस अभी भी अनिच्छुक है. जाहिर है, बीजेपी सन् 2019 में इसका फायदा उठाना चाहेगी.

7. राहुल गांधी के लिए सबक ये है कि कांग्रेस का संगठन कमजोर है और फिर से कहना बुरा लगता है, लेकिन राजनीति चौबीस घंटे का पेशा है. साथ ही हर बीस साल में आंकाक्षा और नवाचार की परिभाषा, संदर्भ के हिसाब से बदलती रहती है.

8. यानी जातियों के खेल में बीजेपी आगे तो है, लेकिन अमीर-गरीब, ग्रामीण-शहरी इत्यादि के नेरैटिव में वो अगर कमजोर नहीं तो बढ़त में भी नहीं है. दुर्बल जातियों का उसके साथ आना हाल की परिघटना है. लेकिन मोटेतौर पर उसकी छवि अभी भी शहरी, व्यापारिक और एक हद तक बड़े लोगों की पार्टी की है. ये उसके लिए चिंता की बात होनी चाहिए.

9. इस चुनाव में बीजेपी के लिए और किसी भी सरकार के लिए एक सबक है. किसान और गांव बेचैन हो रहे हैं, नाराज हो रहे हैं. ये बात ठीक है कि गांव मतलब सिर्फ गांव नहीं है और शहर में भी गांव के लोग हैं, लेकिन यहां तात्पर्य यह है कि वे अपनी उपेक्षा को चुनावों में ज्यादा मजबूती से दर्ज कर रहे हैं. सन् 2009 में कांग्रेस की जीत की एक बड़ी वजह मनरेगा और ग्रामीण विकास पर किए गए खर्च माने गए थे. बीजेपी को देखना होगा कि उसकी छवि सिर्फ हाईवे बनाने, बुलेट ट्रेन चलाने और स्मार्ट सिटी वाली पार्टी की न रह जाए.

10. कुल मिलाकर कहा जा सकता है कि बीजेपी को पता था कि सूनामी आनेवाली है, लेकिन वो अंडमान के चतुर-सुजान आदिवासियों की तरह दो दिन पहले ही सबसे ऊंचे पेड़ की डाली पर जाकर बैठ गई थी.

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लेखक

सुशांत झा सुशांत झा @jha.sushant

लेखक टीवी टुडे नेटवर्क में पत्रकार हैं.

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