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फेसबुक पर गैंगरेप और मुसलमानों को मारने वाले लोगों के लिए भी विज्ञापन!

    • जावेद अनवर
    • Updated: 18 सितम्बर, 2017 04:37 PM
  • 18 सितम्बर, 2017 04:37 PM
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इसे फेसबुक के बिजनेस मॉडल की खामी कहें या फिर algorithm की या फिर कंपनी की मुनाफाखोरी की आदत, लेकिन दुनिया की एक बड़ी टेक कंपनी ऐसे यूजर्स तक विज्ञापन पहुंचाती है जो लोगों को मारने की या गैंगरेप की बात करते हैं.

फेसबुक की स्ट्रैटजी को लेकर गाहे-बगाहे सवाल उठते रहे हैं. टेक कंपनियां इंटरनेट को सेंसर नहीं कर सकतीं, लेकिन उनकी साइट पर क्या चल रहा है इसके बारे में उन्हें जानकारी तो रखनी ही चाहिए. खैर, जो भी हो हाल ही में फेसबुक की एक बड़ी खामी सामने आई है. इसे फेसबुक के बिजनेस मॉडल की खामी कहें या फिर algorithm की या फिर कंपनी की मुनाफाखोरी की आदत, लेकिन दुनिया की एक बड़ी टेक कंपनी ऐसे यूजर्स तक विज्ञापन पहुंचाती है जो लोगों को मारने की या गैंगरेप की बात करते हैं.

किसी नाजी रैली में जाना है, हिटलर का ग्रुप ज्वाइन करना है? मुसलमानों को मारना है? या किसी का गैंगरेप करना है? इस तरह के सवाल पूछने वाले या इस तरह की विचारधारा रखने वाले लोगों तक फेसबुक किसी भी एडवर्टाइजर को पहुंचा सकती है. ये माना जा सकता है कि फेसबुक एक ऐसी कंपनी है जिसके 2 बिलियन यूजर्स हैं और इनमें से कई ऐसे होंगे जो असामाजिक सोच रखते हों, लेकिन ये समझना थोड़ा मुश्किल है कि ये 2 बिलियन यूजर्स वाली कंपनी किसी को भी ऐसा विज्ञापन पोस्ट करने की सहूलियत देती है जो ऐसे लोगों की वॉल तक पहुंच सके. कोई भी एडवर्टाइजर, किसी भी इंसान की वॉल तक आसानी से बिना किसी खास चेक प्वाइंट के पहुंच सकता है. ये वो लोग हैं जो यहूदियों से नफरत करते हैं, हाजी मुसलमानों को मारना चाहते हैं, गैंगरेप करना चाहते हैं और तरह-तरह के नफरत भरे टॉपिक के बारे में फेसबुक पर लिखते हैं और सर्च करते हैं.

कुछ ऐसे दिखते हैं कीवर्ड्स

ये रिपोर्ट सबसे पहले

फेसबुक की स्ट्रैटजी को लेकर गाहे-बगाहे सवाल उठते रहे हैं. टेक कंपनियां इंटरनेट को सेंसर नहीं कर सकतीं, लेकिन उनकी साइट पर क्या चल रहा है इसके बारे में उन्हें जानकारी तो रखनी ही चाहिए. खैर, जो भी हो हाल ही में फेसबुक की एक बड़ी खामी सामने आई है. इसे फेसबुक के बिजनेस मॉडल की खामी कहें या फिर algorithm की या फिर कंपनी की मुनाफाखोरी की आदत, लेकिन दुनिया की एक बड़ी टेक कंपनी ऐसे यूजर्स तक विज्ञापन पहुंचाती है जो लोगों को मारने की या गैंगरेप की बात करते हैं.

किसी नाजी रैली में जाना है, हिटलर का ग्रुप ज्वाइन करना है? मुसलमानों को मारना है? या किसी का गैंगरेप करना है? इस तरह के सवाल पूछने वाले या इस तरह की विचारधारा रखने वाले लोगों तक फेसबुक किसी भी एडवर्टाइजर को पहुंचा सकती है. ये माना जा सकता है कि फेसबुक एक ऐसी कंपनी है जिसके 2 बिलियन यूजर्स हैं और इनमें से कई ऐसे होंगे जो असामाजिक सोच रखते हों, लेकिन ये समझना थोड़ा मुश्किल है कि ये 2 बिलियन यूजर्स वाली कंपनी किसी को भी ऐसा विज्ञापन पोस्ट करने की सहूलियत देती है जो ऐसे लोगों की वॉल तक पहुंच सके. कोई भी एडवर्टाइजर, किसी भी इंसान की वॉल तक आसानी से बिना किसी खास चेक प्वाइंट के पहुंच सकता है. ये वो लोग हैं जो यहूदियों से नफरत करते हैं, हाजी मुसलमानों को मारना चाहते हैं, गैंगरेप करना चाहते हैं और तरह-तरह के नफरत भरे टॉपिक के बारे में फेसबुक पर लिखते हैं और सर्च करते हैं.

कुछ ऐसे दिखते हैं कीवर्ड्स

ये रिपोर्ट सबसे पहले ProPublica नाम की वेबसाइट पर आई थी. इसके बाद वेबसाइट Slate ने भी इसके बारे में लिखा. सबसे पहले पब्लिश की गई रिपोर्ट में ये बताया गया था कि फेसबुक के एडवर्टाइजर्स ऐसे लोगों को भी टार्गेट कर सकते हैं जो यहूदियों से नफरत करते हैं. इसके बाद दूसरी रिपोर्ट में ये सामने आया कि फेसबुक पर और भी ज्यादा नफरत भरे टॉपिक पोस्ट करने वाले लोगों को टार्गेट किया जा सकता है. खास बात ये है कि इन सब लोगों तक पहुंचने की चाभी फेसबुक ही पहुंचाता है विज्ञापन देने वालों तक.. कैसे? फेसबुक एडवर्टाइजर्स तक ऑटो सजेशन के जरिए इस तरह के टॉपिक पहुंचाता है.

जब इस तरह के नफरत भरे कीवर्ड्स के साथ फेसबुक को कोई विज्ञापन दिया जाता है तो उसका अप्रूवल कुछ मिनटों के अंदर ही हो जाता है. ProPublica ने इस मामले में फेसबुक से बात करनी चाही तो फेसबुक का कहना था कि वेबसाइट ने जिन कीवर्ड्स को चुना था एड टार्गेटिंग के लिए वो ज्यादातर इस्तेमाल नहीं होते और ज्यादा लोगों तक नहीं पहुंचे होंगे. फेसबुक के प्रवक्ता जो ऑस्बोर्न का कहना था कि कंपनी ने इस मामले में जांच की और इसके बारे में पता चला कि ये कीवर्ड्स बड़े पैमाने पर इस्तेमाल नहीं किए जाते हैं. इस न्यूज वेबसाइट की जांच में ये भी सामने आया कि जैसे ही इस बारे में जानकारी फेसबुक तक पहुंचाई गई वैसे ही हेट कीवर्ड्स हटा दिए गए.

हालांकि, फेसबुक की एल्गोरिथ्म में बदलाव नहीं आया क्योंकि जब दूसरी वेबसाइट Slate ने इसके बारे में पूछा तो और ज्यादा हेट कीवर्ड्स मिले. और इनका इस्तेमाल कर एडवर्टाइजर्स आसानी से ऑडियंस तक पहुंच रहे थे.

ये मामला इतना छोटा नहीं है जितना समझ आ रहा है क्योंकि फेसबुक किसी भी अन्य वेब सर्विस की तरह नहीं है. इसके 2 बिलियन यूजर्स हैं और दुनिया भर में ये अहम भूमिका निभा रही है. इतना ही नहीं कई लोगों का ये भी मानना है कि फेसबुक ने लोगों के व्यवहार को बदलना शुरू कर दिया है.

कई एक्सपर्ट्क का मानना है कि फेसबुक के कारण ही डोनाल्ड ट्रंप जीत पाए और वो फेसबुक ही था जिसने ट्रंप की कैंपेन में उसके विचार और झूठ लोगों तक पहुंचाए जिससे लोकप्रियता बढ़ी. शायद ऐसी ही एल्गोरिथ्म रही हो जिसके कारण ट्रंप के मैनेजर उन लोगों तक पहुंच पाए जो विद्रोही विचारधारा रखते थे.

अगर यूजर बेस को देखा जाए तो फेसबुक वाकई इस काम को करने में सक्षम है और आसानी से कोई भी राजनीतिक पार्टी ऐसे लोगों का फायदा उठा सकती है जो विरोधी सोच रखते हैं. फेसबुक की मदद से आसानी से विज्ञापन देने वाले अपने विचार लोगों तक पहुंचा सकते हैं और ये असल में एक बड़ी समस्या बन सकती है.

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इस लेख में लेखक ने अपने निजी विचार व्यक्त किए हैं. ये जरूरी नहीं कि आईचौक.इन या इंडिया टुडे ग्रुप उनसे सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ लेखक ही जिम्मेदार है.

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