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Colorless और waterless होली की पैरवी करने वालों के लिए ही सलीब पर चढ़े थे दयालु येशु

    • बिलाल एम जाफ़री
    • Updated: 01 मार्च, 2018 08:15 PM
  • 01 मार्च, 2018 06:46 PM
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आज के इस दौर में बुद्धिजीवी बनने की शुरुआत ना नुकुर से होती है. इन बुद्धिजीवियों की बुद्धिजीविता तब और प्रबल हो जाती है जब सामने त्योहार हो. त्योहार जब होली या दीवाली होता है तो विरोध अपने सबसे विशाल रूप में रहता है.

एक अजीब दौर चल पड़ा है. विरोध का दौर. गतिरोध का दौर. हर चीज को बुरा कहने, हर चीज में बुराई ढूंढने का दौर. रंग में भंग डालने का दौर, बेमतलब, बिन बुद्धि या कम बुद्धि के "बुद्धिजीवी" बनने का दौर.

आज के इस दौर में बुद्धिजीवी बनने की शुरुआत ना नुकुर से होती है. इन बुद्धिजीवियों की बुद्धिजीविता तब और प्रबल हो जाती है जब सामने त्योहार हो. त्योहार जब होली या दीवाली होता है तो विरोध अपने सबसे विशाल रूप में रहता है. अभी त्योहार ने घर के दरवाजे पर दस्तक दी भी नहीं की लोग इस प्लानिंग में लग जाते हैं कि इस बार कैसे नए तरीके से विरोध किया जाए.

होली का त्योहार आने में कुछ देर बची है. चौक चौराहों, गली नुक्कड़ हर जगह लोग उत्साहित हैं, महिलाएं किचन में पकवान को लेकर उधेड़ बुन में हैं तो बच्चे और युवा होली के रंगों को लेकर पशोपेश में हैं. इन सब के बीच त्योहार के विरोधी भी कमर में इंटिलेक्चुअल का पट्टा बांध के मैदान में आ गए हैं और "कलरलेस" और "वॉटरलेस" होली की डिमांड शुरू हो गयी है.

सोशल मीडिया पर बैनर, पोस्टर, पैम्पलेट वाली ग्रुप तस्वीरें और सेल्फियां आ गयी हैं. लोग त्योहार का मजा किरकिरा करने के लिए एकजुट हो गए हैं.

बात बहुत साफ़ है. त्योहार मौज मस्ती और भाई चारे के लिए हैं, बेमतलब विरोध के लिए नहीं. बाकी ये विरोध तब कहां जाता है जब हम विदेशी त्योहारों को बिन जाने बूझे मनाते हैं.

इसे ऐसे समझिये कि अभी कुछ दिन पहले अंग्रेजो का त्योहार हैलोवीन था. विदेशी त्योहार पर अकबकाए अपने देसी लोग प्रेत और पिशाच बन चहरे पर टमाटर वाला कैचप पोते बेहद खुश थे. कह सकते हैं कि इस त्योहार पर इनकी ख़ुशी का ठिकाना ही नहीं था.

अब इनसे कोई पूछे कि जरा इस त्योहार को क्यों मानते हैं तो शायद ही इन्हें कोई आईडिया हो. कहा ये भी जा सकता है कि यही वो लोग हैं जो होली को वॉटर और कलर लेस...

एक अजीब दौर चल पड़ा है. विरोध का दौर. गतिरोध का दौर. हर चीज को बुरा कहने, हर चीज में बुराई ढूंढने का दौर. रंग में भंग डालने का दौर, बेमतलब, बिन बुद्धि या कम बुद्धि के "बुद्धिजीवी" बनने का दौर.

आज के इस दौर में बुद्धिजीवी बनने की शुरुआत ना नुकुर से होती है. इन बुद्धिजीवियों की बुद्धिजीविता तब और प्रबल हो जाती है जब सामने त्योहार हो. त्योहार जब होली या दीवाली होता है तो विरोध अपने सबसे विशाल रूप में रहता है. अभी त्योहार ने घर के दरवाजे पर दस्तक दी भी नहीं की लोग इस प्लानिंग में लग जाते हैं कि इस बार कैसे नए तरीके से विरोध किया जाए.

होली का त्योहार आने में कुछ देर बची है. चौक चौराहों, गली नुक्कड़ हर जगह लोग उत्साहित हैं, महिलाएं किचन में पकवान को लेकर उधेड़ बुन में हैं तो बच्चे और युवा होली के रंगों को लेकर पशोपेश में हैं. इन सब के बीच त्योहार के विरोधी भी कमर में इंटिलेक्चुअल का पट्टा बांध के मैदान में आ गए हैं और "कलरलेस" और "वॉटरलेस" होली की डिमांड शुरू हो गयी है.

सोशल मीडिया पर बैनर, पोस्टर, पैम्पलेट वाली ग्रुप तस्वीरें और सेल्फियां आ गयी हैं. लोग त्योहार का मजा किरकिरा करने के लिए एकजुट हो गए हैं.

बात बहुत साफ़ है. त्योहार मौज मस्ती और भाई चारे के लिए हैं, बेमतलब विरोध के लिए नहीं. बाकी ये विरोध तब कहां जाता है जब हम विदेशी त्योहारों को बिन जाने बूझे मनाते हैं.

इसे ऐसे समझिये कि अभी कुछ दिन पहले अंग्रेजो का त्योहार हैलोवीन था. विदेशी त्योहार पर अकबकाए अपने देसी लोग प्रेत और पिशाच बन चहरे पर टमाटर वाला कैचप पोते बेहद खुश थे. कह सकते हैं कि इस त्योहार पर इनकी ख़ुशी का ठिकाना ही नहीं था.

अब इनसे कोई पूछे कि जरा इस त्योहार को क्यों मानते हैं तो शायद ही इन्हें कोई आईडिया हो. कहा ये भी जा सकता है कि यही वो लोग हैं जो होली को वॉटर और कलर लेस करने, दीवाली को बम लेस करने के लिए छाती कूटे पड़े हैं.

"प्लीज, प्लीज होली पर "रंगों" से दूर रहिये, पानी बचाइये" वाले लोगों को देखकर कभी- कभी मुझे महसूस होता है कि इन्हीं फेस्टिवल स्पॉइलर्स" लोगों के कारण दयालु येशु सलीब पर चढ़े थे और बेमतलब अपना खून बहाया था.

तो भइया, बात का सार बस इतना है कि त्योहार मनाइए, दिल खोलकर मनाइए. प्यार से रंग लगाइए और रही बात पानी बचाने की तो साल का 364 दिन बचा है. कहां भागा जा रहा है पानी, तब बचा लीजियेगा. जाते - जाते बस इतना ही की हैप्पी होली...

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इस लेख में लेखक ने अपने निजी विचार व्यक्त किए हैं. ये जरूरी नहीं कि आईचौक.इन या इंडिया टुडे ग्रुप उनसे सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ लेखक ही जिम्मेदार है.

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