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बेबस-मजबूर मजदूर और उन्हें सिरे से ख़ारिज करती बेफिक्र सरकार!

    • अबयज़ खान
    • Updated: 14 मई, 2020 07:20 PM
  • 14 मई, 2020 07:20 PM
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लॉक डाउन (Lockdown ) के इस दौर में सबसे ज्यादा दुखद उन मजदूरों (Migrant Workers) को देखना है जो अपने परिवार जिनमें महिलाएं और छोटे छोटे बच्चे भी शामिल हैं, उनके साथ कई सौ किलोमीटर की यात्रा कर वापस अपने घरों की तरफ लौट रहे हैं.

बेबस बाप है. बेशर्म सिस्टम है. पत्थराई हुई आंखें हैं. पैरों में छाले हैं. खाने के लाले हैं. मजबूर मां है. बेग़ैरत हुक्मरान हैं. आंखों में आंसू हैं. चेहरों पर खौफ़ है. भूखे पेट बच्चे हैं. सूखे हुए गले हैं. टूटी हुई चप्पल है, कुर्ते की फटी जेब है. तपती हुई सड़कें हैं, पुलिस की लाठियां हैं. पहाड़ सा सफ़र है. मंज़िल का पता नहीं. एक दर्द का दरिया है, जिसे पार करते जाना है. बेहिसाब सवाल हैं. मगर जवाब कोई नहीं है. जवाब किसी के पास नहीं है. क्योंकि मजदूर एक तमाशा है और सब के सब तमाशाई हैं. तमाशबीनों के इस शहर में किसी के सीने में भी शायद दिल नहीं है. अपने खून से शहर को सींचने वालों के लिए इस शहर में निवाला भी मयस्सर नहीं है. मजबूर मजदूर के कंधों पर उसकी बीमार बीवी है. बेबस बाप के कंधों पर मासूम बचपन है. सिसकती मां की उंगलियां पकड़े हुए उसकी लाडली है. कहां जा रहे हैं किसी को पता नहीं है. मगर इस बनावटी शहर से वो बहुत दूर चले जाना चाहते हैं जहां उनके साथ अब तक सिर्फ छल हुआ है. जहां उनके ख़्वाबों के साथ फ़रेब हुआ है. जहां उनके अंगूठों के निशान के साथ उनका खून भी चूस लिया गया है. मगर इसी शहर में जहां लॉक डाउन है, वहां अमीरों की जमात एसी कमरों में बैठकर पकवानों का लुत्फ़ उठा रही है. बालकनी में थाली बजा रही है. घर की देहरी पर दीये जला रही है और भूखे-बेबस मजदूरों को खरी खोटी सुना रही है.

अपने मां बाप के साथ पैदल चलता बच्चा इतना थक गया कि उसे ट्रॉली पर ही नींद आ गई मगर मां की हिम्मत ने साथ नहीं छोड़ा

1500 किलोमीटर का सफ़र है. नन्ही सी जान चल भी नहीं पा रही है. पैरों में छाले पड़ चुके हैं. मुंह को निवाला तक नसीब नहीं है. डामर की काली सड़क नाज़ुक पैरों को जला रही है. स्मार्ट सिटी की रंगीन लाइटें आंखों में चुभ रही हैं....

बेबस बाप है. बेशर्म सिस्टम है. पत्थराई हुई आंखें हैं. पैरों में छाले हैं. खाने के लाले हैं. मजबूर मां है. बेग़ैरत हुक्मरान हैं. आंखों में आंसू हैं. चेहरों पर खौफ़ है. भूखे पेट बच्चे हैं. सूखे हुए गले हैं. टूटी हुई चप्पल है, कुर्ते की फटी जेब है. तपती हुई सड़कें हैं, पुलिस की लाठियां हैं. पहाड़ सा सफ़र है. मंज़िल का पता नहीं. एक दर्द का दरिया है, जिसे पार करते जाना है. बेहिसाब सवाल हैं. मगर जवाब कोई नहीं है. जवाब किसी के पास नहीं है. क्योंकि मजदूर एक तमाशा है और सब के सब तमाशाई हैं. तमाशबीनों के इस शहर में किसी के सीने में भी शायद दिल नहीं है. अपने खून से शहर को सींचने वालों के लिए इस शहर में निवाला भी मयस्सर नहीं है. मजबूर मजदूर के कंधों पर उसकी बीमार बीवी है. बेबस बाप के कंधों पर मासूम बचपन है. सिसकती मां की उंगलियां पकड़े हुए उसकी लाडली है. कहां जा रहे हैं किसी को पता नहीं है. मगर इस बनावटी शहर से वो बहुत दूर चले जाना चाहते हैं जहां उनके साथ अब तक सिर्फ छल हुआ है. जहां उनके ख़्वाबों के साथ फ़रेब हुआ है. जहां उनके अंगूठों के निशान के साथ उनका खून भी चूस लिया गया है. मगर इसी शहर में जहां लॉक डाउन है, वहां अमीरों की जमात एसी कमरों में बैठकर पकवानों का लुत्फ़ उठा रही है. बालकनी में थाली बजा रही है. घर की देहरी पर दीये जला रही है और भूखे-बेबस मजदूरों को खरी खोटी सुना रही है.

अपने मां बाप के साथ पैदल चलता बच्चा इतना थक गया कि उसे ट्रॉली पर ही नींद आ गई मगर मां की हिम्मत ने साथ नहीं छोड़ा

1500 किलोमीटर का सफ़र है. नन्ही सी जान चल भी नहीं पा रही है. पैरों में छाले पड़ चुके हैं. मुंह को निवाला तक नसीब नहीं है. डामर की काली सड़क नाज़ुक पैरों को जला रही है. स्मार्ट सिटी की रंगीन लाइटें आंखों में चुभ रही हैं. मां गोद में ऊंघते हुए छोटे बच्चे को लेकर घिसट- घिसट कर कदमों को बढ़ाती है. मगर खाली पेट और सूखा गला आगे बढ़ने नहीं देता है. पानी की मटमैली सी बोतल में कुछ घूंट पानी है. मगर बच्चों की तरफ देखकर मां उस बोतल को भी मुंह से नहीं लगाती है. क्या मालूम आगे कब उसके बच्चे पानी मांग लें और फिर क्या पता रास्ते में कहीं पानी मिले भी या ना मिले.

चलते चलते बच्ची पूछ रही है, मां अभी कितना और चलना है? पैरों में दर्द होता है. मां का गला रुंध जाता है. उसे खुद नहीं पता कितना चलना है. कब तक चलना है. चलते चलते मंजिल मिलेगी भी या चलते चलते ही मर जाना है. कड़ी धूप में चलते-चलते उसकी टांगे भी जवाब देने लगी हैं. बच्ची के नन्हें से पैर में कांटा चुभ आया है. उसके पैर सूज गये हैं मगर वो लंगड़ाते हुए अब एक पैर से ही चल रही है. इधर मजबूर मां ज़ार ज़ार रो रही है. दो वक़्त का खाना पोटली में बांधकर लायी थी, वो भी ख़त्म हो चुका है, रास्ते में भूख लगेगी तो बच्चों को क्या खिलाएगी?

शहर से अपने गांव के लिए झुंड के झुंड चले जा रहे हैं. किसी को चंडीगढ़ से राजस्थान जाना है. किसी को दिल्ली से बिहार जाना है. किसी को झारखंड किसी को यूपी, बंगाल जाना है. किसी को 100 किलोमीटर चलना है, किसी को 200, किसी को 300, किसी को 1000. मगर इतने बड़े मुल्क में इतनी सरकारें हैं. जो उनके कमाये पैसे से चल रही हैं. मजबूर मजदूरों के लिए एक अदद गाड़ी तक मयस्सर नहीं करा पायीं.

2 बच्चों को अपनी कमर से बांधे हुए एक बाप कहता है, साहेब हमे घर जाने दो. यहां भूख से मरने से अच्छा है, अपने घर जाकर अपनों के बीच मर जाएं. पुलिस वाले रोकते हैं. दुत्कारते हैं. मजदूर गिड़गिड़ाता है तो लाठी और भी ज़ोर से मारते हैं. लाठी के सारे ख़म पुलिस वाले जैसे इसी पर निकाल देना चाहते हैं. ट्रेनिंग में पुलिस को जो भी सिखाया गया है सब इसी कमजोर पर आजमाना चाहते हैं.

चलते चलते थक चुके बुजुर्ग की आवाज टूटने लगी है. बूढ़ा बाप गुहार लगा रहा है, साहब हम दिहाड़ी मजदूर हैं. एक फूटी कौड़ी हमारे पास नहीं बची है. साहब हमें घर जाने दो. इस शहर में रहेंगे तो भूखे मर जायेंगे और हाँ जिंदा रहे तो कभी अपना गांव छोड़कर अब शहर नहीं आयेंगे. साहब यहां जिल्लत के सिवा हमें मिला भी क्या है? वोट देने के साथ हमारी जो कतार शुरू होती है वो और लंबी होती जाती है. कभी राशन की कतार, मजदूरी के लिए कतार, खाने के लिए कतार, पानी के लिए कतार, अस्पताल की कतार, टिकट के लिए कतार.

साहब हमारी हैसियत कतार के कीड़ों से ज्यादा कुछ भी नहीं है. साहब पापी पेट के लिए शहर आए थे. मगर यहां से पाई पाई के मोहताज होने के बाद अपने घर जा रहे हैं. आज हमारे लिए ना बस है, ना ट्रेन है. अमीर सब हवाई जहाज़ से आ रहे हैं. बसों से घर भेजे जा रहे हैं. हमारे लिए रेल तो नहीं चली मगर हमारे ऊपर रेल जरूर चल गयी.

आप चलाते रहिये अब ठंडी ठंडी लंबी दूरी की रेलगाड़ियां. अमीर लोगों के लिए. एसी, नॉन एसी...हमारे पास तो देने को अब दमड़ी भी नहीं बची है. हम मजदूर जरूर हैं साहब मगर बेवकूफ़ नहीं है. हमारे पास खाने को नहीं है, टिकट के पैसे कहां से लायेंगे ? चलने दीजिए हमें ऐसे ही पैदल. जिंदगी रही तो अपने घर पहुंच जाएंगे. नहीं तो रास्ते में कहीं दम तोड़ देंगे. वैसे भी हमारे मरने-जीने से किसी को क्या फर्क़ पड़ता है. मगर एक बात याद रखिएगा 'जो मजदूर इमारत बनाना जानता है, वही गिराना भी जानता है'.

किसी शायर ने लिखा है..

शहर में मज़दूर जैसा दर-ब-दर कोई नहीं

जिस ने सब के घर बनाए उस का घर कोई नहीं

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इस लेख में लेखक ने अपने निजी विचार व्यक्त किए हैं. ये जरूरी नहीं कि आईचौक.इन या इंडिया टुडे ग्रुप उनसे सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ लेखक ही जिम्मेदार है.

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