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क्यों समाज महिलाओं को हर समय बेहद खास बनाने पर तुला है?

    • रीवा सिंह
    • Updated: 18 मार्च, 2023 10:19 PM
  • 18 मार्च, 2023 10:19 PM
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समाज आज यह बताने में व्यस्त है कि महिलाएं बहुत ख़ास हैं और हमारी लड़ाई ही इसी बात की है कि हमें ख़ास नहीं बनना, सामान्य बनना है. इतना सामान्य कि हम कुछ हासिल कर लें तो मोटिवेशन के नाम पर तालियां न पीटी जाएं. इतना सामान्य कि आप हमारे लिये कुछ करके यह न गाते फिरें कि हमने अपनी बेटी के लिये ऐसा किया. इतना सामान्य कि हम अपने निर्णयों को आख़िरी मानना सीख लें और समाज का मुंह न ताकें जो हमें ट्युटोरियल दे.

फ़िनलैण्ड - वह देश जिसके पास विश्व में सबसे अच्छा एजुकेशन मॉडल है, अपनी प्रधानमंत्री को दोस्तों के साथ डांस करता न देख सका और उस विश्व ने, जिसके लोकप्रिय नेताओं के विवाहेतर संबंध व सेक्स स्कैंडल्स आम हैं, उस नेत्री पर सवालों का वज्रपात कर दिया जिसने अपने हिस्से के कुछ ख़ुशनुमा पल साझा किये थे. वज्रपात मन को किस तरह तोड़ने वाला होगा यह इस मामूली बात से समझा जा सकता है कि सना मरीन ने स्पष्टीकरण देते हुए ड्रग टेस्ट दिया जो नेगेटिव आया. अग्निपरीक्षा से लेकर ड्रग टेस्ट तक, अयोध्या से फ़िनलैण्ड तक, हम वैसे ही हैं, हमारे पैमाने जस के तस हैं और यह पोस्ट पढ़े बिना चार सहृदय लोग लिखकर चले जाएंगे कि समय बहुत बदल चुका है.

फ़िनलैंड की पीएम का पार्टी करना भर था तमाम तरह की आलोचनाओं का सामना उन्हें करना पड़ा

मैंने नहीं देखा कि बॉरिस जॉनसन से कभी किसी ने ऐसे टेस्ट की मांग की हो, डॉनल्ड ट्रम्प की सरकार ऐसी वजह से गिरी हो. अफ़ग़ानिस्तान में तख़्तापलट के बाद से अगर किसी की ज़िंदगी सबसे ज्यादा दुश्वार है तो वे महिलाएं हैं. निर्भीक होकर स्कूल-कॉलेज और काम पर जाने वाली महिलाएं, मन पसंद कपड़े पहनने वाली महिलाएं, घूमने-फिरने वाली महिलाएं, हक़ की बात करने वाली महिलाएं - क़ैद हैं हिजाब और नक़ाब में, नहीं जा सकतीं स्कूल, उनके कॉलेज पर ताले लगे हैं और काम करने की सोच भी नहीं सकतीं.

स्कूल जाने वाली लड़कियां मार दी जा रही हैं. वो तमाम लड़कियां जिनके मुंह में ज़बान हुआ करती थी, आज घर से निकल नहीं सकतीं. हर युद्ध में जीतने वालों ने हारने वालों से कहीं अधिक उनकी स्त्रियों को अपने विजय का सूचक बनाया है. तालिबान ने फिर ऐसा ही किया. कहां बदला है समय? किधर बदले आपके नियम? ईरान में माहसा अमीनी की मौत के बाद लड़कियां सड़क पर उतर आयीं और महीनों तक लड़ाई...

फ़िनलैण्ड - वह देश जिसके पास विश्व में सबसे अच्छा एजुकेशन मॉडल है, अपनी प्रधानमंत्री को दोस्तों के साथ डांस करता न देख सका और उस विश्व ने, जिसके लोकप्रिय नेताओं के विवाहेतर संबंध व सेक्स स्कैंडल्स आम हैं, उस नेत्री पर सवालों का वज्रपात कर दिया जिसने अपने हिस्से के कुछ ख़ुशनुमा पल साझा किये थे. वज्रपात मन को किस तरह तोड़ने वाला होगा यह इस मामूली बात से समझा जा सकता है कि सना मरीन ने स्पष्टीकरण देते हुए ड्रग टेस्ट दिया जो नेगेटिव आया. अग्निपरीक्षा से लेकर ड्रग टेस्ट तक, अयोध्या से फ़िनलैण्ड तक, हम वैसे ही हैं, हमारे पैमाने जस के तस हैं और यह पोस्ट पढ़े बिना चार सहृदय लोग लिखकर चले जाएंगे कि समय बहुत बदल चुका है.

फ़िनलैंड की पीएम का पार्टी करना भर था तमाम तरह की आलोचनाओं का सामना उन्हें करना पड़ा

मैंने नहीं देखा कि बॉरिस जॉनसन से कभी किसी ने ऐसे टेस्ट की मांग की हो, डॉनल्ड ट्रम्प की सरकार ऐसी वजह से गिरी हो. अफ़ग़ानिस्तान में तख़्तापलट के बाद से अगर किसी की ज़िंदगी सबसे ज्यादा दुश्वार है तो वे महिलाएं हैं. निर्भीक होकर स्कूल-कॉलेज और काम पर जाने वाली महिलाएं, मन पसंद कपड़े पहनने वाली महिलाएं, घूमने-फिरने वाली महिलाएं, हक़ की बात करने वाली महिलाएं - क़ैद हैं हिजाब और नक़ाब में, नहीं जा सकतीं स्कूल, उनके कॉलेज पर ताले लगे हैं और काम करने की सोच भी नहीं सकतीं.

स्कूल जाने वाली लड़कियां मार दी जा रही हैं. वो तमाम लड़कियां जिनके मुंह में ज़बान हुआ करती थी, आज घर से निकल नहीं सकतीं. हर युद्ध में जीतने वालों ने हारने वालों से कहीं अधिक उनकी स्त्रियों को अपने विजय का सूचक बनाया है. तालिबान ने फिर ऐसा ही किया. कहां बदला है समय? किधर बदले आपके नियम? ईरान में माहसा अमीनी की मौत के बाद लड़कियां सड़क पर उतर आयीं और महीनों तक लड़ाई लड़ती रहीं. उनपर हिजाब न थोपी जाए इसलिए गुहार लगाती रहीं और उसी सड़क पर मारी जाती रहीं. उन्होंने दुनिया से आग्रह किया कि उनका साथ दिया जाए.

दुनिया पहले मूकदर्शक बनी रही, साथ देना तब तय किया जब स्पष्ट हो गया कि कोई साथ दे न दे, ये लड़कियां नहीं रुकने वालीं. अमेरिका से लेकर संयुक्त राष्ट्र संघ तक को समभाव याद दिला दिया सड़क पर बाल कतरने वाली लड़कियों ने. सत्ता को समझ आ गया कि यह सब शिक्षा का परिणाम है. हुक़ूमत अब डंडे नहीं बरसायेगी क्योंकि कुटिल नीति अपनायी जा रही है. नवंबर से अबतक ईरान के कई स्कूल में ज़हरीली गैस के कारण पांच हज़ार से अधिक विद्यार्थी बीमार पड़ चुके हैं.

इस गैस का ज़हर लड़कियों के स्कूलों में ही फैल रहा है, सिर्फ़ एक स्कूल के अलावा बाकी सभी गर्ल्स स्कूल हैं. यह दुर्घटना है या साज़िश ये वक़्त के साथ पता चलेगा लेकिन फ़िलहाल यही है कि स्कूल जाने वाली लड़कियां हज़ारों की संख्या में बीमार पड़ रही हैं. अपने देश में जलाने का काम जितनी तत्परता से किया जाता है वैसे तो घोटाले भी नहीं होते. किसी लड़की का रेप हुआ - जला दो. रेप के बाद किसी की मृत्यु हुई - जला दो. भूमि अधिग्रहण मामला है - जला दो.

इसके बाद आता है पैकर्स एण्ड मूवर्स ट्रेंड. लड़की ने प्रेम किया तो प्रेमी या घरवाले, जिसे मन कर रहा है वो उठकर सूटकेस में पैक कर दे और जहां सही लगे फेंक आये. अफ़ेयर या ऑनर किलिंग में से कोई एक चुन लेना है समाज को बताने के लिये. समाज उनसे कुछ पूछता भी कहां है, वह मरी हुई लड़की से ही पूछता है कि क्यों लिव-इन में रह रही थी, घरवालों की मर्ज़ी से शादी क्यों नहीं की.

विमेन्स डे अभी बीता है लेकिन विमेन्स डे मनाने जैसा कुछ नहीं है इस बार. अपने संघर्ष देखने और मुट्ठी भींच लेने का दिन है कि रोशनी और अंधेरे  का बंटवारा एक-सा हो, हमें अपने हिस्से का सब प्राप्त हो - धरा-आकाश, अंधेरे-उजाले, जुगनू-सितारे और मुश्किलें व मुकाम. यही समाज ठीक एक महीने में नवरात्र मनायेगा और 'यत्र नार्यस्तु पूज्यन्ते...' सुनाकर सारे पाप धो लेगा.

समाज आज यह बताने में व्यस्त है कि हम बहुत ख़ास हैं और हमारी लड़ाई ही इसी बात की है कि हमें ख़ास नहीं बनना, सामान्य बनना है. इतना सामान्य कि हम कुछ हासिल कर लें तो मोटिवेशन के नाम पर तालियां न पीटी जाएं. इतना सामान्य कि आप हमारे लिये कुछ करके यह न गाते फिरें कि हमने अपनी बेटी के लिये ऐसा किया. इतना सामान्य कि हम अपने निर्णयों को आख़िरी मानना सीख लें और समाज का मुंह  न ताकें जो हमें ट्युटोरियल दे.

इतना सामान्य कि हम डॉक्टर रहें तो डॉक्टर, ऑफ़िसर रहें तो ऑफ़िसर और पत्रकार रहें तो पत्रकार कहलायें. इतना सामान्य बनना है कि समाज अपने राष्ट्रपति को राष्ट्रपति कहना सीख ले, महिला राष्ट्रपति नहीं. इतना सामान्य हो सबकुछ कि किसी मां-बाप को दुलार में यह न कहना पड़े कि हमने अपनी बेटी को बेटे की तरह पाला है. इतना सामान्य कि अवसर सामान्य मिलें, चुनौतियां सामान्य मिलें, पोषण सामान्य मिले. अतिरिक्त कुछ नहीं चाहिए, न सम्मान न आरक्षण. हमारी लड़ाई ही समान होने की है, सम्मान अपने हिस्से का हम ब्रह्माण्ड के आख़िरी कोने से भी अर्जित कर लेंगे.

इस लेख में लेखक ने अपने निजी विचार व्यक्त किए हैं. ये जरूरी नहीं कि आईचौक.इन या इंडिया टुडे ग्रुप उनसे सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ लेखक ही जिम्मेदार है.

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