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पैगंबर साहेब-औरंगजेब को एक ही तराजू पर रखना बंद करें मुसलमान

    • अनुज शुक्ला
    • Updated: 13 जून, 2022 03:02 PM
  • 13 जून, 2022 03:02 PM
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देश में मजहब के नाम पर जिस तरह हर हफ्ते अराजकता का माहौल पैदा किया जा रहा है उसपर नरेंद्र मोदी और समूचे विपक्ष की चुप्पी खतरनाक है. जनता चुप जरूर है लेकिन जो चीजें हो रही हैं, उसे बिल्कुल पसंद नहीं करती. उसके सब्र का बांध टूटा तो चीजें भयावह होने से कोई नहीं रोक सकता.

(किसी भी मजहब के 'अंधभक्त' से अनुरोध है कि मौजूदा टिप्पणी पर आगे ना बढ़ें. भारत के वामपंथी तो बिल्कुल नहीं.)

ज्ञानवापी मामले में सोशल मीडिया पर औरंगजेब से शुरू हुई बहस जो पैगंबर मोहम्मद साहेब तक पहुंच गई, उसे देखकर लग रहा कि कुछ लोग दोनों के बीच फर्क ही नहीं करना चाहते. जबकि दोनों में जमीन-आसमान का अंतर है. कोई ओवैसी औरंगजेब की "कच्ची कब्र" पर फूल चढ़ा सकता है. मगर किसी वर्ग/समुदाय का यह सोचना कि भारत औरंगजेब को भी पैगंबर साहेब जितना सम्मान दे- असंभव है. इसमें मुसलमानों से ज्‍यादा राजनीतिक दलों का चरित्र संदिग्ध है.

आजम खान, असदुद्दीन ओवैसी और उनके जैसे तमाम चंगू-मंगू नेता और मौलाना कुछ हफ़्तों से अंजान आसमानी ताकत के वश में नजर आ रहे हैं. सत्तालोलुप विपक्ष की पीठ भी लगभग 45 डिग्री झुकी देखी जा सकती है. लेकिन जनता की चुनी सरकार को भी लकवा मार जाएगा, इसकी उम्मीद नहीं थी. हर जगह सरकार के बारे में उनके अपने लोग यही कह रहे हैं. उस सरकार को जिसे इस देश की करोड़ों जनता ने भारी भरकम बहुमत देकर लगातार जितवाया है. क्या हर शुक्रवार और उसके बाद शनिवार-रविवार का दिन दिखाने के लिए नरेंद्र मोदी और योगी आदित्यनाथ जैसे सूरमा चुने गए थे? अगर आप भी मुंह छिपा रहे तो भला शरद पवार और अखिलेश यादव से न्याय की उम्मीद क्या ही की जाए? एक कश्मीर पर्याप्त था, राजनीति ने दर्जनों बना दिए. हर शुक्रवार एक नया कश्मीर और वही पैटर्न. नमाज और फिर पत्थरबाजी या धार्मिक नारों वाले जुलूस. किसी जुलूस में तिरंगा लहरा देने भर से वह संविधान और कानूनी दायरे में नहीं आ जाता.

गली मोहल्ले के छुट्टा लखैरे, पत्थरबाज देश की सड़कों पर अराजकता का नंगा नाच करते घूम रहे हैं. हर तरफ आम शहरियों को डराया और धमकाया जा रहा है. हर पल देश के सब्र का इम्तहान लिया जा रहा है. एक दो दिन तो झेला जा सकता है, मगर 24 घंटे और तीस दिन की नंगई, जिद और फर्जी गुरूर का प्रदर्शन बर्दाश्त नहीं होता. एक कश्मीर में यह सब देखने को मिलता था, अब तो समूचे देश में ही घाटी के अंतहीन सिलसिले...

(किसी भी मजहब के 'अंधभक्त' से अनुरोध है कि मौजूदा टिप्पणी पर आगे ना बढ़ें. भारत के वामपंथी तो बिल्कुल नहीं.)

ज्ञानवापी मामले में सोशल मीडिया पर औरंगजेब से शुरू हुई बहस जो पैगंबर मोहम्मद साहेब तक पहुंच गई, उसे देखकर लग रहा कि कुछ लोग दोनों के बीच फर्क ही नहीं करना चाहते. जबकि दोनों में जमीन-आसमान का अंतर है. कोई ओवैसी औरंगजेब की "कच्ची कब्र" पर फूल चढ़ा सकता है. मगर किसी वर्ग/समुदाय का यह सोचना कि भारत औरंगजेब को भी पैगंबर साहेब जितना सम्मान दे- असंभव है. इसमें मुसलमानों से ज्‍यादा राजनीतिक दलों का चरित्र संदिग्ध है.

आजम खान, असदुद्दीन ओवैसी और उनके जैसे तमाम चंगू-मंगू नेता और मौलाना कुछ हफ़्तों से अंजान आसमानी ताकत के वश में नजर आ रहे हैं. सत्तालोलुप विपक्ष की पीठ भी लगभग 45 डिग्री झुकी देखी जा सकती है. लेकिन जनता की चुनी सरकार को भी लकवा मार जाएगा, इसकी उम्मीद नहीं थी. हर जगह सरकार के बारे में उनके अपने लोग यही कह रहे हैं. उस सरकार को जिसे इस देश की करोड़ों जनता ने भारी भरकम बहुमत देकर लगातार जितवाया है. क्या हर शुक्रवार और उसके बाद शनिवार-रविवार का दिन दिखाने के लिए नरेंद्र मोदी और योगी आदित्यनाथ जैसे सूरमा चुने गए थे? अगर आप भी मुंह छिपा रहे तो भला शरद पवार और अखिलेश यादव से न्याय की उम्मीद क्या ही की जाए? एक कश्मीर पर्याप्त था, राजनीति ने दर्जनों बना दिए. हर शुक्रवार एक नया कश्मीर और वही पैटर्न. नमाज और फिर पत्थरबाजी या धार्मिक नारों वाले जुलूस. किसी जुलूस में तिरंगा लहरा देने भर से वह संविधान और कानूनी दायरे में नहीं आ जाता.

गली मोहल्ले के छुट्टा लखैरे, पत्थरबाज देश की सड़कों पर अराजकता का नंगा नाच करते घूम रहे हैं. हर तरफ आम शहरियों को डराया और धमकाया जा रहा है. हर पल देश के सब्र का इम्तहान लिया जा रहा है. एक दो दिन तो झेला जा सकता है, मगर 24 घंटे और तीस दिन की नंगई, जिद और फर्जी गुरूर का प्रदर्शन बर्दाश्त नहीं होता. एक कश्मीर में यह सब देखने को मिलता था, अब तो समूचे देश में ही घाटी के अंतहीन सिलसिले नजर आ रहे हैं. बिना नागा. हर शुक्रवार. 'सत्तालोलुप विपक्ष' और 'नामर्द सरकारों' का ध्यान इस तरफ क्यों नहीं जा रहा है?

विपक्ष को अगर कुर्सी चाहिए तो वह सीधे कहे कि हमें कुर्सी दे दो भाई. शांति मिल जाएगी. शांति की कीमत सिर्फ कुर्सी है तो ले लो ना यार. सरकार को लग रहा हो कि उसके हाथ किसी चीज से बंधे हैं- तो वह भी मुंह खोले. आजाद भारत की महिलाओं ने अपने गहने बेंचकर सेनाओं को युद्ध लड़वाया है. आजादी की इतनी कीमत देश हंसी-हंसी चुकाने को तैयार हो जाएगा. कुछ कहिए तो? देश जानता है दुनियाभर में इस वक्त किस तरह का दबाव है.

नमाज के बाद पत्थरबाजी करता हुजूम. फोटो- पीटीआई/इंडिया टुडे

फ्रीडम ऑफ़ स्पीच का मतलब दूसरों का सम्मान करना भी है

क्या सरकारें सब्र के बांध टूटने का इंतज़ार कर रही हैं? जो लगभग टूटने की कगार पर पहुंच ही चुका है. वह सिर्फ इतना देख रहा है कि अराजकता के खिलाफ संविधान और क़ानून के दायरे में कोई तो वीर बहादुर पार्टी या व्यवस्था होगी जो आगे बढ़कर आएगी और चीजों को दुरुस्त करेगी. लेकिन कुछ हफ़्तों में मजहब के नाम पर जिस तरह लगातार भय का माहौल बनाया जा रहा है- लग ही नहीं रहा कि देश किसी संविधान और क़ानून के जोर से चलता है. यहां फ्रीडम ऑफ़ स्पीच है. लेकिन फिर बार-बार ऐसा क्यों लग रहा है कि संविधान को देश में एक मजहब भर की बपौती बना दिया गया है. यह फ्रीडम ऑफ़ स्पीच सिर्फ उसी के दायरे में है. वह जो कहे जैसा कहे- सबको मानना पड़ेगा.

क़ानून उससे डरकर बिल में दुबका पड़ा रहे. क्या यह वही देश है जहां जड़ इस्लामिक ताकतें मनमाने तरीके से पाकिस्तान लेकर भी संतुष्ट नहीं हुई. क्या उन्हें अब दूसरे पाकिस्तान की दरकार है? लग तो ऐसा ही रहा है. हर चीज में एकसूत्री एजेंडा कि किसी भी तरह भारत को अराजकता की आग में झोक देना है. यह देश पिछले दो साल से कोरोना महामारी और चीन से आमने-सामने का मोर्चा लेते हुए बचा कैसे है- यह समझ में नहीं आता. शायद ईश्वरीय चमत्कार ही है.

आखिर किस आशंका से ग्रस्त है भारतीय मुसलमान?

नागरिकता क़ानून से फिलहाल नुपुर शर्मा के विवाद तक एक जैसा ट्रेंड देखने को मिल रहा है. क्या यह संभव है कि 20 करोड़ लोगों का रातोंरात नरसंहार कर दिया जाएगा या उन्हें भारत की जमीन से ही बेदखल कर दिया जाएगा? ऐसा कहीं होता है क्या? यह तो कई अरब देश भी नहीं कर पाए जो कभी बर्बरता के लिए मशहूर थे. भारत जिसने ना जाने कितने अल्पसंख्यक समुदायों को मानवीय शरण दी. यहां तक कि खलीफा का विद्रोह करने वाले को भी मानवीय शरण दी जिसकी कीमत राजा दाहिर सेन ने समूचा वंश और राज्य गंवाकर चुकाई. आज का जो पाकिस्तान है उसने इतिहास की सबसे बड़ी बर्बादी- इसी एक मानवीय गलती की वजह से झेली थी. अरबों ने हमला सिर्फ इसी एक वजह से किया था. इसमें पैगंबर साहब का तो दोष नहीं था. दोष लालची खलीफा और कासिम का था. किसी ने कभी भारत पर विदेशी हमलों के लिए पैगंबर साहेब को दोषी नहीं ठहराया है. जहां तक कासिम की बात है धरती पर जब तक आख़िरी भारतीय जिंदा रहेगा- चिल्ला चिल्लाकर उसके कुकर्मों को बताता रहेगा.

समझ में नहीं आता कि आखिर किस विचारधारा ने भारतीय मुसलमानों के अंतर्मन में दुनियाभर की आशंकाओं और विरोधाभास को भर दिया है? यह देश आजम खान और ओवैसी की पुश्तैनी जायदाद नहीं है. धार्मिक नेता मौलाना मदनी की भी जायदाद नहीं है जो वलीउल्लाह जैसे आतंकी को फांसी की सजा से बचाने का कानूनी तिकड़म रच रहे हैं. यह देश नरेंद्र मोदी और योगी आदित्य नाथ की भी जायदाद नहीं है. देश इनसे पहले से था और हजारों हजार साल तक रहेगा भी. यह देश बहुसंख्यक हिंदुओं और गैर इस्लामी अल्पसंख्यकों का हिस्सा है. उनका अपना हिस्सा है. उन्होंने इसी अपने हिस्से में मुसलमानों को मनुष्य की तरह संविधान और क़ानून के दायरे में रहने की अनुमति दी थी, सिर पर चढ़कर कूदने की नहीं. जैसे रोज रोज कूद रहे हैं. उन्हें भारतीय बनकर ही रहना पड़ेगा. वर्ना सरकार और विपक्ष का तो नहीं पता- लेकिन भारतीय समाज उठ खड़ा हुआ तो बहुत मुसीबत पहाड़ की तरह सिर पर गिरेगी.

नुपुर शर्मा.

मामला कहां से शुरू हुआ था और कहां पहुंचा दिया गया?

ज्ञानवापी में मामला कहां से शुरू हुआ था और कहां पहुंचा दिया गया? ज्ञानवापी मामले में किसने याचिका डाली थी. ज्ञानवापी में मस्जिद के लिए लड़ने वालों को एक बार सोचना चाहिए कि याचिका किस कमजोरी की वजह से स्वीकार हुई? सर्वे शिवलिंग का मिलना तो बाद की चीज है. बुद्धि नाम की भी कोई चीज होती है. जब ज्ञानवापी के बहाने मुगलिया सल्तनत के सबसे बर्बर और आततायी शासक औरंगजेब के कारनामों पर बात हो रही थी तो उसमें पैगंबर घुसे ही कैसे? दंगा करने पर आमादा भीड़ ने एक बार भी इन सवालों पर विचार किया क्या? भारत की छाती को हमेशा चाकू से चाक करने की कोशिश में बैठा ओवैसी संभाजी महाराज के हत्यारे आलमगीर औरंगजेब की कब्र पर फूल चढ़ाने किस मकसद से पहुंचा था? संभाजी के ही महाराष्ट्र में ऐसा करने की उसकी हिम्मत आखिर कैसे हुई? लगता है कि भारत के बड़प्पन को उसकी नपुंसकता समझ लिया गया. शुक्रवार सड़कों पर निकलने वाली उन्मादी भीड़ को पता नहीं कि दूसरों की नसों में भी पानी नहीं बल्कि गर्म और गाढ़ा खून ही बहता है.

ज्ञानवापी में सर्वे के बाद शिवलिंग मिला था. कोर्ट में लड़ाई गई तो गई कैसे? और जब कोर्ट में नहीं लड़ पाते हो, चुनाव में नहीं लड़ पाते हो- उसे सड़क पर खींच रहे हो. भला औरंगजेब के कुकर्मों को अपना कुकर्म क्यों मान बैठे हो? कोई पत्थर प्राचीन शिवलिंग है या फव्वारा- पुरातत्व के अध्येता दो सेकेंड में साफ कर देंगे. अगर अपने धर्म पर कोई बात सुनने की क्षमता नहीं है फिर किस अधिकार से दूसरों के धर्म पर सवाल उठाते हो. नुपुर शर्मा ने जो कहा वह मजहबी दायरे में सही नहीं ठहराया जा सकता. उन्होंने माफी मांग ली. सरकार भी बैकफुट है. क्या अब इसी बहाने देश को अराजकता में झोंकने की कोशिश हो रही है. वह भी उस वक्त जब दुनियाभर में वैश्विक हालात रोज तेजी से बदलते नजर आ रहे हैं. हैरानी होती है कि भारतवंशी मुसलमान औरंगजेब और पैगंबर साहेब को एक ही तराजू पर रखकर कैसे तौल सकता है?

अरब देश पाकिस्तान और अमेरिका को खैरात देते होंगे, भारत कीमत चुकाता है मौलाना  

नुपुर शर्मा के बयान तक तो पैगंबर साहेब का जिक्र तक नहीं हुआ था. सोशल मीडिया पर आमख़ास हर तरह के मुसलमान औरंगजेब को बचाने की कोशिश में नजर आ रहे हैं. हर कोई मजहब के लिए सिर कटाने और काटने की बात करता फिर रहा है. क्या दूसरे लोगों ने चूड़ियां पहन रखी हैं. भारतीय मुसलमान अरब देशों की ऐसे तारीफ़ कर रहा है- जैसे उनकी खैरात पर भारत पलता है. अरब का कोई देश भारत पर एहसान नहीं कर रहा. वह पाकिस्तान और अमेरिका का करता होगा. भारत को फ्री में तेल नहीं मिलता. मस्जिदों/मदरसों को जरूर अरब से चंदा मिलता होगा. एक देश के तौर पर भारत किसी भी मुल्क से जो पाता है उसकी कीमत देता है. बदले में उनका पेट भी भरता है और तन ढकने के लिए कपड़े भी देता है. भारत भी मुफ्त में नहीं देता. दुनिया का यही कारोबार है.

ताज्जुब इस बात पर है कि खुद को पढ़ा लिखा बताने वाला नौजवान भी औरंगजेब को अपना "आका" कह रहे हैं. एक लिखता है- पैगंबर साहेब और औरंगजेब हमारे आका हैं. कौन सी एक वजह है कि भारत के लोग औरंगजेब को पूजे? कोई एक वजह है तो बताइए. धार्मिक विद्वेष में भारत के निरीह लोगों की हत्या करने वाला एक हत्यारा किस शर्त पर भारत का पूजनीय हो सकता है? झगड़ा किस बात का है भाई? पैगंबर को देश का हर नागरिक सम्मान देने को तैयार है. उसे शिकायत नहीं. मंदिरों, चर्चों, गुरुद्वारों के आगे इक्का दुक्का को छोड़ किसी मुसलमान ने सिर नहीं झुकाया. लोग इसका बिल्कुल बुरा नहीं मानते. बुरा मानते तो करोड़ों लोग मजारों-दरगाहों को श्रद्धा के साथ पूजते नहीं. कंधे पर ताजिया नहीं ढोते और मस्जिदों की हिफाजत भी नहीं करते. इस्लाम के पैदा होने के हजारों साल पहले भारत और उसकी सांस्कृतिक सभ्यता का वजूद रहा है. बावजूद अपनी श्रेष्ठता को किनारे रखते हुए हर दौर में हर संस्कृति के साथ घुलने मिलने की कोशिश भारत के लोगों ने की है.

पता नहीं किस श्रेष्ठताबोध में मुसलमान अकड़े हुए हैं कि दूसरों को सम्मान देना तो दूर की बात बराबरी की बात करना भी उन्हें पसंद नहीं. सुधर जाइए नहीं तो बर्बाद होने में वक्त नहीं लगेगा. और आपकी बर्बादी में हम भी तो बर्बाद ही होंगे. बस इतनी सी बात है.  

इस लेख में लेखक ने अपने निजी विचार व्यक्त किए हैं. ये जरूरी नहीं कि आईचौक.इन या इंडिया टुडे ग्रुप उनसे सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ लेखक ही जिम्मेदार है.

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