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होली को हराम बताने वाले ये जवाब भी सुन लें...

    • ताबिश सिद्दीकी
    • Updated: 19 मार्च, 2019 08:20 PM
  • 13 मार्च, 2017 06:24 PM
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ये हदीसें आज लगभग सौ प्रतिशत मुसलमानों के जीने का ढंग निर्धारित करती हैं. ये किताबें और ये बातें जो सैकड़ों साल पहले उस समय और परिवेश के अनुसार रची गयीं वो आज हम इक्कीसवीं सदी के लोगों को बताएंगी कि कैसे जियें.

देखिये ये कैसे आपको अपना गुलाम बना के रखते हैं. हम होली का रंग लगाएं तो ये आएंगे हमारे पास और बोलेंगे 'जनाब.. क्या कर रहे हैं आप..ये तो हराम काम है'हम पूछेंगे कि "हराम कैसे है जनाब?"

ये कहेंगे "जनाब हदीस है...और हदीस में लिखा है ऐसा"

आप कहिये कि ऐसी तो कोई हदीस नहीं है, तो कहेंगे जनाब "हदीस तो नहीं मगर 1300 ईस्वी में एक आलिम थे इब्न-क़य्यूम, उन्होंने कहा था कि दूसरे धर्मों के लोगों को मुबारकबाद देना और उनके त्यौहार मनाना हराम है"

हम पूछेंगे "कि वो आलिम साहब कहां के थे?"

कहेंगे "जी वो सीरिया के आलिम थे"

हम कहेंगे "तो सीरिया में इस वक़्त जो बगदादी साहब हैं वो भी लगभग यही सब कहते हैं. तो उनकी भी बात मानी जाए फिर? हम रहें हिंदुस्तान में और राय लें सीरिया वालों से कि कैसे हम अपने देशवासियों के साथ रहें और कौन सा त्यौहार मनाएं और कौन सा नहीं?"

फिर ये कोई हदीस छांट के निकाल के लाएंगे..जिसमें लिखा होगा कि मुहम्मद साहब ने ऐसे कहा था. जब मैं कहूंगा कि हदीस की रवायत कैसे होती है आपको पता है? जिस बात को आप इतने दावे से कहकर आप हमको हराम और हलाल समझा रहे हैं आपको पता है वो कैसे लिखी गयी?

हदीस इसको कहते हैं समाझिये "पैगंबर साहब के जाने के ढाई सौ साल, मतलब आज से लगभग बारह सौ साल पहले, कुछ लोगों से पूछा गया कि फलाने प्रकरण के बारे में पैग़म्बर की क्या राय थी, तो जब किसी ने कहा कि "क" ने "ख" से कहा कि उसने "ग" से ये सुना कि "घ" ने अपने दादा "च" से ये सुना था कि "द" ने "न" के बेटे को ये कहते सुना कि मुहम्मद साहब ने इस बारे में ऐसा कहा था".. इसे सही हदीस मान लिया गया. ऐसे लिखी गयी थी हदीसें. ज़बानी बातों को लोगों से सुन-सुन कर इक्कट्ठा कर के, वो भी पैग़म्बर के जाने के सैकड़ों साल बाद.

और ये हदीसें आज लगभग सौ प्रतिशत मुसलमानों के जीने का...

देखिये ये कैसे आपको अपना गुलाम बना के रखते हैं. हम होली का रंग लगाएं तो ये आएंगे हमारे पास और बोलेंगे 'जनाब.. क्या कर रहे हैं आप..ये तो हराम काम है'हम पूछेंगे कि "हराम कैसे है जनाब?"

ये कहेंगे "जनाब हदीस है...और हदीस में लिखा है ऐसा"

आप कहिये कि ऐसी तो कोई हदीस नहीं है, तो कहेंगे जनाब "हदीस तो नहीं मगर 1300 ईस्वी में एक आलिम थे इब्न-क़य्यूम, उन्होंने कहा था कि दूसरे धर्मों के लोगों को मुबारकबाद देना और उनके त्यौहार मनाना हराम है"

हम पूछेंगे "कि वो आलिम साहब कहां के थे?"

कहेंगे "जी वो सीरिया के आलिम थे"

हम कहेंगे "तो सीरिया में इस वक़्त जो बगदादी साहब हैं वो भी लगभग यही सब कहते हैं. तो उनकी भी बात मानी जाए फिर? हम रहें हिंदुस्तान में और राय लें सीरिया वालों से कि कैसे हम अपने देशवासियों के साथ रहें और कौन सा त्यौहार मनाएं और कौन सा नहीं?"

फिर ये कोई हदीस छांट के निकाल के लाएंगे..जिसमें लिखा होगा कि मुहम्मद साहब ने ऐसे कहा था. जब मैं कहूंगा कि हदीस की रवायत कैसे होती है आपको पता है? जिस बात को आप इतने दावे से कहकर आप हमको हराम और हलाल समझा रहे हैं आपको पता है वो कैसे लिखी गयी?

हदीस इसको कहते हैं समाझिये "पैगंबर साहब के जाने के ढाई सौ साल, मतलब आज से लगभग बारह सौ साल पहले, कुछ लोगों से पूछा गया कि फलाने प्रकरण के बारे में पैग़म्बर की क्या राय थी, तो जब किसी ने कहा कि "क" ने "ख" से कहा कि उसने "ग" से ये सुना कि "घ" ने अपने दादा "च" से ये सुना था कि "द" ने "न" के बेटे को ये कहते सुना कि मुहम्मद साहब ने इस बारे में ऐसा कहा था".. इसे सही हदीस मान लिया गया. ऐसे लिखी गयी थी हदीसें. ज़बानी बातों को लोगों से सुन-सुन कर इक्कट्ठा कर के, वो भी पैग़म्बर के जाने के सैकड़ों साल बाद.

और ये हदीसें आज लगभग सौ प्रतिशत मुसलमानों के जीने का ढंग निर्धारित करती हैं. ये किताबें और ये बातें जो सैकड़ों साल पहले उस समय और परिवेश के अनुसार रची गयीं वो आज हम इक्कीसवीं सदी के लोगों को बताएंगी कि कैसे जियें. जो दोस्त और पड़ोसी दूसरे धर्म का है और जिसके साथ सारी उम्र का ताना बाना है और उसी के साथ कमाना खाना और जीना है, उसके त्यौहार और खुशियों को हम सीरिया और इराक में लिखी गयी किताबों के हिसाब से मनाएं और बहिष्कार करें.

सोच के दिल से बताईये कि बहिष्कार इन विदेशी धारणाओं और वहां के परिवेश में लिखने वाले इन लेखकों का हमें करना चाहिए कि अपने भाई, पड़ोसी और देशवासी के दिल का करना चाहिए?

आप कभी नज़ीर अकबराबादी की बातों को हदीस जैसा क्यों नहीं मानते हैं? आप कबीर की बातों को धार्मिक तौर पर क्यों नहीं देखते हैं? आप बुल्ले शाह को अपना आलिम क्यों नहीं स्वीकार करते हैं? आपको ये विदेशी इब्ने क़य्यूम और इब्न तैमिया बताएंगे कि हिंदुस्तान में अपने देशवासियों के साथ कैसे रहना है और कैसे जीना है? इनकी बातें मानकर आप कभी अपने समाज का सामंजस्य देश के अन्य धर्मों के लोगों के साथ बिठा पाएंगे?

पाकिस्तानियों ने इन्हीं विदेशी लेखकों को अपना सब कुछ माना और देखिये उनका जीवन.. नर्क से बदतर हो चुका है.

(यह पोस्‍ट सबसे पहले लेखक के फेसबुक वॉल पर प्रकाशित हुई है)

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इस लेख में लेखक ने अपने निजी विचार व्यक्त किए हैं. ये जरूरी नहीं कि आईचौक.इन या इंडिया टुडे ग्रुप उनसे सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ लेखक ही जिम्मेदार है.

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