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महिलाएं क्यों नहीं दिखातीं थप्पड़ और डार्लिंग्स जैसी डेयरिंग?

    • प्रशांत प्रत्युष
    • Updated: 09 अगस्त, 2022 08:34 PM
  • 09 अगस्त, 2022 08:01 PM
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थप्पड़ (Thappad) और डार्लिंग्स (Darlings) दोनों ही घरेलू हिंसा (Domestic Violence) के विषय पर एक महत्वपूर्ण बदलाव की बात भी कर रही है. वह यह कि घरेलू हिंसा को सहने वाली महिलाएं (Women) न केवल पुलिस के पास जा रही है, अपने आत्मसम्मान के लिए कोर्ट के दहलीज़ तक पहुंच रही है. क्या यह बदलाव वास्तविक है या सिनेमाई यथार्थ?

ओटीटी प्लेटफार्म नेटफ्लिक्स पर आलिया भट्ट, शेफाली शाह और विजय वर्मा की फिल्म डार्लिंग्स स्ट्रीम हो रही है. बायकॉट आलिया भट्ट के कैंपेन के बावजूद भी डार्लिंग्स लोगों को पसंद आ रही है. घरेलू हिंसा जैसी गंभीर सामाजिक समस्या को नये अंदाज में प्रस्तुत करने के कारण बायकॉट जैसे अभियान हवा हो गए और दर्शकों ने फिल्म डार्लिंग्स को सराहा. इसके पहले तापसी पन्नू की फिल्म थप्पड़ को भी लोगों ने काफी पसंद किया था. थप्पड़ में भी तापसी पन्नू के किरदार ने डार्लिंग्स के आलिया भट्ट के किरदार की तरह घरेलू हिंसा के खिलाफ मोर्चा लिया था.

जाहिर है घरेलू हिंसा जैसे सामाजिक विषय पर फिल्में आम महिलाओं को घरेलू हिंसा के खिलाफ डेयरिंग करने का संदेश दे रही है. घरेलू हिंसा पर इससे पहले बनी फिल्मों में तमाम यातनाओं को घुट-घुटकर झेलती थी. थप्पड़ और डार्लिंग्स बताना चाह रही हैं कि समाज में थोड़ा बहुत बदलाव आ रहा है. महिलाएं कानून का सहारा लेकर स्वयं को घरेलू हिंसा से आज़ाद कर रही है. क्या यह सच है, या सिर्फ सिनेमाई यथार्थ. क्या कहना चाहती है डार्लिंग्स और थप्पड़. जहां एक तरफ, डार्लिंग्स आम महिलाओं से कहने की कोशिश कर रही है कि कुछ चीज़ें कभी नहीं बदलती जैसे किसी इंसान के अंदर की हिंसक प्रवृत्ति. तो, दूसरी ओर थप्पड़ ने यह कहने का प्रयास किया कि किसी भी परिवार में पति-पत्नी के रिश्ते में हर किसी का आत्म-सम्मान कितना जरूरी है. साथ ही साथ घरेलू हिंसा और मारपीट के खिलाफ आवाज उठाना भी जरूरी है.

घरेलू हिंसा के खिलाफ डार्लिंग्स और थप्पड़ जैसी फिल्में महिलाओं के लिए प्रेरणा बन सकती हैं. लेकिन, असल बदलाव समाज को ही लाना है.

डार्लिंग्स और थप्पड़ के आलोक में अगर संदेश खोजने का प्रयास किया जाए, तो वह स्पष्ट है कि दांपत्य जीवन में घरेलू हिंसा का...

ओटीटी प्लेटफार्म नेटफ्लिक्स पर आलिया भट्ट, शेफाली शाह और विजय वर्मा की फिल्म डार्लिंग्स स्ट्रीम हो रही है. बायकॉट आलिया भट्ट के कैंपेन के बावजूद भी डार्लिंग्स लोगों को पसंद आ रही है. घरेलू हिंसा जैसी गंभीर सामाजिक समस्या को नये अंदाज में प्रस्तुत करने के कारण बायकॉट जैसे अभियान हवा हो गए और दर्शकों ने फिल्म डार्लिंग्स को सराहा. इसके पहले तापसी पन्नू की फिल्म थप्पड़ को भी लोगों ने काफी पसंद किया था. थप्पड़ में भी तापसी पन्नू के किरदार ने डार्लिंग्स के आलिया भट्ट के किरदार की तरह घरेलू हिंसा के खिलाफ मोर्चा लिया था.

जाहिर है घरेलू हिंसा जैसे सामाजिक विषय पर फिल्में आम महिलाओं को घरेलू हिंसा के खिलाफ डेयरिंग करने का संदेश दे रही है. घरेलू हिंसा पर इससे पहले बनी फिल्मों में तमाम यातनाओं को घुट-घुटकर झेलती थी. थप्पड़ और डार्लिंग्स बताना चाह रही हैं कि समाज में थोड़ा बहुत बदलाव आ रहा है. महिलाएं कानून का सहारा लेकर स्वयं को घरेलू हिंसा से आज़ाद कर रही है. क्या यह सच है, या सिर्फ सिनेमाई यथार्थ. क्या कहना चाहती है डार्लिंग्स और थप्पड़. जहां एक तरफ, डार्लिंग्स आम महिलाओं से कहने की कोशिश कर रही है कि कुछ चीज़ें कभी नहीं बदलती जैसे किसी इंसान के अंदर की हिंसक प्रवृत्ति. तो, दूसरी ओर थप्पड़ ने यह कहने का प्रयास किया कि किसी भी परिवार में पति-पत्नी के रिश्ते में हर किसी का आत्म-सम्मान कितना जरूरी है. साथ ही साथ घरेलू हिंसा और मारपीट के खिलाफ आवाज उठाना भी जरूरी है.

घरेलू हिंसा के खिलाफ डार्लिंग्स और थप्पड़ जैसी फिल्में महिलाओं के लिए प्रेरणा बन सकती हैं. लेकिन, असल बदलाव समाज को ही लाना है.

डार्लिंग्स और थप्पड़ के आलोक में अगर संदेश खोजने का प्रयास किया जाए, तो वह स्पष्ट है कि दांपत्य जीवन में घरेलू हिंसा का जुल्म इसलिए होता है कि क्योंकि वो होने देती हैं. हर औरत को खुद ही उसके साथ होती हिंसा को समझने और उससे बाहर निकलने की प्रेरणा इकट्ठी करनी होगी. सामाजिक प्रतिष्ठा के नाम पर चेहरे और शरीर पर मारपीट के दाग को छुपाने में कोई इज्जत नहीं है. पति से मार खाती औरतें, जख्मों पर हल्दी का लेप लगाकर सामान्य हो जाती हैं. और, जीवन के सुंदर सपने भी देखने लगती है कि कल सब कुछ ठीक हो जाएगा. सब कुछ ठीक होने के बजाय और अधिक बदतर होता चला जाता है. क्यों नहीं कर पाती है महिलाएं घरेलू हिंसा का प्रतिरोध.

थप्पड़ और डार्लिंग्स दोनों ही घरेलू हिंसा के विषय पर एक महत्वपूर्ण बदलाव की बात भी कर रही है. वह यह कि घरेलू हिंसा को सहने वाली महिलाएं न केवल पुलिस के पास जा रही है, अपने आत्मसम्मान के लिए कोर्ट के दहलीज़ तक पहुंच रही है. क्या यह बदलाव वास्तविक है या रुपहले पर्दे पर चमकने वाली सच्चाई, जो वास्तविक यथार्थ से कोसों दूर है? क्या महिलाएं आर्थिक-सामाजिक चौहद्दियों को लांघकर अपने लिए न्याय के लिए मुखर हो रही है? कम से कम NFHS-5 के आंकड़े तो यह नहीं बताते हैं. क्योंकि, रिपोर्ट के अनुसार 79.4% महिलाएं कभी भी अपने पति के जुल्मों की शिकायत हीं नहीं करती. सेक्सुअल हिंसा का शिकार 99.5% महिलाएं कभी शिकायत नहीं करतीं.

लोग क्या कहेंगे और सामाजिक मान-मर्यादा के सवालों को हमारे समाज में इतना बड़ा बना दिया गया है कि इसकी कैद से निकलना, महिलाओं के लिए दलदल सरीखा है. इससे निकलने की चाह जितनी अधिक प्रबल होती है. वापस दलदल में धंसने का खतरा भी गहराता जाता है. महिलाओं का खतरा आर्थिक-सामाजिक असुरक्षा के कारण है. पिता-पति-पुत्र पर आश्रित महिलाओं का जीवन कभी अपने स्वतंत्र अस्तित्व के बारे में आर्थिक और सामाजिक सुरक्षा के अभाव में कभी सोच ही नहीं पाता है. यही आर्थिक और सामाजिक असुरक्षा ही तो है जो पिता-पति-भाई-पुत्र के लंबी उम्र के कामना करने के लिए तरह-तरह के वर्त-उपवास करवाता है.

थप्पड़ और डार्लिंग्स जैसी फिल्में घरेलू हिंसा के खिलाफ प्रतिरोध का रास्ता तो दिखाती हैं. लेकिन, आर्थिक-सामाजिक चुनौतियों की जो चौहद्दी उसके सामने है, उसको पार करने का रास्ता नहीं बताती हैं. बेशक, कानून और अदालतें भी उनको घरेलू हिंसा से मुक्ति का रास्ता दिखा सकती है. पर उससे मुक्त होने के बाद के जीवन में जो असुरक्षा है, उससे मुक्ति का रास्ता क्या होगा?

तमाम सरकारें और सामाजिक सस्थाएं इस विकल्प के बारे में कोई रास्ता क्यों नहीं सुझाती हैं. जाहिर है कि घरेलू हिंसा से मुक्ति का सिनेमाई यथार्थ इतना अधिक सुकून और संतोष देने वाला है कि वह फिल्म को बॉक्स ऑफिस पर हिट करवा देता है. लेकिन, हकीकत में महिलाओं पर घरेलू हिंसा का शिकंजा और अधिक कस देता है. NFHS-5 के आंकड़े तो यह बताते है कि भारत में 59% महिलाओ को बाज़ार, हॉस्पिटल या गांव के बाहर जाने की अनुमति नहीं मिलती. फिर उनका जीवन सामान्य और खुशहाल किस तरह का होगा इसका अनुमान लगाया जा सकता है.

थप्पड़ और डार्लिंग्स जैसी फिल्मों को वास्तविक सामाजिक यथार्थ का सामना करने के लिए कोसों लंबी दूरी तय करनी है. मनोरंजन के लिहाज़ से वह महिलाओं की उस तकलीफ को बेपर्दा जरूर कर देती है, जो खिड़की-दरवाजो पर टंगे हुए फूल वाले पर्दो के पीछे सदियों से कैद है.

इस लेख में लेखक ने अपने निजी विचार व्यक्त किए हैं. ये जरूरी नहीं कि आईचौक.इन या इंडिया टुडे ग्रुप उनसे सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ लेखक ही जिम्मेदार है.

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