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समाज

...और उन्हें दर्दों का बाम समझ कर हम बमबम हैं

    • अनूप मणि त्रिपाठी
    • Updated: 16 अक्टूबर, 2017 11:20 AM
  • 16 अक्टूबर, 2017 11:20 AM
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जो आजीवन स्वदेशी की बात करते रहे, सुना है कि कल वो विदेशी जब्तशुदा दुकान में नजर आए. ऐसा भक्तिपूर्ण माहौल बना कि श्रद्धालुओं की संख्या बढ़ी - दयालु तो कम हो गए. जो मानवीय नहीं थे, वे माननीय हो गए.

पहले चिंता सताये जाती थी कि चुनरी में लगे दाग को छुड़ाया कैसे जाए, फिर होड़ पैदा हुई इस बात की कि उसकी कमीज मेरी कमीज से ज्यादा सफेद कैसे? आगे बढ़े, 'दाग ढूंढते रह जाओगे' तक पहुंचे. और आगे बढ़े, 'दाग अच्छे हैं' (है नहीं) तक आ पहुंचे. कल को अगर दागदारी ही उम्मीदवारी की एक मात्र योग्यता-पात्रता बने तो अचरज कैसा. बुरा जो देखन मैं चला, बुरा न मिलया कोय, पुराने जमाने की बात हो गई. लोग कहेंगे कि ये तो घिसी-पिटी बातें हो गईं. बहुतेरे कहेंगे जिस समय यह नारा लगाया गया होगा, उस समय निश्चित ही चुनाव का समय होगा.

देश बदलता रहा... और...

जो आजीवन स्वदेशी की बात करते रहे, सुना है कि कल वो विदेशी जब्तशुदा दुकान में नजर आए. ऐसा भक्तिपूर्ण माहौल बना कि श्रद्धालुओं की संख्या बढ़ी, मगर दयालु कम हो गए. जो मानवीय नहीं थे, वे माननीय हो गए. रंगदारी वसूलने वाला रंगबाजी पर उतर आया और शरीफ आदमी सिर झुकाए खड़ा रहा. जिन्हें शिकायत थी कि सामूहिकता-सामाजिकता समाज से रीत रही, उन्हें सामूहिक बलात्कार की घटनाओं ने गलत साबित किया. जहां आंदोलन चलना चाहिए था, वहां बैठक चली. और जहां बैठक होनी चाहिए थी, वहां ताले लटके रहे. जहां हल चलना चाहिए था, वहां कारें चल रही हैं. पशुधन कम हुआ, मगर धनपशुओं की संख्या में अप्रत्याशित बढ़ोत्तरी हुई. हरित क्रांति के बाद भी कुपोषण को भगा नहीं पाए हम, हां, मगर यह जरूर है कि सोना आयात करने वाले देशों में पहले नम्बर पर आ गए. (हथियारों की खरीद में भी) आम आदमी का नारा लगा, जो राजनीति के घाट उतरे, वे कुबेर बन अंगरक्षकों के घेरे में रहने लगे और आम आदमी के बदन से कपड़ा उतरता गया.

देश के भाल पर तिरंगे से ज्यादा राजनीतिक दलों के झंडे दिखने लगे. जिनके हवाले वतन किया, वे हवाला कर बैठे. आने-जाने वाली सरकारें किसान की बात करती रही और बिल्डर पनपते...

पहले चिंता सताये जाती थी कि चुनरी में लगे दाग को छुड़ाया कैसे जाए, फिर होड़ पैदा हुई इस बात की कि उसकी कमीज मेरी कमीज से ज्यादा सफेद कैसे? आगे बढ़े, 'दाग ढूंढते रह जाओगे' तक पहुंचे. और आगे बढ़े, 'दाग अच्छे हैं' (है नहीं) तक आ पहुंचे. कल को अगर दागदारी ही उम्मीदवारी की एक मात्र योग्यता-पात्रता बने तो अचरज कैसा. बुरा जो देखन मैं चला, बुरा न मिलया कोय, पुराने जमाने की बात हो गई. लोग कहेंगे कि ये तो घिसी-पिटी बातें हो गईं. बहुतेरे कहेंगे जिस समय यह नारा लगाया गया होगा, उस समय निश्चित ही चुनाव का समय होगा.

देश बदलता रहा... और...

जो आजीवन स्वदेशी की बात करते रहे, सुना है कि कल वो विदेशी जब्तशुदा दुकान में नजर आए. ऐसा भक्तिपूर्ण माहौल बना कि श्रद्धालुओं की संख्या बढ़ी, मगर दयालु कम हो गए. जो मानवीय नहीं थे, वे माननीय हो गए. रंगदारी वसूलने वाला रंगबाजी पर उतर आया और शरीफ आदमी सिर झुकाए खड़ा रहा. जिन्हें शिकायत थी कि सामूहिकता-सामाजिकता समाज से रीत रही, उन्हें सामूहिक बलात्कार की घटनाओं ने गलत साबित किया. जहां आंदोलन चलना चाहिए था, वहां बैठक चली. और जहां बैठक होनी चाहिए थी, वहां ताले लटके रहे. जहां हल चलना चाहिए था, वहां कारें चल रही हैं. पशुधन कम हुआ, मगर धनपशुओं की संख्या में अप्रत्याशित बढ़ोत्तरी हुई. हरित क्रांति के बाद भी कुपोषण को भगा नहीं पाए हम, हां, मगर यह जरूर है कि सोना आयात करने वाले देशों में पहले नम्बर पर आ गए. (हथियारों की खरीद में भी) आम आदमी का नारा लगा, जो राजनीति के घाट उतरे, वे कुबेर बन अंगरक्षकों के घेरे में रहने लगे और आम आदमी के बदन से कपड़ा उतरता गया.

देश के भाल पर तिरंगे से ज्यादा राजनीतिक दलों के झंडे दिखने लगे. जिनके हवाले वतन किया, वे हवाला कर बैठे. आने-जाने वाली सरकारें किसान की बात करती रही और बिल्डर पनपते रहे. वेल्फेयर स्टेट का तो पता नहीं, मगर रियल एस्टेट हर जगह नजर आने लगा. संसद, विधानसभा की शुचिता गिरती गई और हमारे प्रतिनिधियों का जीवन स्तर ऊंचा होता गया. ‘विश्व का सबसे बड़ा लोकतंत्र’ का दंभ हम भरते रहे और मानवाधिकारों की कसौटी पर हम बार-बार फेल होते रहे. राजनीतिक दलों ने चुनाव को ही लोकतंत्र का पर्याय माना और वोटरों ने मात्र वोट देने को. यहां विभिन्न दलों की सरकारें बनीं, (यहां तक कि जनता दल की भी बनी) मगर जनता की सरकार कब बनी, याद नहीं पड़ता.

हम आगे बढ़े और बदले... विचार कपड़ों में कैद होकर रह गए. हमारा सौन्दर्य बोध, हमारा संस्कार खूब विकसित हुआ. हमें काली त्वचा से परेशानी हुई, मगर काले धन का दोनों हाथों से स्वागत किया. गरीब को हिकारत से देखा और रिश्वतखोर को इज्जत बख्शी. शुचिता की दुहाई देने वालों के अकाउंट विदेशों में खुल गए. जिनके पास ईमान नहीं था, वे विमान से सैर करने लगे. समाज सेवा करने वालों का परिवार संपन्न हुआ. देश को पिछड़ा कहने वाले खुद विकसित हो गए. ईमानदारों की हालत अनाथों जैसी हो गई.

नये घोटाले अपने जन्मते ही बूढ़े होने लगे. इतने वर्षों में तिहाड़ देश की आधुनिक पहचान बन गई. (किसी विदेशी को देश घूमना है, तो केवल तिहाड़ जेल घूमना ही सुभीता होगा. कम पैसे में, कम मेहनत के, कम परेशान हुए अच्छे से एकबारगी ही पूरा देश जान जाएगा.) जब-जब दंगे, जातिगत उत्पीड़न हुए तो जिम्मेदारों ने इसे कानून-व्यवस्था से जोड़कर देखा और मानस परिवर्तन, समाज सुधार का जिम्मा एनजीओ से जोड़ दिया. इत्ते दिनों में खादी-खाकी इन दो शब्दों को सुनते ही मुंह का स्वतः बिचकना, इस बात का प्रमाण है कि हमारे आगे बढ़ने की रफ्तार बहुत ज्यादा (बेलगाम पढ़ें) है.

अब तक कि हमारे बदलने की दिशा दर्शाती है कि आर्थिक प्रगति को ही सभी दर्दों का बाम समझ हम बमबम है. हम कब रुक कर सांस लेंगे, कहना मुश्किल है. फिलहाल तो हम बदल रहे हैं और बदले जा रहे हैं...

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इस लेख में लेखक ने अपने निजी विचार व्यक्त किए हैं. ये जरूरी नहीं कि आईचौक.इन या इंडिया टुडे ग्रुप उनसे सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ लेखक ही जिम्मेदार है.

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