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Valentine's Day 2022: प्रेम का नहीं यह बाजार का महोत्सव है साहब!

    • सपना शर्मा
    • Updated: 14 फरवरी, 2022 11:38 PM
  • 14 फरवरी, 2022 11:38 PM
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Valentine Day कहते हैं प्रेम की भाषा मौन है जिसे सिर्फ महसूस किया जा सकता है, लेकिन बताया नहीं जा सकता. लेकिन डोंट वरी आपका बाजार पैसे के दम पर हर भाव का मोल लगाकर उसे मुखर कर दिया है. कुछ मीठा हो जाए कहकर बाज़ार ने हमें चॉकलेट परोस दी है.

बाबा कबीर सैकड़ों साल पहले बोला कि 'प्रेम न बाड़ी ऊपजे, प्रेम न हाट बिकाय.' इसका अर्थ यही था कि न तो प्रेम की खेती संभव है और न बाज़ार से या किसी दुकान से इसे मोल लिया जा सकता है. सही बात है . प्रेम तो नैसर्गिक भाव है भाई. एक ऐसा भाव, जो अनंत काल से मानव ह्रदय में स्थायी रूप से बसा है. प्रेम जो इस दुनियां की धुरी है जिसके ऊपर मानव ही क्या तमाम जीव अपनी अपनी लीलाएं खेल रहे. क्या प्रेम के बिना इस सृष्टि की कल्पना भी की जा सकती है. नहीं न ? तो जब प्रेम इतना सहज ,सुलभ और नैसर्गिक है तो फिर इसके लिए एक विशेष दिन क्यों? वैसे भी महानगरों में प्रेम दिवस यानि वैलेंटाइन डे को मानने उस दिन प्रेम का इजहार कर उसे प्रेमी प्रेमिका के मिलन का खास दिन बने अभी ज्यादा दिन नहीं गुजरे.

हालिया दौर में वैलेंटाइन डे का जो प्रचार प्रसार हुआ है उसमें बाजार की बड़ी भूमिका है

पिछले बीसेक सालों में यह प्रवृत्ति महामारी के मानिंद आज हमारे भारतीय समाज में अपना पूरा कब्जा जमा चुकी है. कुल मिलाकर युवाओं में यह वेलेंटाइन डे और इसके पूर्व का पूरा हफ्ता एक सात दिवसीय महोत्सव बन चुका है. कम से कम बाजार से लेकर सोशल मीडिया तक इस महोत्सव के प्रति किशोरों और युवाओं का क्रेज अब स्पष्ट रूप से दिखाई पड़ता है. सब ग्लोबल फैशन है रे बाबा. काहे कू टेंशन लेता है.

भूमण्डलीकरण और संचार तकनीकी ने कम से कम आभासी रूप में अब एक वैश्विक संस्कृति का निर्माण तो कर ही दिया है. पश्चिमी दुनिया के सांस्कृतिक मानक अब विश्व सभ्यता और संस्कृति के आदर्श के रूप में प्रतिष्ठित हो चुके है. बाजार अब पेट से लेकर दिल तक के प्रोडक्ट लेकर हाजिर है. मदर्स फादर्स-डे जैसे बहुत सारे डेज् अब रिश्तों का अर्थ हमें ही बता रहे . बहुत सही भाई.

वैसे फोकस अपने प्रेम महोत्सव/दिवस यानि...

बाबा कबीर सैकड़ों साल पहले बोला कि 'प्रेम न बाड़ी ऊपजे, प्रेम न हाट बिकाय.' इसका अर्थ यही था कि न तो प्रेम की खेती संभव है और न बाज़ार से या किसी दुकान से इसे मोल लिया जा सकता है. सही बात है . प्रेम तो नैसर्गिक भाव है भाई. एक ऐसा भाव, जो अनंत काल से मानव ह्रदय में स्थायी रूप से बसा है. प्रेम जो इस दुनियां की धुरी है जिसके ऊपर मानव ही क्या तमाम जीव अपनी अपनी लीलाएं खेल रहे. क्या प्रेम के बिना इस सृष्टि की कल्पना भी की जा सकती है. नहीं न ? तो जब प्रेम इतना सहज ,सुलभ और नैसर्गिक है तो फिर इसके लिए एक विशेष दिन क्यों? वैसे भी महानगरों में प्रेम दिवस यानि वैलेंटाइन डे को मानने उस दिन प्रेम का इजहार कर उसे प्रेमी प्रेमिका के मिलन का खास दिन बने अभी ज्यादा दिन नहीं गुजरे.

हालिया दौर में वैलेंटाइन डे का जो प्रचार प्रसार हुआ है उसमें बाजार की बड़ी भूमिका है

पिछले बीसेक सालों में यह प्रवृत्ति महामारी के मानिंद आज हमारे भारतीय समाज में अपना पूरा कब्जा जमा चुकी है. कुल मिलाकर युवाओं में यह वेलेंटाइन डे और इसके पूर्व का पूरा हफ्ता एक सात दिवसीय महोत्सव बन चुका है. कम से कम बाजार से लेकर सोशल मीडिया तक इस महोत्सव के प्रति किशोरों और युवाओं का क्रेज अब स्पष्ट रूप से दिखाई पड़ता है. सब ग्लोबल फैशन है रे बाबा. काहे कू टेंशन लेता है.

भूमण्डलीकरण और संचार तकनीकी ने कम से कम आभासी रूप में अब एक वैश्विक संस्कृति का निर्माण तो कर ही दिया है. पश्चिमी दुनिया के सांस्कृतिक मानक अब विश्व सभ्यता और संस्कृति के आदर्श के रूप में प्रतिष्ठित हो चुके है. बाजार अब पेट से लेकर दिल तक के प्रोडक्ट लेकर हाजिर है. मदर्स फादर्स-डे जैसे बहुत सारे डेज् अब रिश्तों का अर्थ हमें ही बता रहे . बहुत सही भाई.

वैसे फोकस अपने प्रेम महोत्सव/दिवस यानि संत वैलेंटाइन डे पर करते है. स्वामी वैलेंटाइन जी की याद में मनाया जाने वाला प्रेमपर्व पूरे आठ दिन का महोत्सव है. बाजार की गुणा गणित छोड़ दे तो आठ दिवसीय इस महापर्व के आठों दिन आठ तरह के फूल हैं जो आठ दिन तक अपनी विशिष्ट महक से युवाओं से लेकर बुजुर्गों तक को मदमस्त किए रहते हैं. हालांकि बुजुर्गो के लिए वैलेंटाइन सप्ताह पूंजीवाद का चरम है. यानी पैसे का खेल हुआ बबुआ सब!

क्या बच्चे, क्या बूढ़े और क्या जवान सब यथाशक्ति प्रेम को साबित करने की होड़ में दौड़ लगाते देेखे जा सकते हैं. फूल से लेकर महंगे उपहार तक बिकने को तैयार हैं.. जैसे भावनाओं का बाज़ार लगा है. कहते हैं प्रेम की भाषा मौन है जिसे सिर्फ महसूस किया जा सकता है, लेकिन बताया नहीं जा सकता. लेकिन डोंट वरी आपका बाजार पैसे के दम पर हर भाव का मोल लगाकर उसे मुखर कर दिया है.

कुछ मीठा हो जाए कहकर बाज़ार ने हमें चॉकलेट परोस दी है..लेकिन उस माधुर्य का क्या जी जो नवविवाहित लड़का पत्तों के बीच पान या रबड़ी-जलेबी घरवालों से छुपाता हुआ अपनी नववधू तक पहुंचाने के तमाम जतन करता था. लिये किये जा रहे प्रयासों में दिखता था. फूल से लेकर महंगे गहने तक देने का रिवाज हर किसी पर दबाव बनाए है. पैसा अपने प्रेम को साबित करने का अंतिम हथियार बना दिया गया है.

मॉल, सिनेमाघर, ज्वैलर और रेस्टोरेंट्स लगातार प्रयासरत हैं कि कैसे भी करके इस मौके को भुनाया जाए. बाज़ार चाहता है आप अपनी बचत के पैसों को मुख्य धारा में ले आएं क्योंकि बाजार को एसेट की नहीं बल्कि ट्रांजेक्शन की दरकार है.

दुनिया की बात किनारे करे तो तो भारतीय परंपरा में एक प्रेम का आदर्श राधा-कृष्ण को प्रेम का भी था. त्यागयुक्त प्रेम. जो कृष्ण की विवाहिता भी नहीं थी लेकिन अब भी राधा-कृष्ण की जोड़ी प्रेम का सर्वोच्च प्रतिमान मानकर पूजी जाती है. इस आदर्श वाले देश में प्रेम के नाम पर पैसे का खेल ज्यादा तो नहीं लेकिन थोड़ा बहुत तो अखरता ही है न ! आप सब क्या कहते है?

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इस लेख में लेखक ने अपने निजी विचार व्यक्त किए हैं. ये जरूरी नहीं कि आईचौक.इन या इंडिया टुडे ग्रुप उनसे सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ लेखक ही जिम्मेदार है.

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