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हाथों में गुलाब पकड़े प्रेम चतुर्दशी का प्रेममयी पदार्पण हो चुका है!

    • श्वेत कुमार सिन्हा
    • Updated: 07 फरवरी, 2023 09:16 PM
  • 07 फरवरी, 2023 09:16 PM
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14 फरवरी नज़दीक आने को है और गुलाब अपनी ख़ुशबू से सबों को राग-द्वेश त्यागकर प्रेमराग फैलाने का संदेश दे रहा है. चाहे शाहजहां हो या दशरथ मांझी, प्रेम के इस पवित्र सप्ताह में फूहड़पन को त्यागकर आइए प्यार की इन प्रतिमूर्ति को याद करें और समूचे संसार के समक्ष एक ऐसा उदाहरण पेश करें जो आने वाली नस्लो के लिए एक मिसाल बनकर सामने आए.

हाथो में गुलाब पकड़े प्रेम चतुर्दशी का प्रेममयी पदार्पण हो चुका है. प्रेम चतुर्दशी? अरे नहीं समझें, मैं चौदह फरवरी की बात कर रहा हूं. अपनी कहानियों, उपन्यासों में इतनी मर्तबा प्रेमलीला का महिमामंडन कर डाला फिर साक्षात प्रेम की देवी के उत्सव पर प्रेमसंदेश फैलाना तो बनता है. इस सिलसिले को आगे बढ़ाते हुए पिछले साल आगरा में बिताए उन लम्हो का ज़िक्र करना लाज़िमी हैं जब एक साहित्य संगम में सम्मिलित होने वहां जाना पड़ा. अब आगरा जाना हो और प्रेम की अमिट निशानी ताजमहल का दीदार किए बगैर वापस लौट जाऊं तो लानत है मुझपर. अबतक केवल किताबी इल्म था. पर मुमताज़ महल के मक़बरे को नज़दीक से देखकर जाना कि शाहजहां अपनी बेग़म से बेपनाह मोहब्बत करता था और ताजमहल खड़ा करके उसने समूचे जहान के सामने इश्क़ की मिशाल पेश कर दी.

फरवरी का महीना उन लोगों के लिए ख़ास होता है जो प्यार की गिरफ्त में होते हैं

ताजमहल की अमिट छाप ज़ेहन में लिए मैं उसकी चहारदीवारी से बाहर भी न निकला था कि अनायास ही आंखो के सामने दशरथ मांझी का चेहरा घूमने लगा और दिल ने यह सवाल खड़ा कर दिया कि प्रेम की ख़ातिर पहाड़ को चीरकर रास्ता बनानेवाले दशरथ मांझी क्या शाहजहां से कम थे! दशरथ मांझी का जन्म बिहार के गया जिले में हुआ. गया जो पितरों की मोक्षभूमि के लिए विश्वविख़्यात है, जहां ज्ञान प्राप्त कर कपिलवस्तु के राजकुमार सिद्धार्थ की परिणति महात्मा बुद्ध में हई थी.

गया की उसी पावन धरती पर दशरथ मांझी ने जन्म लिया और पूरी दुनिया को प्रेम का संदेश देकर गए. प्रेम में पड़ा इंसान अगर नदी की लहरों की परवाह किए बगैर ताजमहल खड़ा कर सकता है तो पहाड़ को भी अपने आगे घूटने टेकने पर मज़बूर कर सकता है और ऐसा करके दशरथ मांझी ने पूरे संसार के समक्ष प्रेम का जीता-जागता मिसाल पेश किया.

गया के जिस गहलौर पहाड़ को...

हाथो में गुलाब पकड़े प्रेम चतुर्दशी का प्रेममयी पदार्पण हो चुका है. प्रेम चतुर्दशी? अरे नहीं समझें, मैं चौदह फरवरी की बात कर रहा हूं. अपनी कहानियों, उपन्यासों में इतनी मर्तबा प्रेमलीला का महिमामंडन कर डाला फिर साक्षात प्रेम की देवी के उत्सव पर प्रेमसंदेश फैलाना तो बनता है. इस सिलसिले को आगे बढ़ाते हुए पिछले साल आगरा में बिताए उन लम्हो का ज़िक्र करना लाज़िमी हैं जब एक साहित्य संगम में सम्मिलित होने वहां जाना पड़ा. अब आगरा जाना हो और प्रेम की अमिट निशानी ताजमहल का दीदार किए बगैर वापस लौट जाऊं तो लानत है मुझपर. अबतक केवल किताबी इल्म था. पर मुमताज़ महल के मक़बरे को नज़दीक से देखकर जाना कि शाहजहां अपनी बेग़म से बेपनाह मोहब्बत करता था और ताजमहल खड़ा करके उसने समूचे जहान के सामने इश्क़ की मिशाल पेश कर दी.

फरवरी का महीना उन लोगों के लिए ख़ास होता है जो प्यार की गिरफ्त में होते हैं

ताजमहल की अमिट छाप ज़ेहन में लिए मैं उसकी चहारदीवारी से बाहर भी न निकला था कि अनायास ही आंखो के सामने दशरथ मांझी का चेहरा घूमने लगा और दिल ने यह सवाल खड़ा कर दिया कि प्रेम की ख़ातिर पहाड़ को चीरकर रास्ता बनानेवाले दशरथ मांझी क्या शाहजहां से कम थे! दशरथ मांझी का जन्म बिहार के गया जिले में हुआ. गया जो पितरों की मोक्षभूमि के लिए विश्वविख़्यात है, जहां ज्ञान प्राप्त कर कपिलवस्तु के राजकुमार सिद्धार्थ की परिणति महात्मा बुद्ध में हई थी.

गया की उसी पावन धरती पर दशरथ मांझी ने जन्म लिया और पूरी दुनिया को प्रेम का संदेश देकर गए. प्रेम में पड़ा इंसान अगर नदी की लहरों की परवाह किए बगैर ताजमहल खड़ा कर सकता है तो पहाड़ को भी अपने आगे घूटने टेकने पर मज़बूर कर सकता है और ऐसा करके दशरथ मांझी ने पूरे संसार के समक्ष प्रेम का जीता-जागता मिसाल पेश किया.

गया के जिस गहलौर पहाड़ को पार करने के दौरान उससे गिरने की वज़ह से दशरथ मांझी की पत्नी फाल्गुनी देवी की प्राण गई, दशरथ मांझी ने उस गहलौर पहाड़ का सीना चीरकर उसके बीचो-बीच एक रास्ता बना डाला जिससे कल फिर कोई दशरथ मांझी अपनी फाल्गुनी देवी से दूर न हो सके. आज गया की उस पवित्र प्रेम घाटी में न केवल सफल प्रेमी जोड़े सेल्फी लेकर अपने प्रेम को अमर करते हैं, बल्कि अब औरतें बेझिझक होकर अपने पति के लिए खाना लिए उस घाटी को पार करती है.

कितनी अजीब बात है कि प्रेम की निशानी ताजमहल को तैयार होने में बाइस साल का वक़्त लगा और प्रेमपुरुष दशरथ मांझी को भी गहलौर घाटी का सीना चीरने में लगा वक़्त बाइस साल का ही था. 14 फरवरी नज़दीक आने को है और गुलाब अपनी ख़ुशबू से सबों को राग-द्वेश त्यागकर प्रेमराग फैलाने का संदेश दे रहा है.

चाहे शाहजहां हो या दशरथ मांझी, प्रेम के इस पवित्र सप्ताह में फूहड़पन को त्यागकर आइए प्यार की इन प्रतिमूर्ति को याद करें और समूचे संसार के समक्ष एक ऐसा उदाहरण पेश करें जो आने वाली नस्लो के लिए एक मिसाल बनकर सामने आए.

इस लेख में लेखक ने अपने निजी विचार व्यक्त किए हैं. ये जरूरी नहीं कि आईचौक.इन या इंडिया टुडे ग्रुप उनसे सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ लेखक ही जिम्मेदार है.

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