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क्या ये कहानी सुनने के बाद भी कहेंगे कि लड़कियां नहीं, लड़का चाहिए?

    • श्रुति दीक्षित
    • Updated: 21 जनवरी, 2019 04:49 PM
  • 21 जनवरी, 2019 04:49 PM
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यूपी की दो बहनों ने अपने पिता की सेवा करने और अपने घर को चलाने के लिए वो किया जो शायद किसी के लिए भी आसान नहीं होगा. अपनी पहचान छुपाकर 4 साल तक गांव वालों के ताने सुनकर भी पीछे नहीं हटने वाली इन बहनों को सलाम.

भारत में एक प्रथा सदियों से चली आ रही है और वो प्रथा है बच्चे के रूप में लड़का चाहने की. आशीर्वाद भी दिया जाता है 'दूधो नहाओ, पूतो फलो' (दूध में नहाओ और लड़का पैदा करो). भारत जहां आशिर्वाद भी सेक्सिस्ट होता है वहां कई बार लड़कियों को कोख में ही मार दिया जाता है, उन्हें पैदा कर भी दिया जाए तो छोड़ देते हैं कचरे के डिब्बे में, नदी-नाले में, सड़क पर. आखिर लड़कियों को मन मारकर जीना पड़ता है, डर कर जीना पड़ता है. ऐसा ही कुछ हुआ 18 साल की ज्योति‍ कुमारी और 16 साल की नेहा के साथ जिन्हें सिर्फ काम करने के लिए 4 सालों तक अपनी पहचान छुपानी पड़ी. उत्तरप्रदेश में गोरखपुर के पास एक छोटे से गांव बनवारी टोला की ये कहानी है. इस कहानी की हीरो हैं दो लड़कियां.

आखिर क्यों छुपानी पड़ी पहचान..

2014 में ज्योती और नेहा के पिता बहुत बीमार पड़ गए थे. इतने बीमार की वो अपनी दुकान में कुछ कर नहीं सकते थे. दोनों लड़कियों के पिता ध्रुव नारायण नाई थे और गांव में उनकी एक छोटी सी दुकान थी. क्योंकि ये दुकान ही थी जिससे ध्रुव का घर चलता था इसलिए उनके बीमार पड़ने के बाद दुकान पर भी ताला लग गया. आर्थिक स्थिति‍ खराब होते देख ज्योति‍ और नेहा ने अपनी कमर कस ली और दुकान खोल ली. लेकिन आखिर ये समाज कैसे दो लड़कियों को लड़कों का काम करने देता?

गांव वाले नाई का काम कर रही लड़कियों के साथ अच्छा व्यवहार नहीं करते थे.

गांव वालों ने उनका जीना हराम कर दिया. उन्हें ताने मारने लगे, यहां तक कि उनकी दुकान पर आने वाले ग्राहक भी उन्हें इज्जत नहीं देते और उनके साथ बुरा बर्ताव करते. इस सबसे तंग आकर उन दोनों लड़कियों ने खुद को लड़के जैसा दिखाना शुरू कर दिया. दोनों ने अपने नाम भी बदल कर दीपक और राजू रख लिए. अपने बाल काटकर लड़कों जैसे कर लिए,...

भारत में एक प्रथा सदियों से चली आ रही है और वो प्रथा है बच्चे के रूप में लड़का चाहने की. आशीर्वाद भी दिया जाता है 'दूधो नहाओ, पूतो फलो' (दूध में नहाओ और लड़का पैदा करो). भारत जहां आशिर्वाद भी सेक्सिस्ट होता है वहां कई बार लड़कियों को कोख में ही मार दिया जाता है, उन्हें पैदा कर भी दिया जाए तो छोड़ देते हैं कचरे के डिब्बे में, नदी-नाले में, सड़क पर. आखिर लड़कियों को मन मारकर जीना पड़ता है, डर कर जीना पड़ता है. ऐसा ही कुछ हुआ 18 साल की ज्योति‍ कुमारी और 16 साल की नेहा के साथ जिन्हें सिर्फ काम करने के लिए 4 सालों तक अपनी पहचान छुपानी पड़ी. उत्तरप्रदेश में गोरखपुर के पास एक छोटे से गांव बनवारी टोला की ये कहानी है. इस कहानी की हीरो हैं दो लड़कियां.

आखिर क्यों छुपानी पड़ी पहचान..

2014 में ज्योती और नेहा के पिता बहुत बीमार पड़ गए थे. इतने बीमार की वो अपनी दुकान में कुछ कर नहीं सकते थे. दोनों लड़कियों के पिता ध्रुव नारायण नाई थे और गांव में उनकी एक छोटी सी दुकान थी. क्योंकि ये दुकान ही थी जिससे ध्रुव का घर चलता था इसलिए उनके बीमार पड़ने के बाद दुकान पर भी ताला लग गया. आर्थिक स्थिति‍ खराब होते देख ज्योति‍ और नेहा ने अपनी कमर कस ली और दुकान खोल ली. लेकिन आखिर ये समाज कैसे दो लड़कियों को लड़कों का काम करने देता?

गांव वाले नाई का काम कर रही लड़कियों के साथ अच्छा व्यवहार नहीं करते थे.

गांव वालों ने उनका जीना हराम कर दिया. उन्हें ताने मारने लगे, यहां तक कि उनकी दुकान पर आने वाले ग्राहक भी उन्हें इज्जत नहीं देते और उनके साथ बुरा बर्ताव करते. इस सबसे तंग आकर उन दोनों लड़कियों ने खुद को लड़के जैसा दिखाना शुरू कर दिया. दोनों ने अपने नाम भी बदल कर दीपक और राजू रख लिए. अपने बाल काटकर लड़कों जैसे कर लिए, पैंट-शर्ट पहनने लगीं और लड़कों द्वारा पहना जाने वाला कड़ा भी पहनने लगीं.

उनके गांव के लोगों को तो उनकी पहचान पता थी. करीब 100 घर जानते थे कि वो दीपक और राजू नहीं बल्कि ज्योति और नेहा हैं. पर आस-पास के गांव वाले लोग ये नहीं जानते थे. ज्योति और नेहा दोपहर में दुकान खोलती थीं क्योंकि दिन में वो अपनी पढ़ाई पूरी करती थीं. वो रोजाना पढ़ाई करतीं, दुकान पर काम करतीं, पिता का ख्याल रखतीं और फिर घर के काम-काज में जुट जातीं. धीरे-धीरे उनके हालात सुधरने लगे. दोनों बहने दिन के 400 रुपे कमा लेती थीं जो उनके घर के गुजारे के लिए पर्याप्त हो जाते.

दोनों बहनों ने उन चार सालों में बेहद कठिन परिस्थितियां देखीं. उनके पिता का कहना है कि उन्हें ये देखकर बहुत दुख होता है कि उनकी बेटियों को ये सब झेलना पड़ रहा है, लेकिन उन्हें गर्व है अपनी बेटियों पर. बेटियों ने परिवार को बेहद मुश्किल भरे समय से बाहर निकाला है.

एक आर्टिकल ने बदल दी किस्मत..

ज्योति और नेहा की जिंदगी ऐसे ही चल रही थी. धीरे-धीरे उनके सभी कस्टमर ये जान रहे थे कि वो लड़कियां हैं और उनपर भरोसा करने लगे थे. तभी गोरखपुर के एक जर्नलिस्ट ने उनकी कहानी एक अखबार में छापी और इसके बाद दोनों लड़कियों को सरकार ने सम्मानित किया.

सरकार के प्रोत्साहन के बाद ये कहा गया कि उन दोनों लड़कियों की मदद की जाएगी ताकि वो ब्यूटी पार्लर खोल लें और अपना जीवन जिएं, लेकिन ज्योति और नेहा ने मना कर दिया. आखिर करें भी क्यों न. ब्यूटी पार्लर खोलने की सलाह उनकी चार साल की तपस्या को मिट्टी में मिला देगी. जब उन्होंने सलून का काम किया है तो वो सलून का काम ही करती रहेंगी. दोनों बहनों ने कहा कि अब उन्हें अपनी पहचान छुपाने की जरूरत नहीं है. उन्हें बेहद अच्छा रिस्पान्स मिल रहा है. जब से उनकी खबर छपि है गांव वाले और आस-पड़ोस के लोग उनकी तारीफ कर रहे हैं.

ये कहानी समझाती है कि भारत में अब तक इस करद भेदभाव लड़के और लड़कियों के बीच होता है कि उनके काम को भी उनके जेंडर के आधार पर आंका जाता है. गांव की ज्यादातर महिलाएं या तो खेतों में काम करती हैं या फिर किसी सरकारी कारखाने में या फिर सिलाई-कढ़ाई बुनाई का काम करती हैं. या फिर कुछ खाना बनाती हैं और अपने घर का काम करती हैं.

नेहा और ज्योति न सिर्फ दुकान चलाती थीं बल्कि पढ़ाई भी साथ-साथ करती थीं.

पर क्या किसी को ये लगता है कि ये महिलाएं बेहद मेहनती हैं और दुनिया का कोई भी काम शायद इनके लिए मुश्किल नहीं है. महिलाओं को पुरुषों से दूर काम करना चाहिए और उन्हें किसी भी स्थिति में लड़कों के काम में हाथ नहीं बटाना चाहिए, लड़का होगा तो नाम रौशन करेगा वगैराह-वगैराह. ये सब बातें समझाती हैं कि चाहें कुछ भी हो जाए भारतीय समाज में महिलाओं की हालत वैसी ही रहने वाली है. पर ज्योति और नेहा जैसी लड़कियां इस भ्रांति को तोड़ती हैं. ज्योति और नेहा की कहानी कई लोगों को प्रेरित करेगी कि अपनी जिंदगी में लड़कियां बहुत आगे बढ़ सकती हैं. उन्हें किसी की जरूरत नहीं. उन्हें बस हौसला चाहिए. क्या हम वो हौसला उन्हें नहीं दे सकते? एक समाज में रहते हुए उन्हें लड़का और लड़की न समझकर बस कुछ वक्त के लिए अगर इंसान समझा जाए तो आगे चलकर वो देश को आगे बढ़ाने और अपने परिवार की जिंदगी को बेहत बनाने के लिए भी काम कर सकती हैं. लड़की की जिंदगी का असल

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इस लेख में लेखक ने अपने निजी विचार व्यक्त किए हैं. ये जरूरी नहीं कि आईचौक.इन या इंडिया टुडे ग्रुप उनसे सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ लेखक ही जिम्मेदार है.

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