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मौलानाओं, काशी-मथुरा खारिज करना असल में भारतीयता को ही खारिज करना है!

    • अनुज शुक्ला
    • Updated: 16 सितम्बर, 2022 10:05 PM
  • 16 सितम्बर, 2022 08:21 PM
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जब ज्ञानवापी के प्रत्यक्ष सच को स्वीकार करने का साहस लोगों में नहीं है तो अयोध्या पर जिंदगीभर उनका पश्चाताप आता ही रहेगा. भारत के लिए इससे ज्यादा दुर्भाग्यपूर्ण और क्या होगा कि काशी और मथुरा पर भी प्रमाण देना पड़ रहा है.

यदि काशी, मथुरा, अयोध्या, हिंगलाज, कश्मीर, रामेश्वरम और लुम्बिनी आदि जगहों को भी धार्मिक लिहाज से 'सच्चा' बताने के लिए एक पक्ष को सैकड़ों साल से रोजाना सबूत और गवाही देना पड़ रहा तो ऐसी कौमों को जिंदा रहने का हक़ नहीं है. जिंदा हैं तो जरूर कीड़ा-मकोड़ा ही होंगे. या फिर मंडियों में बिकने वाले गुलाम. ऐसे गुलाम जिन्होंने अपनी बहन बेटियों की सरेबाजार नीलामी देखी- बावजूद चुप बैठे रहें. ऐसे गुलाम जो 'शाही बर्तनों' में टट्टी-पेशाब करने वाले बादशाहों और उनके कारिंदों का 'मैला' हाथ से साफ़ करते रहे, मगर चुप रहे. इतिहास की यह ऐसी अबूझ पहेली है जिसे हल किए बिना भारत का कल्याण संभव नहीं है. या तो उस पहेली को हल करिए या फिर उन तमाम बुद्धिजीवियों, मौलानाओं के सुझाए मानवीय धर्म की शरण में जाकर आप भी 'विश्वकल्याण' की मुहिम में लग जाइए. भारत के भविष्य को जनहानि से बचाना चाहते हैं तो.

हजारों मंदिरों-मठों को छोड़ दीजिए, यह बात तो समझ से परे है कि काशी-मथुरा और अयोध्या पर भी बिना वजह सवाल उठाए जा रहे हैं. जवाब देते-देते गला सूख चुका है. इतने लाचार हैं कि चाहकर भी कुछ नहीं कर सकते. जबकि बार-बार आपके पुरुषार्थ को चुनौती दी जा रही है. दो कौड़ी के लोग समूची सभ्यता को अपमानित करते रहते हैं. हजार साल से प्रक्रिया जारी है. समझ नहीं आता कि धर्म के आधार पर एक पाकिस्तान बन जाने के बावजूद ऐसे सवालों ने भारत का पीछा नहीं छोड़ा? कितने पाकिस्तान चाहिए? पता नहीं इसके पीछे कौन से सहस्त्र हाथियों का बल काम कर रहा है. कहीं ऐसा तो नहीं कि सवाल उठाने वाले लोग उन्हीं राजे-रजवाड़े, सामंतों, क्षत्रपों, सैनिकों की माताओं-बहनों के गर्भ से जन्में वंशज हैं जिन्हें सल्तनतों और तख्तों के दौर में धार्मिक उपनिवेश चलाने वाले बादशाह 'ईदी' के तौर पर खुद और रिश्तेदारों में बाँट लिया करते थे?

नंदी और उनके...

यदि काशी, मथुरा, अयोध्या, हिंगलाज, कश्मीर, रामेश्वरम और लुम्बिनी आदि जगहों को भी धार्मिक लिहाज से 'सच्चा' बताने के लिए एक पक्ष को सैकड़ों साल से रोजाना सबूत और गवाही देना पड़ रहा तो ऐसी कौमों को जिंदा रहने का हक़ नहीं है. जिंदा हैं तो जरूर कीड़ा-मकोड़ा ही होंगे. या फिर मंडियों में बिकने वाले गुलाम. ऐसे गुलाम जिन्होंने अपनी बहन बेटियों की सरेबाजार नीलामी देखी- बावजूद चुप बैठे रहें. ऐसे गुलाम जो 'शाही बर्तनों' में टट्टी-पेशाब करने वाले बादशाहों और उनके कारिंदों का 'मैला' हाथ से साफ़ करते रहे, मगर चुप रहे. इतिहास की यह ऐसी अबूझ पहेली है जिसे हल किए बिना भारत का कल्याण संभव नहीं है. या तो उस पहेली को हल करिए या फिर उन तमाम बुद्धिजीवियों, मौलानाओं के सुझाए मानवीय धर्म की शरण में जाकर आप भी 'विश्वकल्याण' की मुहिम में लग जाइए. भारत के भविष्य को जनहानि से बचाना चाहते हैं तो.

हजारों मंदिरों-मठों को छोड़ दीजिए, यह बात तो समझ से परे है कि काशी-मथुरा और अयोध्या पर भी बिना वजह सवाल उठाए जा रहे हैं. जवाब देते-देते गला सूख चुका है. इतने लाचार हैं कि चाहकर भी कुछ नहीं कर सकते. जबकि बार-बार आपके पुरुषार्थ को चुनौती दी जा रही है. दो कौड़ी के लोग समूची सभ्यता को अपमानित करते रहते हैं. हजार साल से प्रक्रिया जारी है. समझ नहीं आता कि धर्म के आधार पर एक पाकिस्तान बन जाने के बावजूद ऐसे सवालों ने भारत का पीछा नहीं छोड़ा? कितने पाकिस्तान चाहिए? पता नहीं इसके पीछे कौन से सहस्त्र हाथियों का बल काम कर रहा है. कहीं ऐसा तो नहीं कि सवाल उठाने वाले लोग उन्हीं राजे-रजवाड़े, सामंतों, क्षत्रपों, सैनिकों की माताओं-बहनों के गर्भ से जन्में वंशज हैं जिन्हें सल्तनतों और तख्तों के दौर में धार्मिक उपनिवेश चलाने वाले बादशाह 'ईदी' के तौर पर खुद और रिश्तेदारों में बाँट लिया करते थे?

नंदी और उनके ठीक सामने कुछ दूरी पर ज्ञानवापी परिसर में एक टीन शेड दिखता है. उसी में विश्वेश्वर का लिंगम है.

ज्ञानवापी में याचिका स्वीकार हुई और अपमानित करने का अंतहीन सिलसिला शुरू हो गया

ज्ञानवापी मामले में अदालत ने अवैध रूप से जब्त किए गए सनातन देवी-देवताओं की पूजा के अधिकार को लेकर याचिका को स्वीकार क्या कर लिया फिर उन्हीं सवालों के जरिए अपमानित करने का अंतहीन सिलसिला शुरू हो गया है. कोई कहा रहा- ज्ञानवापी हमेशा से मस्जिद ही है. मंदिर में बलात्कार होता था इसलिए ध्वस्त किया गया. कोई- अवैध मस्जिदों के संरक्षण के लिए बने कांग्रसी कानूनों की दुहाई दे रहा. कोई कह रहा कि ज्ञानवापी अयोध्या की तरह फर्जी राह पर है. जो शिव, कश्मीर से कन्याकुमारी तक भारत को हजारों साल से एक सूत्र में जोड़ते रहे हैं उन्हें ज्ञानवापी में अपने अस्तित्व का प्रमाण देना पड़ रहा है. इससे दुर्भाग्यपूर्ण भला और कुछ हो सकता है क्या? बावजूद कि वह प्रत्यक्ष हैं. कोई दूसरी जगह होती तो समझ में भी आता. ज्ञानवापी में भला प्रमाण की क्या आवश्यकता है?

जहां नंदी बैठे हैं उसके ठीक सामने टीन शेड में बने 'विश्वेश्वर' हिमालय की तरह सत्य और अटल विराजमान हैं. तमाम प्रयासों के बावजूद उन्हें 'फव्वारा' सिद्ध नहीं किया जा सकता. लिंग को ऊपर ड्रिल करने की कोशिश की गई. नीचे के तल में भी दीवारें चिनवा दी गईं. बावजूद विश्वेश्वर का सत्य सैकड़ों साल बाद बाहर आ ही गया. नंदी और विशेश्वर में सिर्फ इतनी दूरी है कि नंदी के पास बैठकर मंत्र बुदबुदाएं तो वह 'विश्वेश्वर' तक सुनाई देता है. वहां क्या था- दृष्टिहीन भी बता सकता है. वह 'विश्वेश्वर' मंदिर और शिवलिंग अपने मूल स्वरुप में कितना भव्य विशाल और सुंदर रहा होगा, ध्वंसावशेष देखकर समझना मुश्किल नहीं. औरंगजेब के पाप को छिपाने के लिए 'विश्वेश्वर' को हर रोज पांच बार दूषित किया जाता रहा और सच में आपकी महानता का दुनिया में कोई जोड़ नहीं कि दम साधे धैर्य के साथ अब तक शांतिपूर्वक बैठे ही रह गए? बेशक आप मानवीयता से भरे और महान हैं.

ज्ञानवापी परिसर के अंदर का वीडियो नीचे देख सकते हैं:-

जबकि अयोध्या पर मामले का निपटारा होने के बावजूद इस्लामिक उपनिवेश में जकड़े वाया पाकिस्तान अरबी टुकड़ों पर पलने वाले मौलाना/बुद्धिजीवी अभी भी मानने को तैयार नहीं कि वहां कोई राम मंदिर रहा होगा. काशी-मथुरा में भी उन्हें ऐसा ही लगता है फिर भला क्या ही आश्चर्य करना? उन्हें लगता है कि जो मस्जिदें बनाई गईं, असल में वह गंगा-जमुनी तहजीब की जीती-जागती मिसालें और मिली जुली संस्कृति का नमूना हैं. वैसे भी इस्लामिक उपनिवेश में जकड़े बुद्धिजीवियों को राम-कृष्ण की कहानी काल्पनिक लगती है. 'आदि शिव' घोर कल्पना के विषय हैं उनकी नजर में. यहां तक कि भगवान बुद्ध भी उन्हें स्टडी टेबुल पर रखने वाली सजावट की चीज से ज्यादा नजर नहीं आते. बुद्ध अगर सजावट की चीज नहीं समझे जाते तो क्या बामियान में किसी तालिबान की हिम्मत थी- उन्हें तोड़ने की. निश्चित ही बुद्ध की उस धरती पर भी हजार साल पहले ऐसे ही सवाल उठना शुरू हुए होंगे. वहां भी ऐसे ही पुरुषार्थ की कमी रही होगी तब. वह चुप बैठा रहा होगा. आज वहां बुद्ध की ही जमीन पर उन्हीं का नामलेवा नहीं बचा. अब तालिबानियों को बुद्ध असत्य लगते हैं और काबा में उन्हें सच्चाई नजर आती है. अब वहां पुरुषार्थियों की कोई कमी नहीं है, अमेरिका ने भी विवश होकर उन्हें प्रणाम कर उनका पीछा छोड़ देना ही उचित समझा.

चलिए, अयोध्या पर सवाल उठाने वालों की राय से एक मिनट के लिए सहमत हो जाते हैं- वहां बाबर ने कोई मंदिर तोड़कर मस्जिद नहीं बनवाई. लेकिन यह तो असंभव है कि अयोध्या में राम का कोई मंदिर ही ना रहा हो. मथुरा वृन्दावन में योगेश्वर का मंदिर ना मिले. कहीं तो रहा होगा, बाबर से पहले? अगर उस जगह को सरयू ने अपने आगोश में नहीं डुबोया तो फिर वह मंदिर कहां है? भारत में जहां राम और कृष्ण का जन्म हुआ वहां पांच सौ साल पुराना कोई मंदिर नहीं दिखता, दुनिया में इससे बड़ा अजूबा और कुछ हो ही नहीं सकता. उस देश में जहां दो-दो हजार और तीन-तीन हजार साल पुराने मंदिर आज भी शान से खड़े हैं. राम कृष्णा का पांच सौ साल पुराना मंदिर ना होना- शोध और हैरानी का विषय क्यों नहीं है? वहां जहां हजारों साल पुराना व्यवस्थित रथ जमीन के अंदर से निकल आता है. यह हाल सिर्फ अयोध्या मथुरा का नहीं समूचे उत्तर भारत का है- जहां सल्तनतों और मुगलों का एकछत्र राज रहा. सिर्फ वही प्राचीन मंदिर, गुफाएं और मठ मिलते हैं जो जंगलों में थे और जिन्हें अंग्रेजों ने खोजा था. मुगलों ने खोजा कुछ नहीं उन्हें गायब करना जरूरी समझा.

जबकि डैन गिब्सन काबा को खारिज करने के लिए तर्क देता है. नाना प्रकार के सुरों में रोता नहीं. दुनियाभर की अति प्राचीनतम मस्जिदों के किबला और उसकी दिशा का वैज्ञानिक विश्लेषण भी करता है वह. जिसमें दुनिया कि सबसे अति प्राचीन मस्जिदों में से एक तत्कालीन भारत के सिंध क्षेत्र में और दूसरा मौजूदा चीन के उस प्रांत में जहां उइगर समस्या वाम शासित राज्य के गले की फांस बन चुका है. जो ना निगला जा रहा और ना ही उगला जा रहा. बावजूद डैन गिब्सन काबा के सच का कुछ उखाड़ नहीं पाया क्योंकि अरब का पुरुषार्थ काबा के 'सच' को बचाए रखने में सक्षम है.

असल में इस्लामिक शासकों का काम वही था जो उन्होंने अरब से लेकर समूची दुनिया में जहां-जहां भी उनके पांव पड़े- किया. गैर इस्लामिक चीजों को मिटा देना. और उसके सामने इस्लाम से जुड़े धार्मिक सांस्कृतिक पहचान को खड़ा करना. क्या ये मजहबी शिक्षा थी? कोई मजहब इसकी अनुमति देता है क्या? भले ही उसके लिए किसी 'सालार मसूद' जैसे घटिया लड़ाके को ही पीर घोषित कर उसकी दरगाह बनाकर उसे संत की तरह पूजने की परंपरा शुरू कर दी गई. दक्षिण से कुछ कम मंदिर उत्तर में नहीं थे. दक्षिण की तरह ही इधर भी मंदिरों में ही शादियां और तमाम संस्कार होते थे. शादियां दिन में होती थी. लेकिन मुगलों का जहां-जहां एकछत्र राज्य रहा, वहां शादियां मंदिर में नहीं होतीं. मंदिर ही नहीं थे तो शादियां हों कैसे? शादियां रात को घरों के अंदर की जाने लगीं. आज आपने भले उसे रोशनी से लकदक कर दिया और 'रात के ढाई बजे कोई शहनाई बजे' गानों पर नाचते हुए उसे स्वीकार कर चुके हैं- असल में यह परंपरा आपके डर का सबसे बड़ा सबूत है. आपको छिपकर अपने घरों के आँगन में मंदिरों के मंडप बनाने पड़े. आप चाहे जिस जाति के रहे हों. छिपकर शादियां करनी पडीं. आज ऐसी शादियां उत्तर की संस्कृति का हिस्सा बन चुकी हैं.

काशी, अयोध्या और मथुरा पर 'लिबरलों' की तरह सवाल उठाने से पहले जाइए और पता लगाइए कि मंदिर का मंडप आपके घरों के आँगन में क्यों और कैसे आया? जाइए पहले यह देखिए कि अंग्रेजी राज कायम होने से पहले आप जहां भी आज की तारीख में रह रहे हैं- वहां ठीक दो ढाई सौ साल पहले कहां से और क्यों आए थे. आपके पूर्वजों को बार-बार बिना रोजगार के भागते-फिरते जगहें बदलने की क्यों जरूरत पड़ती थी? और एक बार यह भी जरूर पता लगाने कि कोशिश करें कि 1857 के असफल गदर के बाद तमाम जातीय सामजिक आंदोलन हुए थे वह किन चीजों से मुक्ति के लिए थी, वे लोग कौन सी गलती सुधार रहे थे? भारत में काशी अटल सत्य है.


इस लेख में लेखक ने अपने निजी विचार व्यक्त किए हैं. ये जरूरी नहीं कि आईचौक.इन या इंडिया टुडे ग्रुप उनसे सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ लेखक ही जिम्मेदार है.

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