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तब इफ्तार राजनीतिक हथियार हुआ करता था और अब?

    • नाज़िया एरम
    • Updated: 03 जून, 2018 01:04 PM
  • 03 जून, 2018 01:04 PM
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आज ये बात साफ कर दें कि राजनीतिक 'इफ्तार पार्टियां' कभी भी मुसलमानों को साथ मिलाने के बारे में नहीं थीं, बल्कि ये सिर्फ एक दिखावा थी.

मुझे याद है कि हर साल रमजान के दौरान, राष्ट्रीय समाचार पत्रों के पहले पन्ने पर मुसलमानी टोपी पहने कई नेताओं की फोटो नजर आती थी. बड़े बड़े लोगों द्वारा राजनीतिक इफ्तार में भाग लेना बड़ी खबर बनती थी. इस तरह के राजनीतिक हथकंडों का इस्तेमाल हर साल किया जाता था लेकिन मुस्लिम समुदाय की स्थिति ज्यों की त्यों रहती थी.

लेकिन फिर भी इन तस्वीरों को देखकर सूकुन मिलता था. ये तस्वीरें हमें इस भ्रम में रखती थीं कि हमें भी स्वीकार किया जा रहा है हमारी भी अहमियत है. और इससे हम सहज हो गए. बहुत ही आरामदायक और आत्मसंतुष्ट. जब हम बड़े हो रहे थे तब इफ्तार की ये सालाना तस्वीरें हमारे लिए परदे की तरह थी. हम ये देख ही नहीं पा रहे थे कि कैसे इस तरीके से जमीनी स्तर पर हम अपने समुदाय में ही लोगों से कटते जा रहे हैं. हां, ये सच है कि एक साथ खाना खाने से दूरियां घटती हैं. लेकिन क्या लोग वास्तव में ऐसा कर रहे थे? इस तरह के राजनीतिक इफ्तार ने हमें ये दिखाया जैसे कि हम दुनिया को दिखा रहे हैं कि हम एक साथ खाना खा रहे हैं और बड़े ही सौहार्द के साथ रह रहे हैं.

लेकिन इस तरह के विचार आम आदमी के कामों में नहीं दिखाई देते. वे हमें हमारे दायरे के बारे आने ही नहीं देते. इसलिए, हम उस नफरत से भरी दुनिया में बड़े हुए जो असल में भारत के सामाजिक तानेबाने को कुचल रहा था. एक घृणा जिसे हम आज लिंचिंग और भीड़ की हिंसा के रुप में देखते हैं. एक घृणा जिसे हम सोशल मीडिया और सार्वजनिक क्षेत्रों में मुसलमानों के बारे में देखते हैं.

नफरत जो शक्तिशाली राजनीतिक नेताओं द्वारा लोगों के मन में भरी जाती है, अक्सर ऐसे शब्दों को हल्का और सामान्य बना देते हैं. एक घृणा जिसे हम आज देखते हैं, उसे बच्चों तक में इस तरीके से भर दिया गया है कि पांच साल का बच्चा भी पूछता है, "क्या आप मुस्लिम हैं? मैं मुसलमानों से नफरत करता हूं!"

लेकिन फिर भी ये नफरत एक रात में पैदा नहीं हुई. लगभग हर राजनीतिक नेता द्वारा मुस्लिम समुदाय के लिए किए गए हर अपील और दिखावे ने इस नफरत को जन्म दिया. ठीक...

मुझे याद है कि हर साल रमजान के दौरान, राष्ट्रीय समाचार पत्रों के पहले पन्ने पर मुसलमानी टोपी पहने कई नेताओं की फोटो नजर आती थी. बड़े बड़े लोगों द्वारा राजनीतिक इफ्तार में भाग लेना बड़ी खबर बनती थी. इस तरह के राजनीतिक हथकंडों का इस्तेमाल हर साल किया जाता था लेकिन मुस्लिम समुदाय की स्थिति ज्यों की त्यों रहती थी.

लेकिन फिर भी इन तस्वीरों को देखकर सूकुन मिलता था. ये तस्वीरें हमें इस भ्रम में रखती थीं कि हमें भी स्वीकार किया जा रहा है हमारी भी अहमियत है. और इससे हम सहज हो गए. बहुत ही आरामदायक और आत्मसंतुष्ट. जब हम बड़े हो रहे थे तब इफ्तार की ये सालाना तस्वीरें हमारे लिए परदे की तरह थी. हम ये देख ही नहीं पा रहे थे कि कैसे इस तरीके से जमीनी स्तर पर हम अपने समुदाय में ही लोगों से कटते जा रहे हैं. हां, ये सच है कि एक साथ खाना खाने से दूरियां घटती हैं. लेकिन क्या लोग वास्तव में ऐसा कर रहे थे? इस तरह के राजनीतिक इफ्तार ने हमें ये दिखाया जैसे कि हम दुनिया को दिखा रहे हैं कि हम एक साथ खाना खा रहे हैं और बड़े ही सौहार्द के साथ रह रहे हैं.

लेकिन इस तरह के विचार आम आदमी के कामों में नहीं दिखाई देते. वे हमें हमारे दायरे के बारे आने ही नहीं देते. इसलिए, हम उस नफरत से भरी दुनिया में बड़े हुए जो असल में भारत के सामाजिक तानेबाने को कुचल रहा था. एक घृणा जिसे हम आज लिंचिंग और भीड़ की हिंसा के रुप में देखते हैं. एक घृणा जिसे हम सोशल मीडिया और सार्वजनिक क्षेत्रों में मुसलमानों के बारे में देखते हैं.

नफरत जो शक्तिशाली राजनीतिक नेताओं द्वारा लोगों के मन में भरी जाती है, अक्सर ऐसे शब्दों को हल्का और सामान्य बना देते हैं. एक घृणा जिसे हम आज देखते हैं, उसे बच्चों तक में इस तरीके से भर दिया गया है कि पांच साल का बच्चा भी पूछता है, "क्या आप मुस्लिम हैं? मैं मुसलमानों से नफरत करता हूं!"

लेकिन फिर भी ये नफरत एक रात में पैदा नहीं हुई. लगभग हर राजनीतिक नेता द्वारा मुस्लिम समुदाय के लिए किए गए हर अपील और दिखावे ने इस नफरत को जन्म दिया. ठीक हमारी नाक के नीचे फलने फूलने दिया. राजनीतिक इफ्तार वास्तव में इसी सोच का नतीजा था. आज ये बात साफ कर दें कि राजनीतिक "इफ्तार पार्टियां" कभी भी मुसलमानों को साथ मिलाने के बारे में नहीं थीं, बल्कि ये सिर्फ एक दिखावा थी. राजनीतिक परिदृश्य बदलने के बाद कांग्रेस अपने वार्षिक इफ्तार पार्टियों से भी जल्दी ही हाथ खींच सकती है.

कांग्रेस को जवाहर लाल नेहरु के याद में इसे जारी रखना चाहिए था

कम से कम कांग्रेस इसे चलाए रख सकती थी. सालों पहले इस जवाहरलाल नेहरु ने लोगों से व्यक्तिगत मुलाकात के तौर पर इसे शुरु किया था. अपने मुस्लिम मित्रों के लिए जवाहरलाल नेहरू द्वारा आयोजित एक बार निजी समारोह होता था. कम से कम उनकी याद में कांग्रेस इसे चलाए रख सकती थी. 1970 के दशक के बाद से ही "राजनीतिक इफ्तार" का उदय हुआ. औक हर साल दिल्ली के सामाजिक कैलेंडर पर दिखाई देने लगा, जिसमें वाजपेयी सरकार के समय की भी इफ्तार पार्टियां शामिल थी.

वोट बैंक के लिए ही सही सभी ने इफ्तार को आजमाया जरुर है

लेकिन 2014 के बाद से हमने राजनीतिक इफ्तार का खत्म होना देखा. और 2017 में राष्ट्रपति भवन की इफ्तार पार्टी में मंत्रिमंडल के सभी मंत्रियों और सत्ताधारी पार्टी के नेताओं की अनुपस्थिति के साथ इनकी मृत्यु का शोक संदेश लिख दिया गया. संयोग से यह वही टाइम है जब भारतीय संसद में निर्वाचित मुसलमानों की सबसे कम सदस्यता है.

2017 में राष्ट्रपति भवन में आखिरी बार इफ्तार का आयोजन हुआ

संदेश बिल्कुल जोरदार और साफ है- अगर आप एक निर्णायक वोट बैंक नहीं हैं, तो फिर आप "समावेश" जैसे असाधारण प्रदर्शन के योग्य भी नहीं हैं. लेकिन अब जब राजनीतिक इफ्तार मर चुका है, तो हम गैर-राजनीतिक इफ्तारों का जन्म देखते हैं. ज्यादा से ज्यादा साधारण लोग आगे आ रहे हैं और इफ्तार का आयोजन कर रहे हैं. उदाहरण के लिए कुछ दिन पहले एक मुस्लिम लड़की से प्यार करने के जुर्म में जिस अंकित सक्सेना की सरेराह हत्या कर दी गई थी. उसके पिता यशपाल सक्सेना इस हफ्ते एक इफ्तार की मेजबानी करेंगे. ये खबर बताती है कि अपने बेटे की भयानक मौत से धार्मिक राजनीति वो दूर रखना चाहते हैं.

देश भर में गुरुद्वारों, चर्चों और मंदिरों में कई इफ्तार आयोजित किए गए हैं. अस्पतालों और शरणार्थी शिविरों के सामने सामुदायिक इफ्तार का आयोजन हुआ. वहीं तिहाड़ जेल में भी इफ्तार का आयोजन हुआ क्योंकि विभिन्न धर्मों के कैदियों ने इस साल एक साथ उपवास रखा. पिछले साल रमजान के दौरान भोपाल में वायरल हुए एक संदेश में कहा गया था, "इस रमजान, हर दिन साथ-साथ रोज़ा इफ्तार मे आपका इस्तकबाल है." युवाओं के पहल से इसके जरिए रमजान के महीने में 1500 लोगों को रोजाना एक साथ लाया गया. ये लोग हर क्षेत्र के थे. सभी ने साथ बैठकर खाना खाया. साथ-साथ को बढ़ाने पर जोर दिया गया.

और ऐसा नहीं है कि इस तरह के बड़े समुदाय ही इफ्तार का संचालन कर रहे हैं. बल्कि मुझे तो शांति से घरों में भी लोगों द्वारा इस तरह की मूक क्रांति देखने को मिलती है. पिछले साल, कई मुस्लिम महिलाओं ने मुझे उन लोगों तक पहुंचाया जो पहले कभी इफ्तर में नहीं आए थे. ये पहल सीएसडीएस के अध्ययन के बाद हुआ जिससे पता चला कि केवल 33 प्रतिशत हिंदुओं ने अपने करीबी दोस्तों में एक मुसलमान को माना.

इसलिए, हमने कई अजनबियों को हमारे घरों में आमंत्रित किया और उनके लिए खाना पकाया, ताकि वे भी हमारे रीति-रिवाजों में हिस्सा ले सकें और हमारी संस्कृति को समझ सकें. ये आइडिया काम कर गया और इस तरह के महिलाओं द्वारा शुरु की गई सभा पूरे देश में शुरु हो गई. कई लोगों ने अपने अनुभवों को हैशटैग #InterFaithIftar के माध्यम से सोशल मीडिया पर साझा किया. मैंने देखा कि अब बहुत से लोग अपने पड़ोसियों को अपने घरों में इफ्तार के लिए आमंत्रित कर रहे हैं.

इसका मतलब ये नहीं है कि ये भव्य, फाइव स्टार "पार्टी" हो. बल्कि इफ्तार का मतलब मितव्ययी और आत्मनिर्भर होना है. रमजान के महीने में सूर्योदय से सूर्यास्त तक उपवास करना न केवल भोजन से दूर रहने के बारे में है, बल्कि हमारे जीवन के हर हिस्से पर आत्मनिरीक्षण के बारे में भी है.

रमजान और इफ्तर तो आते जाते रहेंगे. लेकिन उनकी उपलब्धि यही है कि आप खुद को और अपने साथियों को आत्मनिरीक्षण करने में मदद करती है कि कैसे हम एकसाथ प्यार से रहने वाले लोग से राजनीतिक शक्तियों और पावर के चक्कर में उलझ गए और बिखर गए. सच्चाई तो यही है कि मनुष्यों के बीच की नफरत और अविश्वास को खत्म करने से ही भगवान खुश होगा.

(DailyO से साभार)

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इस लेख में लेखक ने अपने निजी विचार व्यक्त किए हैं. ये जरूरी नहीं कि आईचौक.इन या इंडिया टुडे ग्रुप उनसे सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ लेखक ही जिम्मेदार है.

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