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पीटरमरीत्ज़बर्ग रेलवे स्टेशन, वो जगह जिसने मोहनदास को महात्मा बना दिया

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    • Updated: 10 जून, 2018 03:24 PM
  • 10 जून, 2018 03:24 PM
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अगर 125 साल पहले भी यही स्थिति रही होती कि इस स्टेशन से कोई श्वेत या विदेशी जिसमें भारतीय भी शामिल होते, ट्रेन नहीं पकड़ता तो क्या वह ऐतिहासिक घटना घटती जिसने मोहन दास को महात्मा गांधी बनाने की शुरुआत की थी.

विदेश मंत्री श्रीमती सुषमा स्वराज ने दक्षिण अफ्रीका के क्वाज़ुलु नटाल प्रान्त की राजधानी पीटरमरीत्ज़बर्ग के ऐतिहासिक रेलवे स्टेशन पर महात्मा गांधी की प्रतिमा का अनावरण किया. ये दिन न सिर्फ हिन्दुस्तान, बल्कि पूरे विश्व के लिए ऐतिहासिक था. क्योंकि 125 साल पहले 7 जून 1893 को इसी स्टेशन पर एक ट्रेन के फर्स्ट क्लास डिब्बे से मोहन दास गांधी को धक्के मारकर निकाल दिया गया था.

गांधी की मूर्ति यहां लगाकर देश का मान बढ़ा है

श्वेत लोगों द्वारा गांधी जी को ट्रेन से नीचे उतार देने के पीछे वजह ये थी कि उस वक्त फर्स्ट क्लास में बैठने का अधिकार सिर्फ श्वेत लोगों के लिए ही सुरक्षित रखा गया था. और वहां रहने वाले सभी अश्वेत और गिरमिटिया लोग इसके अभ्यस्त थे इसीलिए उनको कभी इसके खिलाफ आवाज उठाने का विचार भी मन में नहीं आया.

ये सब मैंने भी सिर्फ पुस्तकों या पत्रिकाओं में ही पढ़ा था और गूगल के साभार से चित्रों को देखकर ही संतुष्ट रहता था. लेकिन अपनी नौकरी के सिलसिले में जब जोहानसबर्ग, दक्षिण अफ्रीका पोस्टिंग की सूचना मिली तो सबसे पहले ख्याल महात्मा गांधी का ही आया. दक्षिण अफ्रीका का जोहानसबर्ग शहर विश्व के सबसे अपराधग्रस्त शहरों में गिना जाता है इसी कारण से कई लोगों ने वहां जाने से मना कर दिया. खैर जोहानसबर्ग में कुछ महीने बिताने के बाद जब दिसंबर 2013 में डरबन जाने की योजना बनी तो यह ख्याल मन में था ही कि उस ऐतिहासिक स्टेशन को देखते हुए ही डरबन जाएंगे.

जैसे जैसे हम लोग पीटरमरीत्ज़बर्ग स्टेशन के पास पहुंचते गए, दिल में एक अजीब तरह की उत्सुकता पैदा होने लगी. एक तो मैंने उस स्टेशन को इंटरनेट पर भी पहले शायद ही कभी देखा था तो कुछ नया देखने की उम्मीद थी. और दूसरे दक्षिण अफ्रीका में रेल यातायात बहुत कम विकसित होने की वजह से कभी किसी भी रेलवे...

विदेश मंत्री श्रीमती सुषमा स्वराज ने दक्षिण अफ्रीका के क्वाज़ुलु नटाल प्रान्त की राजधानी पीटरमरीत्ज़बर्ग के ऐतिहासिक रेलवे स्टेशन पर महात्मा गांधी की प्रतिमा का अनावरण किया. ये दिन न सिर्फ हिन्दुस्तान, बल्कि पूरे विश्व के लिए ऐतिहासिक था. क्योंकि 125 साल पहले 7 जून 1893 को इसी स्टेशन पर एक ट्रेन के फर्स्ट क्लास डिब्बे से मोहन दास गांधी को धक्के मारकर निकाल दिया गया था.

गांधी की मूर्ति यहां लगाकर देश का मान बढ़ा है

श्वेत लोगों द्वारा गांधी जी को ट्रेन से नीचे उतार देने के पीछे वजह ये थी कि उस वक्त फर्स्ट क्लास में बैठने का अधिकार सिर्फ श्वेत लोगों के लिए ही सुरक्षित रखा गया था. और वहां रहने वाले सभी अश्वेत और गिरमिटिया लोग इसके अभ्यस्त थे इसीलिए उनको कभी इसके खिलाफ आवाज उठाने का विचार भी मन में नहीं आया.

ये सब मैंने भी सिर्फ पुस्तकों या पत्रिकाओं में ही पढ़ा था और गूगल के साभार से चित्रों को देखकर ही संतुष्ट रहता था. लेकिन अपनी नौकरी के सिलसिले में जब जोहानसबर्ग, दक्षिण अफ्रीका पोस्टिंग की सूचना मिली तो सबसे पहले ख्याल महात्मा गांधी का ही आया. दक्षिण अफ्रीका का जोहानसबर्ग शहर विश्व के सबसे अपराधग्रस्त शहरों में गिना जाता है इसी कारण से कई लोगों ने वहां जाने से मना कर दिया. खैर जोहानसबर्ग में कुछ महीने बिताने के बाद जब दिसंबर 2013 में डरबन जाने की योजना बनी तो यह ख्याल मन में था ही कि उस ऐतिहासिक स्टेशन को देखते हुए ही डरबन जाएंगे.

जैसे जैसे हम लोग पीटरमरीत्ज़बर्ग स्टेशन के पास पहुंचते गए, दिल में एक अजीब तरह की उत्सुकता पैदा होने लगी. एक तो मैंने उस स्टेशन को इंटरनेट पर भी पहले शायद ही कभी देखा था तो कुछ नया देखने की उम्मीद थी. और दूसरे दक्षिण अफ्रीका में रेल यातायात बहुत कम विकसित होने की वजह से कभी किसी भी रेलवे स्टेशन जाने का मौका नहीं मिला था. हां अपने हिन्दुस्तान के रेलवे स्टेशन जैसा कुछ दिमाग में आ रहा था और धड़कते दिल के साथ हम लोग अपनी कार से पीटरमरीत्ज़बर्ग के एकदम पास पहुंच गए.

सुषमा स्वराज ने ट्रेन की सवारी की

जोहानसबर्ग में रहते हुए यह एहसास तो हो ही गया था कि इस देश में बहुत कम जगहों पर जनसंख्या का घनत्व है और अधिकांश जगहों पर बहुत कम आबादी देखने को मिलती है. लेकिन पीटरमरीत्ज़बर्ग शहर में थोड़ी आबादी दिख रही थी और हमारे हिन्दुस्तान के किसी कस्बे जैसा ही लग रहा था. शहर के बीच से गुजरते हुए हमें सिर्फ अश्वेत लोग ही दिखाई दे रहे थे और हमारे वाहन चालक ने भी बताया कि यहां श्वेत लोगों की मौजूदगी नहीं के बराबर ही है.

स्टेशन के सामने कार से उतरते समय थोड़ी देर के लिए तो हम लोग समय के बहुत पीछे के हिस्से में चले गए और अपने आप को उस काल में महसूस करते रहे. लेकिन थोड़ी देर बाद जब स्टेशन को ध्यान से देखना शुरू किया तो लगा कि किसी ऐसे स्टेशन पर आ गए हैं जो या तो बंद होने वाला है या बंद हो चुका है. कहां हिन्दुस्तान का कोई भी रेलवे स्टेशन, जहां हर तरफ इंसानों की भीड़ और शोर ही शोर, और कहां यह ऐतिहासिक स्टेशन जहां शायद ही कोई इंसान दिखाई पड़ रहा था. एकदम से इसे जज्ब कार पाना हमारे लिए बहुत मुश्किल हो रहा था. और उससे भी बड़ी दिक्कत ये कि कोई भी व्यक्ति वहां ऐसा नहीं दिख रहा था जो हमें इस स्टेशन के बारे में बता सके. स्टेशन का रखरखाव भी बेहद ख़राब था और बिलकुल उजाड़ जैसा दिखाई पड़ रहा था.

हम लोगों ने अपने फोन से फोटो लेने शुरू कर दिए और स्टेशन के बाहरी हिस्सा, स्टेशन के बोर्ड, अंदर का हिस्सा सब हमारे फोन में कैद होना शुरू हो गए. कुछ देर तक प्लेटफार्म पर घूमने के बाद एक जगह एक पत्थर मिला जिसपर लिखा हुआ था कि "इसी जगह पर ट्रैन के फर्स्ट क्लास के डब्बे से मोहन दास गांधी को बाहर फेंक दिया गया था". उस पत्थर के पास हम लोग बहुत देर तक खड़े रहे और उस एहसास को महसूस करने की कोशिश करते रहे जो 125 साल पहले उस रात को मोहनदास गांधी को हुआ होगा.

यहीं पर मोहनदास को ट्रेन से नीचे फेंक दिया गया था

पूरा स्टेशन सुनसान था, वहां पर ऑफिसनुमा एक कमरे में बैठे एक स्थानीय कर्मचारी से बात करने पर पता चला कि यहां से बहुत कम गाड़ियां चलती हैं. शायद दिन में दो या तीन ही. एक ट्रेन जोहानसबर्ग से डरबन जाती है जो यहां रूकती है और कुछ और ट्रेनें यहां आती जाती हैं. सवारियां भी सिर्फ स्थानीय अश्वेत लोग ही होते हैं और शायद ही कोई श्वेत या विदेशी नागरिक यहां से ट्रेन पकड़ता है. कुल मिलाकर स्टेशन को देखकर बहुत निराशा हुई और कहीं न कहीं मन में यह ख्याल भी आया कि इस ऐतिहासिक स्टेशन की देखरेख और इसके विकास का कार्य हिन्दुस्तान के द्वारा किया जाना चाहिए.

यहीं से मोहनदास के महात्मा बनने की शुरुआत हुई

2016 की अपनी दूसरी यात्रा में यहां काफी फ़र्क़ नजर आने लगा, जिसकी वजह प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की पीटरमरीत्ज़बर्ग की यात्रा थी. उस स्टेशन पर महात्मा गांधी की कोई भी प्रतिमा मौजूद नहीं थी, ये देखकर बड़ा दुख हुआ था. लेकिन जब वाहन चालक ने बताया कि स्टेशन से करीब एक किलोमीटर की दूरी पर गांधीजी की एक प्रतिमा स्थित है तो हम लोग बहुत उत्साह से उसे देखने पहुंचे. उस आदमकद प्रतिमा को देखने के बाद, स्टेशन देखने के बाद हुआ दुःख काफी हद तक हल्का हुआ और हम लोग कदाचित संतुष्ट होकर पीटरमरीत्ज़बर्ग से डरबन की तरफ बढे.

लेकिन एक बार फिर दिमाग में यह सवाल कुलबुलाने लगा कि अगर 125 साल पहले भी यही स्थिति रही होती कि इस स्टेशन से कोई श्वेत या विदेशी जिसमें भारतीय भी शामिल होते, ट्रेन नहीं पकड़ता तो क्या वह ऐतिहासिक घटना घटती जिसने मोहन दास को महात्मा गांधी बनाने में पहली सीढ़ी के रुप में काम किया था. खैर इस जगह को अब "सत्याग्रह के जन्म स्थल" के रूप में भी याद किया जाने लगा है. इसके बोर्ड यहां के एक कमरे में हमने फरवरी 2017 में अपनी तीसरी यात्रा के दौरान देखा.

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इस लेख में लेखक ने अपने निजी विचार व्यक्त किए हैं. ये जरूरी नहीं कि आईचौक.इन या इंडिया टुडे ग्रुप उनसे सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ लेखक ही जिम्मेदार है.

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