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बाबरी मस्जिद या राम मंदिर का जो भी हो पर कोर्ट को तो बख्शो

    • संतोष चौबे
    • Updated: 30 सितम्बर, 2018 11:35 AM
  • 30 सितम्बर, 2018 11:35 AM
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सर्वोच्च न्यायलय की तीन सदस्यीय खंडपीठ ने मेजोरिटी से फैसला सुनाते हुए केस को सात सदस्यीय बेंच को भेजने से इंकार कर दिया और कहा कि 29 अक्टूबर से अयोध्या के मुख्य मामले की सुनवाई शुरू होगी जो सात वर्षों से लंबित है.

एक महत्वपूर्ण फैसले में सर्वोच्च न्यायलय ने 1994 के अपने एक महत्वपूर्ण निर्णय को बरक़रार रखा है जिसमें कोर्ट की पांच सदस्यों की खंडपीठ ने कहा था कि मस्जिद इस्लाम का अविभाज्य हिस्सा नहीं है और नमाज़ कहीं भी की जा सकती है. इससे सरकार का उस जमीन पर कब्ज़ा बरक़रार रह गया था जिसपर कभी बाबरी मस्जिद हुआ करती थी और जिसे 1992 में गिरा दिया गया था.

सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि सभी धर्म, सभी मस्जिद, सभी मंदिर और चर्च एक सामान हैं और हमने पहले ही आदेश दे दिया है कि सभी धार्मिक स्थान जरूरत पड़ने पर अधिगृहित किये जा सकते हैं और 1994 का निर्णय भी उसी अनुसार लिया गया था.

तीन सदस्यीय खंडपीठ ने केस को सात सदस्यीय बेंच को भेजने से इंकार कर दिया

1994 का फैसला भी सर्वोच्च न्यायालय ने 3-2 की मेजोरिटी से दिया था जिसमें उसने इस्माइल फारुकी के पिटिशन का जवाब देते हुए कहा था कि संविधान के आर्टिकल 25 और 26 के अनुसार हमें धार्मिक अधिकार दिए गए हैं लेकिन उसका मतलब जमीन पर मालिकाना हक़ से नहीं है. पिटिशन ने अयोध्या एक्ट 1993 को चुनौती दी थी जिसके अंतर्गत केंद्र सरकार ने ढहाई गयी बाबरी मस्जिद और उसके आस-पास की 67.7 एकड़ जमीन का अधिग्रहण कर लिया था. कोर्ट के अनुसार ये जमीन का मसला था और उसी पर सुनवाई हुई थी.

सर्वोच्च न्यायलय की तीन सदस्यीय खंडपीठ ने मेजोरिटी से फैसला सुनाते हुए केस को सात सदस्यीय बेंच को भेजने से इंकार कर दिया और कहा कि 29 अक्टूबर से अयोध्या के मुख्य मामले की सुनवाई शुरू होगी जो सात वर्षों से लंबित है.

2010 में फैसला देते हुए इलाहबाद हाई कोर्ट ने अयोध्या में विवादित जमीन को तीन भागों में बांट दिया था - रामलला को, निर्मोही अखाड़े को और वक़्फ़ बोर्ड को. इसके खिलाफ अखिल भारतीय हिन्दू महासभा और वक़्फ़ बोर्ड ने सर्वोच्च न्यायलय में अपील...

एक महत्वपूर्ण फैसले में सर्वोच्च न्यायलय ने 1994 के अपने एक महत्वपूर्ण निर्णय को बरक़रार रखा है जिसमें कोर्ट की पांच सदस्यों की खंडपीठ ने कहा था कि मस्जिद इस्लाम का अविभाज्य हिस्सा नहीं है और नमाज़ कहीं भी की जा सकती है. इससे सरकार का उस जमीन पर कब्ज़ा बरक़रार रह गया था जिसपर कभी बाबरी मस्जिद हुआ करती थी और जिसे 1992 में गिरा दिया गया था.

सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि सभी धर्म, सभी मस्जिद, सभी मंदिर और चर्च एक सामान हैं और हमने पहले ही आदेश दे दिया है कि सभी धार्मिक स्थान जरूरत पड़ने पर अधिगृहित किये जा सकते हैं और 1994 का निर्णय भी उसी अनुसार लिया गया था.

तीन सदस्यीय खंडपीठ ने केस को सात सदस्यीय बेंच को भेजने से इंकार कर दिया

1994 का फैसला भी सर्वोच्च न्यायालय ने 3-2 की मेजोरिटी से दिया था जिसमें उसने इस्माइल फारुकी के पिटिशन का जवाब देते हुए कहा था कि संविधान के आर्टिकल 25 और 26 के अनुसार हमें धार्मिक अधिकार दिए गए हैं लेकिन उसका मतलब जमीन पर मालिकाना हक़ से नहीं है. पिटिशन ने अयोध्या एक्ट 1993 को चुनौती दी थी जिसके अंतर्गत केंद्र सरकार ने ढहाई गयी बाबरी मस्जिद और उसके आस-पास की 67.7 एकड़ जमीन का अधिग्रहण कर लिया था. कोर्ट के अनुसार ये जमीन का मसला था और उसी पर सुनवाई हुई थी.

सर्वोच्च न्यायलय की तीन सदस्यीय खंडपीठ ने मेजोरिटी से फैसला सुनाते हुए केस को सात सदस्यीय बेंच को भेजने से इंकार कर दिया और कहा कि 29 अक्टूबर से अयोध्या के मुख्य मामले की सुनवाई शुरू होगी जो सात वर्षों से लंबित है.

2010 में फैसला देते हुए इलाहबाद हाई कोर्ट ने अयोध्या में विवादित जमीन को तीन भागों में बांट दिया था - रामलला को, निर्मोही अखाड़े को और वक़्फ़ बोर्ड को. इसके खिलाफ अखिल भारतीय हिन्दू महासभा और वक़्फ़ बोर्ड ने सर्वोच्च न्यायलय में अपील दाखिल की थी और सर्वोच्च न्यायालय ने इसपर रोक लगा दी थी. और अब उस मुख्य मामले पर सुनवाई शुरू होगी और बहुत लोग तो ये कह रहे हैं कि अब राम मंदिर जल्दी ही बन जाएगा.

लेकिन क्या राम मंदिर ही बनेगा, क्या सर्वोच्च न्यायालय मस्जिद के पक्ष में फैसला नहीं दे सकती है? क्या सर्वोच्च न्यायालय का फैसला बाबरी मस्जिद-राम जन्मभूमि विवाद का अंतिम हल होगा?

हम कह नहीं सकते क्योंकि ये धर्म का मामला है और हिन्दू, मुस्लिम दोनों अपनी बातों पर अडिग हैं.

सुप्रीम कोर्ट को तो जमीन विवाद पर फैसला करना है और हमें उसे करने देना चाहिए. कोर्ट आंकड़ों और कानून के अनुसार चलती है और धार्मिक और पोलिटिकल मुद्दों पर उसे नहीं खींचना चाहिए. बाबरी मस्जिद-राम जन्मभूमि विवाद का अंतिम फैसला धार्मिक और राजनितिक ही हो सकता है.  

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इस लेख में लेखक ने अपने निजी विचार व्यक्त किए हैं. ये जरूरी नहीं कि आईचौक.इन या इंडिया टुडे ग्रुप उनसे सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ लेखक ही जिम्मेदार है.

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