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क्‍यों न इस बच्‍ची की मौत पर राष्‍ट्रीय शोक मनाया जाए!

    • पारुल चंद्रा
    • Updated: 23 नवम्बर, 2018 12:33 PM
  • 22 नवम्बर, 2018 04:55 PM
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पीरियड का दर्द तो हर बच्ची झेल ही लेती है, लेकिन पीरियड के दौरान हो रहे अमानवीय व्यवहार से अगर किसी बच्ची की जान चली जाए तो उसे मौत नहीं हत्या कहा जाएगा.

गाजा तूफान से जूझ रहे तमिलनाडु में तंजौर (Thanjavur) जिले की 14 वर्षीय लड़की एक अलग ही प्रताड़ना सह रही थी. उसके लिए घर के दरवाजे बंद कर दिए गए थे. क्योंकि उसे पीरियड हो रहे थे. उसे 'अपवित्र' मानकर घर से बाहर बनी एक झोपड़ी में रहने को मजबूर कर दिया गया था. वह उस शारीरिक और मानसिक कष्‍ट से उबर पाती, उससे पहले ही प्रकृति ने एक वार और किया. तेज हवाओं की वजह से एक नारियल का पेड़ उसी झोपड़ी पर गिर गया, जिसमें वह बच्‍ची रह रही थी. बच्ची की मौत हो जाती है. बताया गया कि बच्ची की मां भी हादसे के वक्‍त झोपड़ी में मौजूद थी, क्योंकि बच्ची को पहली बार पीरियड आए थे. पेड़ गिरने से मां को भी चोट आई है.

बच्ची को घर से बाहर बनी झोपड़ी में रहना पड़ा था

बच्ची की मौत चिंता का विषय नहीं, चिंताजनक है वो जिंदगी

हां, आप इसे दुर्घटना कह सकते हैं, लड़की के घरवाले भी यही कह रहे होंगे, लेकिन मेरी नजर में ये मौत नहीं हत्या है. और इसके जिम्मेदार इस प्रथा को कट्टरता की हद तक निभाने वाले लोग हैं. इस घटना का जिम्मेदारी लड़की के माता-पिता को ठहराकर हम बच नहीं सकते क्योंकि ये जिम्मेदारी समाज की है, जो ये मानता है कि लड़की को जब माहवारी होती है तो वो अपवित्र होती हैं इसलिए उन्हें घर परिवार से दूर कर दिया जाता है जिससे उनकी अपवित्रता से घर-परिवार अपवित्र न हो जाए. फिर चाहे आंधी आए या तूफान लेकिन परंपरा पर आंच न आए. करूर में तो एक गांव ऐसा भी है जो ऐसे दिनों में लड़कियों को किसी दूसरे ही स्थान पर भेज देता है, यानी घर के बाहर ही नहीं, गांव से भी बाहर. एक गांव के बाहर तो एक इमारत भी बनी है जहां पीरियड के दौरान महिलाएं आकर रहती हैं.

अभी तक तो हम सिर्फ नेपाल में चल रही

गाजा तूफान से जूझ रहे तमिलनाडु में तंजौर (Thanjavur) जिले की 14 वर्षीय लड़की एक अलग ही प्रताड़ना सह रही थी. उसके लिए घर के दरवाजे बंद कर दिए गए थे. क्योंकि उसे पीरियड हो रहे थे. उसे 'अपवित्र' मानकर घर से बाहर बनी एक झोपड़ी में रहने को मजबूर कर दिया गया था. वह उस शारीरिक और मानसिक कष्‍ट से उबर पाती, उससे पहले ही प्रकृति ने एक वार और किया. तेज हवाओं की वजह से एक नारियल का पेड़ उसी झोपड़ी पर गिर गया, जिसमें वह बच्‍ची रह रही थी. बच्ची की मौत हो जाती है. बताया गया कि बच्ची की मां भी हादसे के वक्‍त झोपड़ी में मौजूद थी, क्योंकि बच्ची को पहली बार पीरियड आए थे. पेड़ गिरने से मां को भी चोट आई है.

बच्ची को घर से बाहर बनी झोपड़ी में रहना पड़ा था

बच्ची की मौत चिंता का विषय नहीं, चिंताजनक है वो जिंदगी

हां, आप इसे दुर्घटना कह सकते हैं, लड़की के घरवाले भी यही कह रहे होंगे, लेकिन मेरी नजर में ये मौत नहीं हत्या है. और इसके जिम्मेदार इस प्रथा को कट्टरता की हद तक निभाने वाले लोग हैं. इस घटना का जिम्मेदारी लड़की के माता-पिता को ठहराकर हम बच नहीं सकते क्योंकि ये जिम्मेदारी समाज की है, जो ये मानता है कि लड़की को जब माहवारी होती है तो वो अपवित्र होती हैं इसलिए उन्हें घर परिवार से दूर कर दिया जाता है जिससे उनकी अपवित्रता से घर-परिवार अपवित्र न हो जाए. फिर चाहे आंधी आए या तूफान लेकिन परंपरा पर आंच न आए. करूर में तो एक गांव ऐसा भी है जो ऐसे दिनों में लड़कियों को किसी दूसरे ही स्थान पर भेज देता है, यानी घर के बाहर ही नहीं, गांव से भी बाहर. एक गांव के बाहर तो एक इमारत भी बनी है जहां पीरियड के दौरान महिलाएं आकर रहती हैं.

अभी तक तो हम सिर्फ नेपाल में चल रही छावपड़ी प्रथा की आलोचनाएं कर रहे थे, जो घोर अमानवीय है. वहां भी महिलाओं और बच्चियों को उन दिनों में घर से बाहर कर दिया जाता था. महीने के वो दिन महिलाएं और बच्चियां छोटी-छोटी झोपड़ियों में बिताती थीं. लेकिन हम किसी दूसरे देश या समाज की आलोचनाएं तब तक नहीं कर सकते जबतक कि हम पाक-साफ न हों. हमारा समाज खुद परंपराओं के नाम पर महिलाओं के साथ हो रही अमानवीयता को ढो रहा है. और बेशर्मी इतनी कि इसे नाम दिया जा रहा है आस्था का, परंपरा का.

नेपाल को क्यों कोसना जब भारत में भी वही हो रहा है

भारत से तो नेपाल भला, पीरियड के दौरान होने वाला भेदभाव अब अपराध है

हमसे अच्छे तो ये नेपाली हैं. जब इसी प्रथा के चलते दो बच्चियों की मौत हो गई, एक को बाहर सांप ने काट लिया और दूसरी का दम गोठ (वो स्थान जहां महिलाएं रहने को मजबूर थीं) में घुट गया, तो नेपाल सरकार ने एक क्रांतिकारी फैसला लेते हुए एक कानून बनाया जिसके तहत छाउपड़ी प्रथा को आपराध माना गया. पीरियड के दौरान महिलाओं के साथ अगर किसी को भी इस तरह का व्यवहार करते पाया जाता है तो उसे 3 महीने की जेल और 3000 नेपाली रुपए जुर्माने के तौर पर देने होते हैं. यहां तक कि महिलाएं अब खुद पर हो रहे इस अमानवीय व्यवहार के लिए पुलिस में रिपोर्ट भी दर्ज करा सकती हैं.

लेकिन भारत में, यहां तो महिलाएं खुद बवाल मचा रही हैं कि 10 से 50 तक मंदिर नहीं जाएंगी, क्योंकि अपवित्र होती हैं. और ऐसा मानने में इन्हें कोई परेशानी भी नहीं है. to hell with science and education क्योंकि सबसे बड़ा धर्म है, जिसने यही बताया है कि पीरियड में महिला अपवित्र होती है. फिर चाहे कितनी ही क्रूरता कर दी जाए, किसी की जान क्यों न चली जाए, लेकिन हम नहीं सुधरने वाले. अब ऐसे देश में इन कुप्रथाओं को लेकर कानून बनाया भी जाए तो कैसे? कानून ने बराबरी का आधिकार दिया है, उसी ने मंदिर के दरवाजे भी खोले हैं. लेकिन अक्ल पर पड़े ताले तो महिलाओं को खुद ही खोलने होंगे. 

आस्‍था को आड़े लाकर हम मूल सवाल से भटक गए

हमारा समाज इतना धार्मिक है कि धर्म को कट्टरता की हद तक निभाता है, मरने-मारने पर उतारू हो जाता है. सबरीमला मंदिर मामले में जो कुछ भी हुआ वो इसी का एक उदाहरण है. इसे आस्था का विषय कहकर मामले को बेहद माइल्ड कर दिया जाता है और बहुत सफाई से इसकी गंभीरता खत्म हो जाती है. आज सबरीमला पर सब आस्था और परंपरा का रोना रो रहे हैं लेकिन जिस कारण से महिलाओं का प्रवेश प्रतिबंधित था, उसे सिरे से दरकिनार कर दिया गया. वो वजह जिसपर इस मंदिर की परंपरा या आस्था टिकी हुई है वो वजह सिर्फ और सिर्फ महिला का अपवित्र होना है, भगवान अय्यप्पा के ब्रह्मचारी होने का इससे कोई लेना देना नहीं. पीरियड के दौरान महिला अपवित्र होती है बस !

यूं तो समाज बच्चियों के साथ होने वाली अमानवीयता के खिलाफ बहुत संवेदनाएं दिखाता है. लेकिन तब किसी का दिल नहीं पसीजता जब अपने ही घरों में छोटी-छोटी बच्चियों के साथ पीरियड के दौरान नाइंसाफी की जाती है. हो सकता है उसमें उन्हें कुछ भी गलत न लगे, वो आस्था का सवाल हो, लेकिन जब इस कट्टरता की वजह से किसी बच्ची की मौत हो जाए तो इसपर सवाल करना जरूरी हो जाता है.

हम अपनी आने वाली पीढ़ी को संस्कारों के नाम पर सिर्फ यही देकर जाने वाले हैं कि पीरियड में लड़की अपवित्र हो जाती है, ऐसे में मंदिर नहीं जाना चाहिए, पूजा पाठ नहीं करनी चाहिए, रसोई में नहीं जाना चाहिए, बिस्तर पर नहीं बैठना चाहिए-नीचे चटाई पर सोना चाहिए, खाने के बर्तन भी अलग हों, किसी को छूना नहीं है खासकर अचार को क्योंकि वो खराब हो जाएगा, ध्यान रहे परछाईं भी किसी पर न पड़े नहीं तो धर्म भ्रष्ट हो जाएगा. समाज की व्यवस्था है ये कि यहां बच्चियों और महिलाओं का बलात्कार करने वाला पवित्र कहलाता है लेकिन जो अपवित्र होती है वो सिर्फ महिला ही होती है. पीरियड का दर्द तो हर बच्ची झेल ही लेती है, लेकिन पीरियड के दौरान हो रहे अमानवीय व्यवहार से अगर किसी बच्ची की जान चली जाए तो उसे मौत नहीं हत्या कहा जाएगा. और इसका जिम्मेदार हमारा समाज होगा. घर में बैठकर महिलाओं के साथ हो रहे अमानवीय व्यवहार पर भाषण देना बंद करके अपने घर की महिलाओं पर ही अगर थोड़ा सा ध्यान दे दिया जाए तो देश का भला हो जाएगा.

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इस लेख में लेखक ने अपने निजी विचार व्यक्त किए हैं. ये जरूरी नहीं कि आईचौक.इन या इंडिया टुडे ग्रुप उनसे सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ लेखक ही जिम्मेदार है.

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