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समाज

भेदभाव की वजह किसी का दलित, आदिवासी, महिला या हिंदू-मुस्लिम होना है ही नहीं

    • prakash kumar jain
    • Updated: 07 सितम्बर, 2022 04:48 PM
  • 07 सितम्बर, 2022 04:48 PM
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पूर्व आईएएस की पत्नी और झारखंड की बीजेपी नेता सीमा पात्रा ने अपने रुतबे का परिचय देते हुए, जो कुछ भी अपने घर में काम करने वाली हाउस हेल्प सुनीता के साथ किया. उसका कारण बस रुतबे का दुरूपयोग है. रुतबा कोई छांट कर नहीं झाड़ा जाता कि सामने वाला दलित है, आदिवासी है या महिला है या फिर हिंदू रसूखदार के सामने मुस्लिम मातहत है या मुस्लिम रसूखदार का मातहत हिंदू है.

एक पूर्व आईएएस की पत्नी और झारखंड की बीजेपी नेता सीमा पात्रा अपनी आदिवासी हाउस हेल्प सुनीता को, सालों तक टॉर्चर कर सकती थी? कहा जाता है वह उसे रॉड से मारती थी, उसके दांत तोड़ दिए, और भी ना जाने क्या क्या ? मानसिक और शारीरिक तौर पर उस मेड सुनीता खाखा को एकदम तोड़ कर रख दिया. निःसंदेह कोई भी पोजीशन किसी को भी किसी और इंसान को इस तरह से टॉर्चर करने का अधिकार नहीं देता. जिन अत्याचारों को लिखते-पढ़ते भी हाथ कांप जाएं, उन्हें सुनीता ने बार-बार सहन किया है. सीमा पात्रा अक्सर इस तरह की मारपीट करती थी और कई बार उनका बेटा ही उन्हें ऐसा करने से रोकता था. उनके बेटे के दोस्त की पहल पर ही रांची पुलिस ने सुनीता खाखा को सीमा पात्रा के घर से छुड़ाया और रिम्स में भर्ती कराया.  यदि सुनीता का आदिवासी होना ही उसकी नियति थी तो पात्रा के खुद के बेटे ने एतराज न किया होता और ना ही उसके मित्र ने पहल ही की होती.  डोमेस्टीक हेल्प आदिवासी महिला न होकर कोई और भी होती, यहां तक कि उच्च जाति की हो होती, सीमा पात्रा का रवैया जुदा न होता और उसे भी यही सब कुछ भुगतना पड़ता.

पूर्व आईएएस की पत्नी और झारखंड की बीजेपी नेता सीमा पात्रा ने जो अपनी कामवाली के साथ किया है वो किसी के निष्ठुर होने की पराकाष्ठा है

इस तरह के अपराध की असल वजह है अपराधी का रुतबा, उसका रसूखदार होना. चूंकि विशेषाधिकार है जताने का कि 'तू जानता नहीं, मैं कौन हूं? 'मैं श्रेष्ठ हूं' का अहंकार ही समस्या है. वो समय चला गया जब 'ढोल गंवार शूद्र पशु नारी, ये सब ताड़न के अधिकारी' चलता था. और रुतबा कोई छांट कर नहीं झाड़ा जाता कि सामने वाला दलित है, आदिवासी है या महिला है या फिर हिंदू रसूखदार के सामने मुस्लिम मातहत है या मुस्लिम रसूखदार के मातहत हिंदू. सो बात है रुतबे के दुरुपयोग की. नशे के मानिंद...

एक पूर्व आईएएस की पत्नी और झारखंड की बीजेपी नेता सीमा पात्रा अपनी आदिवासी हाउस हेल्प सुनीता को, सालों तक टॉर्चर कर सकती थी? कहा जाता है वह उसे रॉड से मारती थी, उसके दांत तोड़ दिए, और भी ना जाने क्या क्या ? मानसिक और शारीरिक तौर पर उस मेड सुनीता खाखा को एकदम तोड़ कर रख दिया. निःसंदेह कोई भी पोजीशन किसी को भी किसी और इंसान को इस तरह से टॉर्चर करने का अधिकार नहीं देता. जिन अत्याचारों को लिखते-पढ़ते भी हाथ कांप जाएं, उन्हें सुनीता ने बार-बार सहन किया है. सीमा पात्रा अक्सर इस तरह की मारपीट करती थी और कई बार उनका बेटा ही उन्हें ऐसा करने से रोकता था. उनके बेटे के दोस्त की पहल पर ही रांची पुलिस ने सुनीता खाखा को सीमा पात्रा के घर से छुड़ाया और रिम्स में भर्ती कराया.  यदि सुनीता का आदिवासी होना ही उसकी नियति थी तो पात्रा के खुद के बेटे ने एतराज न किया होता और ना ही उसके मित्र ने पहल ही की होती.  डोमेस्टीक हेल्प आदिवासी महिला न होकर कोई और भी होती, यहां तक कि उच्च जाति की हो होती, सीमा पात्रा का रवैया जुदा न होता और उसे भी यही सब कुछ भुगतना पड़ता.

पूर्व आईएएस की पत्नी और झारखंड की बीजेपी नेता सीमा पात्रा ने जो अपनी कामवाली के साथ किया है वो किसी के निष्ठुर होने की पराकाष्ठा है

इस तरह के अपराध की असल वजह है अपराधी का रुतबा, उसका रसूखदार होना. चूंकि विशेषाधिकार है जताने का कि 'तू जानता नहीं, मैं कौन हूं? 'मैं श्रेष्ठ हूं' का अहंकार ही समस्या है. वो समय चला गया जब 'ढोल गंवार शूद्र पशु नारी, ये सब ताड़न के अधिकारी' चलता था. और रुतबा कोई छांट कर नहीं झाड़ा जाता कि सामने वाला दलित है, आदिवासी है या महिला है या फिर हिंदू रसूखदार के सामने मुस्लिम मातहत है या मुस्लिम रसूखदार के मातहत हिंदू. सो बात है रुतबे के दुरुपयोग की. नशे के मानिंद ही रुतबा सर चढ़कर बोलता है.

हां, कह सकते हैं कि सुनीता मान बैठी थी कि वो बेचारी आदिवासी है, अत्याचार सहना उसकी नियति है. ठीक वैसे ही जैसे पंजाब की 'आप' पार्टी की पढ़ी लिखी एमफिल महिला विधायिका बलजिंदर कौर नियति समझ बैठी है कि पति सुखराज सिंह उसे थप्पड़ मार सकता है क्योंकि वह उसका पति है. 'बात सिर्फ एक थप्पड़ की नहीं हैं, नहीं मार सकता' तभी हो पायेगा जब महिलायें 'नियति' के मोहजाल से बाहर निकलेंगी.  वरना तो पितृसत्तात्मकता कहो या मेल प्रिविलेज, बदस्तूर लागू है ही श्रद्धेय 'तुलसीदास' जी की कृपा से.

धर्मगुरुओं के वेश में कतिपय पाखंडियों ने क्या दलित, आदिवासी या हिंदू मुस्लिम देखकर दुष्कर्म किया था? विक्टिम शायद ही कोई आदिवासी या दलित या अन्यथा किसी नीची जात से थी. आशाराम बापू हो या राम रहीम या नित्यानंद, भक्तों ने श्रद्धा रूपी विशेषाधिकार दे रखा था इनको सदुपयोग के लिए. और इन पाखंडी श्रेष्ठ जनों ने दुरूपयोग किया.  नित दिन सुर्खियां पाती हैं दुर्व्यवहार की, दुष्कर्म की और शोषण की घटनायें और बहुत आसान होता है वर्गीकरण करना मसलन दलित अपराध, महिला अपराध, आदिवासी अपराध और तदनुसार पुलिस थाने भी हैं मसलन दलित थाना , महिला थाना या फिर आदिवासी थाना.

हर घटना की तह में जाएं तो अधिकतर अपराधी किसी न किसी प्रकार से प्रिविलेज्ड है, मेल प्रिविलेज मसलन मर्द होने के भाव के तहत ही महिला अपराध होते हैं. लेकिन लोगों को पीड़िता का दलित होना या आदिवासी होना पहले नजर आता है. फिर इस मेल प्रिविलेज की डिग्री को कंट्रीब्यूट करते हैं दीगर कारक मसलन मास्टर सर्वेंट रिलेशनशिप, सीनियर-जूनियर, टीचर-स्टूडेंट आदि.

निःसंदेह एक सामाजिक संरचना में तमाम रिलेशनशिप का होना जरूरी है लेकिन इनका दुरुपयोग ही रुतबे या प्रिविलेज को कर्रप्ट करता है और तब किसी 'निरीह' के साथ अपराध घटता हैं बिना किसी 'भेदभाव' के. अंकिता को बिसरा भी नहीं पाए थे कि कल ही दुमका के एक इलाके में आदिवासी समुदाय की नाबालिग का पेड़ से लटका हुआ शव मिला है. पुलिस ने इस मामले में अरमान अंसारी को गिरफ्तार किया है. लड़की डोमेस्टिक हेल्प थी.

आसान है कहना कि एक मुसलमान युवक ने आदिवासी लड़की के साथ दुष्कर्म कर ह्त्या कर दी.  लेकिन रुतबे वाला एंगल आसानी से नजर नहीं आता.  एक दल विशेष की सरकार एक ख़ास संप्रदाय के लोगों को तरजीह देती है हर बात में और इसी से 'वह' विशेषाधिकार प्राप्त कर लेता है. और 'निरीह' का आदिवासी होना तो मात्र एक संयोग ही है चूंकि अधिकतर डोमेस्टिक हेल्प आदिवासी जो है वहां.

इस प्रिविलेज के वजह से ही गुड़गांव के व्यापारी वरुण नाथ ने एक सिक्योरिटी गार्ड और एक लिफ्ट ऑपरेटर को बार-बार थप्पड़ मारा, उसे गालियां दीं क्योंकि वो लिफ्ट में 3-4 मिनट के लिए फंसे हुए थे. उन्होंने उन्हीं लोगों को मारा, जिन्होंने उनकी मदद की थी. और प्रिविलेज का ही क़िस्सा था जब नोएडा की एक वकील भव्या राय ने सिक्योरिटी गार्ड करण चौधरी से गाली-गलौज की, क्योंकि उसने उनकी गाड़ी के लिए सोसाइटी का गेट देर से खोला.

सवाल फिर वही है क्या प्रिविलेज या रुतबा किसी को यह हक देता है? हरगिज़ नहीं लेकिन क्या करें उस 'जताने' वाले कीड़े का ? सो एक नहीं अनेकों प्रिविलेज्ड क्लास हैं समाज में. हों भी क्यों ना जब बढ़ावा मिलता है बैंकों के 'प्रिविलेज्ड' कस्टमर होते हैं, और तो और हवाई यात्रियों में भी भेद कर दिया 'प्रिविलेज्ड' लाउंज बना दिए.  एक क्लास है नेताओं और उनके रिश्तेदारों की, बिजनेस क्लास है, ब्यूरोक्रेट्स की क्लास है, सेलिब्रिटी क्लास भी है.

जब प्रिविलेज्ड क्लास हैं तो उनका रुतबा बोलता है, बोलने में हाथ या जुबान भी चल जाती है जिसकी जद में कोई तो आएगा ही और वह 'कोई' डोमेस्टिक हेल्प, ड्राइवर, गार्ड, वेटर आदि सरीखा मातहत ही होगा, कोई सीनियर या सुपीरियर तो होगा नहीं. कह सकते हैं कि क्लास क्यों नहीं 'सुपर' क्लास का शिकार होती ? डिग्री अपना रोल निभाती है यहां. उन्नीस बीस वाली जो बात होती है, कहीं उल्टा ना पड़ जाए. फिर भी अपवाद स्वरूप कुछ मामले प्रकाश में आते भी हैं तो यूं  बिसरा दिए जाते हैं जैसे कुछ हुआ ही नहीं था.

पूरा सेट गेम ही समझो.  हर घटना में प्रिविलेज का एलिमेंट मिल जाएगा. यदि महिला के दलित होने, आदिवासी होने या हिंदू मुस्लिम होने से ऊपर उठकर देखने का समझने का प्रयास करें तो. असंख्य मामले हैं जिनमें महिला विक्टिम इस वजह से नहीं है कि वह दलित, आदिवासी या हिंदू मुस्लिम है. लेकिन किसी की मातहत है या फिर शिकार हुई हैं चूंकि अपराधी रसूख वाला है, रुतबा रखता है, नियम कायदे कानून को पैर की जूती समझता है.

अंततः और कुछ नहीं तो संदेह का लाभ मिल ही जाता है इस बिना पर कि वह तो इलीट क्लास का है. कहते हैं फ़िल्में समाज का दर्पण होती हैं, फिल्मकार को कहानी के लिए प्रेरणा समाज से ही मिलती है. कल ही 'खुदा हाफ़िज़ चैप्टर 2' रिलीज़ हुई है. लड़कों ने वीभत्स कांड कर दिया क्योंकि उनका लीडर रसूखदार परिवार से ताल्लुक रखता था. दरअसल यही कटु सच्चाई है समाज की.

हिन्दुस्तान रोज हारता है, बात इंडिया और पाकिस्तान के मैच की नहीं है. ये महान देश जिसकी डेमोक्रेसी और संस्कृति विश्व भर में प्रसिद्ध हैं; लेकिन क्या हम अब भी महान देश हैं, शायद कभी हुआ करते थे महान देश, महान लोग भी. कहां  खो गयी वो सभ्यता, वो बड़े बुजुर्ग जो सिखाया करते थे वो तबियत, वो अदब, वो एतराम , वो रामराज्य जब औरतें , बुजुर्ग और बच्चे सब सुरक्षित हुआ करते थे.

आज जरूरत कल्चर बदलने की है; दिखावे के लिए कन्यायें पूजी जाती हैं, देवियां पूजी जाती हैं. नहीं तो हर वह वल्नरेबल है जो मातहत है, अधीन है. मुश्किल है लेकिन तब और ज्यादा मुश्किल है जब विक्टिम नियति मान लेता है कि वह दलित है, आदिवासी है, शूद्र है, दबा कुचला है.  प्रिविलेज्ड क्लास भी शायद तौबा कर ले यदि मातहत शोषण को बर्दाश्त ना करें, वे हिम्मत दिखाएं रिपोर्ट करने की, साथ ही इस मानसिकता से भी बाहर निकलें कि उसके साथ हुआ है, मैं क्यों बोलूं.

इस लेख में लेखक ने अपने निजी विचार व्यक्त किए हैं. ये जरूरी नहीं कि आईचौक.इन या इंडिया टुडे ग्रुप उनसे सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ लेखक ही जिम्मेदार है.

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