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सैनिटरी नैपकिन की कहानी सिर्फ पैडमैन तक ही सीमित नहीं, एक फिल्म इस पहलू पर भी बननी चाहिए..

    • अमित अरोड़ा
    • Updated: 08 फरवरी, 2018 12:02 PM
  • 08 फरवरी, 2018 12:02 PM
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महिला स्वास्थ्य और स्वच्छता एक बहुत महत्वपूर्ण विषय है, परंतु पर्यावरण की रक्षा भी अनिवार्य है. ऐसे में व्यावसायिक रूप से तैयार किए जाने वाले सैनिटरी नैपकिनों की जगह पर्यावरण के अनुकूल, बायो-डिग्रेडेबल सैनिटरी नैपकिन के प्रयोग को बढ़ावा देना चाहिए.

इस सप्ताह अक्षय कुमार की फिल्म 'पैडमैन' रिलीज़ हो रही है. 'टॉयलेट - एक प्रेम कथा' के बाद अक्षय कुमार फिर एक सामाजिक विषय को अपनी फिल्म के माध्यम से आम जनता तक पहुंचाना चाहते हैं. इस बात को कोई अस्वीकार नहीं करेगा कि भारत में महिला स्वास्थ्य और स्वच्छता जैसे विषयों को जितना महत्व मिलना चाहिए उतना कभी नहीं मिलता है. यह विषय शर्म और मान्यताओं के कारण कभी देश के मुख्य मुद्दों में शामिल नहीं हो पाया.

गैर सरकारी संस्थानों, राज्य और भारत सरकार के प्रयासों से हालांकि पिछले कुछ सालों में इस विषय में कुछ बदलाव तो आया है. राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वेक्षण (एनएफएचएस) 2015-16 सर्वेक्षण के अनुसार माहवारी के प्रबंधन के लिए स्वच्छ साधनों का प्रयोग करने वाली महिलाओं की संख्या शहरी इलाकों में 78%, ग्रामीण क्षेत्रों में 48% और समग्र रूप से 58% है. आज, भारत में 10 में से लगभग 6 महिलाओं की डिस्पोजेबल सैनिटरी नैपकिन तक पहुंच है. प्रॉक्टर एंड गैंबल, जॉनसन एंड जॉन्सन जैसे बड़े खिलाड़ियों के चमकदार और असरदार विज्ञापनों के बदौलत व्यावसायिक सैनिटरी नैपकिन के उद्योग में बिक्री काफ़ी बढ़ी है. यहां तक की सरकारी संस्थाएं भी आम तौर पर इनके उत्पादों को खरीद लेती हैं. क्योंकि वह बड़ी मात्रा में निर्मित होते हैं और आसानी से उपलब्ध भी होते हैं.

सैनिटरी पैड्स को पर्यावरण के अनूकुल होना जरुरी है

इसका परिणाम यह है कि शहरी नालों, कूड़ाघरों, कूड़े के डंपिंग यॉर्ड और ग्रामीण क्षेत्रों और जल निकायों में हर महीने लाखों गैर-कंपोस्टेबल सैनिटरी नैपकिन उतर रहे हैं. न केवल इन सैनिटरी नैपकिनों को पूरी तरह विघटित होने में सैंकड़ों वर्ष लगते हैं बल्कि विशेष सोखने वाले पॉलिमर के उपयोग के कारण यह सैनिटरी नैपकिन अपने वज़न से तीस गुना द्रव सोख सकते हैं. इसका यह तात्पर्य हुआ कि...

इस सप्ताह अक्षय कुमार की फिल्म 'पैडमैन' रिलीज़ हो रही है. 'टॉयलेट - एक प्रेम कथा' के बाद अक्षय कुमार फिर एक सामाजिक विषय को अपनी फिल्म के माध्यम से आम जनता तक पहुंचाना चाहते हैं. इस बात को कोई अस्वीकार नहीं करेगा कि भारत में महिला स्वास्थ्य और स्वच्छता जैसे विषयों को जितना महत्व मिलना चाहिए उतना कभी नहीं मिलता है. यह विषय शर्म और मान्यताओं के कारण कभी देश के मुख्य मुद्दों में शामिल नहीं हो पाया.

गैर सरकारी संस्थानों, राज्य और भारत सरकार के प्रयासों से हालांकि पिछले कुछ सालों में इस विषय में कुछ बदलाव तो आया है. राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वेक्षण (एनएफएचएस) 2015-16 सर्वेक्षण के अनुसार माहवारी के प्रबंधन के लिए स्वच्छ साधनों का प्रयोग करने वाली महिलाओं की संख्या शहरी इलाकों में 78%, ग्रामीण क्षेत्रों में 48% और समग्र रूप से 58% है. आज, भारत में 10 में से लगभग 6 महिलाओं की डिस्पोजेबल सैनिटरी नैपकिन तक पहुंच है. प्रॉक्टर एंड गैंबल, जॉनसन एंड जॉन्सन जैसे बड़े खिलाड़ियों के चमकदार और असरदार विज्ञापनों के बदौलत व्यावसायिक सैनिटरी नैपकिन के उद्योग में बिक्री काफ़ी बढ़ी है. यहां तक की सरकारी संस्थाएं भी आम तौर पर इनके उत्पादों को खरीद लेती हैं. क्योंकि वह बड़ी मात्रा में निर्मित होते हैं और आसानी से उपलब्ध भी होते हैं.

सैनिटरी पैड्स को पर्यावरण के अनूकुल होना जरुरी है

इसका परिणाम यह है कि शहरी नालों, कूड़ाघरों, कूड़े के डंपिंग यॉर्ड और ग्रामीण क्षेत्रों और जल निकायों में हर महीने लाखों गैर-कंपोस्टेबल सैनिटरी नैपकिन उतर रहे हैं. न केवल इन सैनिटरी नैपकिनों को पूरी तरह विघटित होने में सैंकड़ों वर्ष लगते हैं बल्कि विशेष सोखने वाले पॉलिमर के उपयोग के कारण यह सैनिटरी नैपकिन अपने वज़न से तीस गुना द्रव सोख सकते हैं. इसका यह तात्पर्य हुआ कि यह सैनिटरी नैपकिन जमीन में रहते हैं, विघटित नहीं होते और पानी को चूस कर उसके प्राकृतिक प्रवाह को रोकते हैं.

इस समस्या को हल्के में लेने की भूल नहीं की जानी चाहिए. महिला स्वास्थ्य और स्वच्छता एक बहुत महत्वपूर्ण विषय है, परंतु पर्यावरण की रक्षा भी अनिवार्य है. इस स्थिति में व्यावसायिक रूप से तैयार किए जाने वाले सैनिटरी नैपकिनों की जगह पर्यावरण के अनुकूल, बायो-डिग्रेडेबल सैनिटरी नैपकिन के प्रयोग को बढ़ावा देना चाहिए. वर्तमान में यह बायो-डिग्रेडेबल नैपकिन, व्यावसायिक रूप से उपलब्ध सामान्य सैनिटरी नैपकिन से महंगे हैं. लोग इनके बारे में जागरूक नहीं हैं. ये हर जगह इतनी आसानी से उपलब्ध भी नहीं हैं. लेकिन पर्यावरण की रक्षा के लिए इस समस्या का सामना करना आवश्यक है. हमें उम्मीद करनी चाहिए कि अक्षय कुमार की फिल्म 'पैडमैन' में सैनिटरी नैपकिन से जुड़ें इस पर्यावरण संबंधी ख़तरे के बारे में भी ज़िक्र होगा. तभी यह फिल्म सही मायने में पूर्ण कहलाएगी.

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इस लेख में लेखक ने अपने निजी विचार व्यक्त किए हैं. ये जरूरी नहीं कि आईचौक.इन या इंडिया टुडे ग्रुप उनसे सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ लेखक ही जिम्मेदार है.

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