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कश्मीर में आए दो धोखेबाज शरणार्थी, जिन्होंने सनातन धर्म का नाश कर दिया!

    • आशीष कौल
    • Updated: 14 जुलाई, 2021 06:43 PM
  • 14 जुलाई, 2021 06:40 PM
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आज कश्मीर पर अपना ज्ञान बांचने वाले सिर्फ बिचोलिये हैं इसलिए अब वो समय आ गया है जब कश्मीर के सनातन इतिहास से लेफ्टिस्ट-इस्लामिक मिलावट दूर करनी होगी. जो पिछले एक हजार साल से चले आ रहे सुनियोजित षड्यंत्र का हिस्सा है.

कश्मीर का जिहादीकारण जितना आतंवाद का नतीजा है उससे भी ज़्यादा ज़िम्मेदार है इतिहासकारों का गैर-ज़िम्मेदाराना रवैया. जिनका कुस्तित प्रयास रहा है कश्मीर में इस्लामी आक्रांताओं के हमलों के पहले के संदर्भों को मिटा देना, या उन्हें गलत ढंग से पेश करना. पिछले दिनों 'आईचौक' पर लेख पढ़ा- 'हिंदुओं की कट्टरता ने पैदा की है कश्मीर और पाकिस्तान की समस्या'. कश्मीर की परंपराओं और उसके इतिहास पर काम करते हुए ये कह सकता हूं कि यह लेख भी एक खास विचारधारा से प्रभावित संदर्भों के हवाले से लिखा गया है. 30 साल पहले कश्मीर में जो हुआ उसकी सचाई टेक्नोलॉजिकल अंधकार में दब गई थी, लेकिन अब ऐसा नहीं है. कई रिसर्च और शोध ग्रन्थ अब ऑनलाइन भी उपलब्ध हैं. टेक्नोलॉजी ने इतिहासकारों की दुनिया को एक दूसरे को मात्र एक क्लिक की दूरी पर ला खड़ा कर दिया है.

हमने शोध और इतिहास को समझने के स्वर्णिम युग में कदम रख दिया है. जहां इतिहास के साथ छेड़छाड़ करने की कोशिश को मिनटों में बेनकाब किया जा सकता है. अब आते हैं, कश्मीर के उस अध्याय पर जिसके साथ सबसे ज्यादा भ्रम फैलाया गया. ये कहानी जुड़ी है इतिहास के उस पन्ने की, जहां बौद्ध शरणार्थी रिनचिन का जिक्र आता है. वह एक बौद्ध शहजादा था, जो कश्मीर में कोटा रानी के समय में शरणागत के तौर पर आया था. ये भी एक विडंबना है कि कश्मीर में 2 शैतान रिफ्यूजी बन कर आये और कश्मीर के स्वर्णिम युग का अंत कर दिया. रिनचिन उनमें से एक था. वह मरते दम तक बौद्ध धर्म का उपासक रहा. जबकि भ्रम फैलाने वाले कथित इतिहासकार बिना प्रमाण के यह झूठ फैलाते रहे कि उसने इस्लाम कबूल कर लिया था.

कश्मीर का जिहादीकारण जितना आतंवाद का नतीजा है उससे भी ज़्यादा ज़िम्मेदार है इतिहासकारों का गैर-ज़िम्मेदाराना रवैया. जिनका कुस्तित प्रयास रहा है कश्मीर में इस्लामी आक्रांताओं के हमलों के पहले के संदर्भों को मिटा देना, या उन्हें गलत ढंग से पेश करना. पिछले दिनों 'आईचौक' पर लेख पढ़ा- 'हिंदुओं की कट्टरता ने पैदा की है कश्मीर और पाकिस्तान की समस्या'. कश्मीर की परंपराओं और उसके इतिहास पर काम करते हुए ये कह सकता हूं कि यह लेख भी एक खास विचारधारा से प्रभावित संदर्भों के हवाले से लिखा गया है. 30 साल पहले कश्मीर में जो हुआ उसकी सचाई टेक्नोलॉजिकल अंधकार में दब गई थी, लेकिन अब ऐसा नहीं है. कई रिसर्च और शोध ग्रन्थ अब ऑनलाइन भी उपलब्ध हैं. टेक्नोलॉजी ने इतिहासकारों की दुनिया को एक दूसरे को मात्र एक क्लिक की दूरी पर ला खड़ा कर दिया है.

हमने शोध और इतिहास को समझने के स्वर्णिम युग में कदम रख दिया है. जहां इतिहास के साथ छेड़छाड़ करने की कोशिश को मिनटों में बेनकाब किया जा सकता है. अब आते हैं, कश्मीर के उस अध्याय पर जिसके साथ सबसे ज्यादा भ्रम फैलाया गया. ये कहानी जुड़ी है इतिहास के उस पन्ने की, जहां बौद्ध शरणार्थी रिनचिन का जिक्र आता है. वह एक बौद्ध शहजादा था, जो कश्मीर में कोटा रानी के समय में शरणागत के तौर पर आया था. ये भी एक विडंबना है कि कश्मीर में 2 शैतान रिफ्यूजी बन कर आये और कश्मीर के स्वर्णिम युग का अंत कर दिया. रिनचिन उनमें से एक था. वह मरते दम तक बौद्ध धर्म का उपासक रहा. जबकि भ्रम फैलाने वाले कथित इतिहासकार बिना प्रमाण के यह झूठ फैलाते रहे कि उसने इस्लाम कबूल कर लिया था.

कश्मीर की दुर्दशा की एक बड़ी वजह लेफ्ट और मुस्लिम इतिहासकार भी हैं जिन्होंने हमेशा ही झूठ को प्रचारित और प्रसारित किया 

रिनचिन एक धोखेबाज था जिसने शरण देने वाले कश्मीर के राज घराने की पीठ में खंजर भोंका और ज़बरदस्ती कोटा रानी से शादी की. कोटा रानी ये जुल्म सिर्फ अपने कश्मीर को रक्तपात से बचाने के लिए सहन कर गयी लेकिन उसने रिनचिन को ये समझाया कि एक हिन्दू राष्ट्र में बुद्धिस्ट राजा कामयाब नहीं होगा. प्रजा का समर्पण तथा प्यार पाने के लिए उसे सनातन धर्म अपनाना चाहिए. रिनचिन ये बात समझ गया था कि राजा बनने रहने के लिए सनातन धर्म का सम्मान करना पड़ेगा.

लेकिन रिनचिन की दुविधा ये थी कि वो एक कट्टर बौद्ध था और धर्म परिवर्तन उसे मंज़ूर न था. रिनचिन ने हिन्दू धर्म अपनाने की बात स्वीकार की. और उसके प्रस्ताव पर विचार नाग के वार्षिक सनातन सम्मेलन में मंथन हुआ. 12वीं शताब्दी तक सनातन धर्म की सर्वोच्च पीठ विचार नाग थी, जहां पर स्वयं शंकराचार्य आए. शास्त्रार्थ किया और कश्मीरी पंडितों के ज्ञान को सर्वोच्च माना. विचार नाग से वार्षिक पंचांग तय होता था तथा धर्म की व्याख्याएं तय होती थीं.

विचार नाग मंथन में ये तय हुआ कि सनातन धर्म में कन्वर्शन की कोई पद्धति नहीं है. और कोई भी प्राणी स्वेछा से सनातन या हिन्दू धर्म को अपना सकता है. रिनचिन का सनातन धर्म में स्वागत हुआ. लेकिन इतनी सरलता से रिनचिन हार नहीं माने वाला था. उसने दूसरा दाव खेला और कहा कि वो एक शहजादा है इसलिए अगर ब्राह्मण सनातन धर्म का शीर्ष है तो उसे ब्राह्मण बनना ही स्वीकार होगा.

फिर से राजा की ये समस्या विचार नाग में मंथन के लिए आयी. और एक मत से ये निर्णय हुआ की जिस प्रकार एक सिंह के गर्भ से ही एक सिंह जन्म लेता है, उसी प्रकार किसी भी वर्ण में जन्म लेना प्रकृति पर निर्भर करता है. सनातन में धर्म परिवर्तन या ब्राह्मण बनने की कोई विधि नहीं है. शिव पुराण में विदित है की जो कोई भी अपना सारा जीवन ज्ञान अर्जित और शिक्षण में लगाता है वो स्वयं ब्राह्मण बन जाता है या फिर ब्राह्मण कुल में जन्म लेने से ब्राह्मण कहलाता है.

राजा रिनचिन अपनी नियति स्वयं निश्चित करने के लिए स्वतंत्र है. अपने कपट को विफल होता देख रिनचिन बौखला गया. उसने न तो सनातन धर्म अपनाया और न ही स्वेछा से खुद को हिन्दू घोषित किया. एक हमले में रिनचिन की मृत्यु हो गयी और वो अपनी मृत्यु के क्षण तक एक कट्टर बौद्ध बने रहा. समय परिवर्तन हुआ और शाह मीर नाम का दूसरा शैतान कश्मीर में शरणागत बन कर आया.

धोखे से सत्ता हथियाई. कोटा रानी से ज़बरदस्ती शादी की कोशिश की, परन्तु कोटा ने अपने सम्मान के लिए अपने प्राण त्याग दिए. इसी धोखे के साथ कश्मीर में सनातन का सूर्य अस्त हुआ और इस्लाम के नाम पर एक नयी फ़र्ज़ी इबारत लिखना आरंभ हुआ. इस्लामी आतंक के साये में जोना राजा और कई सारे खुद को इस्लाम के सुपुर्द करने वालों ने अपने मुस्लिम आकाओं को और इस्लाम को मज़बूत करने का एक सुनियोजित सिलसिला चलाया.

इस सिलसिले में शामिल था सनातन धर्म को बदनाम करना. यह प्रचारित किया गया कि सनातन धर्म जातिवाद में जकड़ा हुआ है. ये एक ऐसा फरेब था जो कश्मीर से शुरू हुआ और इस्लाम के साथ सहारे वैदिक भारतवर्ष में एक विषैली बेल की तरह फैला दिया गया. 17वीं शताब्दी के बाद अंग्रेजों ने सनातन धर्म से जुड़े इस कुप्रचार का इस्तेमाल डिवाइड एंड रूल पॉलिसी के लिए किया. और इस तरह देश को एक जातिवादी रूप में देखा जाने लगा.

आज़ादी के बाद इसी पॉलिसी को तुष्टिकरण के रूप में कांग्रेस और लेफ्टिस्ट सरकारों, कथित बुद्धिजीवियों और इतिहासकारों ने अपने-अपने फायदे के लिए खूब भुनाया. मेरी ये विनती समस्त समाज से है कि कश्मीर के इतिहास पर कुछ भी लिखने से पहले कम से काम कल्हण पंडित की लिखी गयी राजतरंगिणी अवश्य पढ़ें. मगर सवाल वही उठता है कि इतना जतन करेगा कौन ? जिन्हें झूठ फैलाना है, वे दो वॉल्यूम की हज़ारो पन्ने की संस्कृत क्यों पढ़ेंगे?

चलिए कम से काम विश्व विख्यात हिस्टोरियन औरेल स्टेइन का अंग्रेज़ी ट्रांसलेशन तो पढ़ ही सकते है? या फिर विश्व विख्यात हिस्टोरियन पद्मश्री डॉक्टर काशीनाथ पंडिता और डॉक्टर सतीश गंजू की अनगिनत ऐतिहासिक पुस्तकें तो पढ़ ही सकते है?

सच तो यह है कि आज कश्मीर पर अपना ज्ञान बांचने वाले सिर्फ बिचोलिये हैं जिनको ये भी नहीं पता कि भारत एक दसवीं शताब्दी में विश्वगुरु बनकर इसलिए उभरा था, क्योंकि दिद्दा रानी ने अपने जीवन के 44 साल देश को अखंड रखने में बिताये. फिर इसी भारत देश के 'इतिहासकारों' ने रानी दिद्दा को एक चरात्रहीन चुड़ैल का नाम दिया.

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इस लेख में लेखक ने अपने निजी विचार व्यक्त किए हैं. ये जरूरी नहीं कि आईचौक.इन या इंडिया टुडे ग्रुप उनसे सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ लेखक ही जिम्मेदार है.

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