स्वतंत्रता के उपरांत हिंदी के व्यंग्य लेखकों में परसाईं (Harishankar Parsai), शरद जोशी (Sharad Joshi) और श्रीलाल शुक्ल (Shri Lal Shukla) की त्रयी ने एक प्रकार से हिंदी गद्य लेखन में जो कुछ भी लिखा कालजयी ही लिखा. श्रीलाल शुक्ल मूलतः उपन्यासकार थे लेकिन साथ व्यंग्यकार भी उतने ही उत्कृष्ट कोटि के. अभाव भरे बचपन और बाद में प्रशासनिक अधिकारी होने के कारण लोकजीवन के सभी अंगों में या दूसरे शब्दों में कहें तो 'सिस्टम' में व्याप्त विद्रूपताओं, विसंगति और भ्रष्टाचार पर उनकी तीक्ष्ण और मारक दृष्टि ने ही 'राग दरबारी' जैसी कालजयी रचना के लिए उन्हें प्रेरित किया होगा. विनम्रता और संवेदनशीलता तो उनमें थी ही. सिस्टम शब्द से याद आया कि अपने देश में 'सिस्टम' एक ऐसा शब्द है जिसे शायद सबसे ज्यादा गाली मिलती है. इसके आप चाहे जितने भी अर्थ कर सकते है और मौक़ा मुकाम के लिहाज़ से अनर्थ भी. भारतीयों को तो इस शब्द को गरियानें की इतनी आदत पड़ चुकी है कि...'साला इस देश का सब सिस्टम ही ख़राब है' अब मुहावरे की शक्ल ले चुका है.
ख़ैर यही 'सिस्टम' शब्द जब किसी सरकारी बाबू के साथ सेट हो जाय तो वर्षों से दबी फाइल अथवा काम सरपट दौड़ने लगता है. असली अंग्रेजों ने भारत छोड़ने के साथ जो सिस्टम भारत में छोड़ा उस सिस्टम में गांधी के गांधीवाद और नेहरू की भाग्यवधू से की गई प्रतिज्ञा को देशी अंग्रेजों ने जिस प्रकार श्रीहीन किया और भसड़ मचाई कि अपने जय प्रकाश नारायण जी को सिर्फ अट्ठाइस वर्षों में ही दूसरी आज़ादी का बिगुल ही फूंकना पड़ गया. ये तो पॉलिटिकल बात होने लगी गुरु.
असल बात यह है कि श्रीलाल बाबू की यही बात मुझे जमी कि उन्होंने बड़ी बारीकी से सिस्टम में रहकर इस सिस्टम में लगे दीमक और तिलचट्टों को और उसके विभिन्न स्रोतों को न केवल खुद पहचाना बल्कि साहित्य के माध्यम से उसे आमजन के सामने उद्घाटित भी किया. तो भैया मैं पहले एक बात सुस्पष्ट कर दूं कि मैं हिंदी साहित्य का एक साधारण पाठक हूं और श्रीलाल शुक्ल के कुल तीन उपन्यास राग दरबारी, विश्रामपुर का संत, सूनी घाटी...
स्वतंत्रता के उपरांत हिंदी के व्यंग्य लेखकों में परसाईं (Harishankar Parsai), शरद जोशी (Sharad Joshi) और श्रीलाल शुक्ल (Shri Lal Shukla) की त्रयी ने एक प्रकार से हिंदी गद्य लेखन में जो कुछ भी लिखा कालजयी ही लिखा. श्रीलाल शुक्ल मूलतः उपन्यासकार थे लेकिन साथ व्यंग्यकार भी उतने ही उत्कृष्ट कोटि के. अभाव भरे बचपन और बाद में प्रशासनिक अधिकारी होने के कारण लोकजीवन के सभी अंगों में या दूसरे शब्दों में कहें तो 'सिस्टम' में व्याप्त विद्रूपताओं, विसंगति और भ्रष्टाचार पर उनकी तीक्ष्ण और मारक दृष्टि ने ही 'राग दरबारी' जैसी कालजयी रचना के लिए उन्हें प्रेरित किया होगा. विनम्रता और संवेदनशीलता तो उनमें थी ही. सिस्टम शब्द से याद आया कि अपने देश में 'सिस्टम' एक ऐसा शब्द है जिसे शायद सबसे ज्यादा गाली मिलती है. इसके आप चाहे जितने भी अर्थ कर सकते है और मौक़ा मुकाम के लिहाज़ से अनर्थ भी. भारतीयों को तो इस शब्द को गरियानें की इतनी आदत पड़ चुकी है कि...'साला इस देश का सब सिस्टम ही ख़राब है' अब मुहावरे की शक्ल ले चुका है.
ख़ैर यही 'सिस्टम' शब्द जब किसी सरकारी बाबू के साथ सेट हो जाय तो वर्षों से दबी फाइल अथवा काम सरपट दौड़ने लगता है. असली अंग्रेजों ने भारत छोड़ने के साथ जो सिस्टम भारत में छोड़ा उस सिस्टम में गांधी के गांधीवाद और नेहरू की भाग्यवधू से की गई प्रतिज्ञा को देशी अंग्रेजों ने जिस प्रकार श्रीहीन किया और भसड़ मचाई कि अपने जय प्रकाश नारायण जी को सिर्फ अट्ठाइस वर्षों में ही दूसरी आज़ादी का बिगुल ही फूंकना पड़ गया. ये तो पॉलिटिकल बात होने लगी गुरु.
असल बात यह है कि श्रीलाल बाबू की यही बात मुझे जमी कि उन्होंने बड़ी बारीकी से सिस्टम में रहकर इस सिस्टम में लगे दीमक और तिलचट्टों को और उसके विभिन्न स्रोतों को न केवल खुद पहचाना बल्कि साहित्य के माध्यम से उसे आमजन के सामने उद्घाटित भी किया. तो भैया मैं पहले एक बात सुस्पष्ट कर दूं कि मैं हिंदी साहित्य का एक साधारण पाठक हूं और श्रीलाल शुक्ल के कुल तीन उपन्यास राग दरबारी, विश्रामपुर का संत, सूनी घाटी का सूरज ही मैंने अभी तक पढ़ा है.
उनके व्यंग्य और कहानी भी पढ़ रखी है पर रागदरबारी इतने जबर तरीके से दिमाग़ में बैठी है कि उनका बाकी साहित्य एक तरफ और रागदरबारी एक तरफ़. मने कि अगर आप ज्ञानमार्ग के सच्चे पथिक है और भारत और उसके गांव के आधुनिक मनोविज्ञान को घुस कर देखना और समझना चाहते है तो फिर भैया रागदरबारी आपके लिए अनिवार्य ही नहीं बल्कि अपरिहार्य है.
रागदरबारी ही क्यों ? इस प्रश्न के जवाब मैं यही कहूंगा कि भारत को कितना 'इंडिया' बन जाय पर असल में है वह गांवों का ही देश. महानगर की चमक की बाती गांवों से ही तेल घी पाती है. साहित्य में 'अहा ग्राम्य जीवन' की मनोहारी छवि के बीच रागदरबारी उपन्यास का गांव शिवपालगंज गांवों की इस मासूम छवि को तोड़ता आधुनिक लोकतंत्र और व्यवस्था के मध्य ग्रामीण और नगरीय समाज में जन्में कुरूप यथार्थ के विभिन्न स्तरों को प्याज के छिलकों सा उधेड़ता कब गुज़र जाता है आपको पता ही न चलेगा.
वैद्य जी की ग्रामीण राजनीति पर कुटिल पकड़, शिक्षा व्यवस्था की बदहाली, सहकारिता से लेकर प्रशासन और सामाजिक व्यस्थाओं में व्याप्त भ्रष्टाचार, सत्ता के उन भ्रष्ट केंद्रों का नमूना है जो भ्रष्टाचार के संस्थागत प्रतीक बन चुके है. शिवपालगंज भले ही प्रतीक रूप में गांव है पर उपन्यास का पाठक जिस भी नगर का होगा उपन्यास की कथा और उसके पात्रों को बहुत सहजता के साथ अपने आस पास महसूस करेगा.
वैद्य जी, रुप्पन बाबू, मास्टर खन्ना,शनिचर, पंडित राधेलाल, बद्री पहलवान और शिवपालगंज के निवासी 'गंजहे' जो गांवों के भोलेपन और मासूमियत भरे ग्रामीण चेहरे की कलई उतार कर साहित्य में गांव में व्याप्त मूल्यहीनता और आंतरिक द्वंद की मानक छवि गढ़ते है.श्रीलाल शुक्ल की पुण्यतिथि पर रागदरबारी के बहाने आज वर्तमान पतनशील समाज और उसकी विभिन्न संस्थाओं और उसके उपांगों की यथार्थता का अन्वेषण इस कृति और इसके लेखक की प्रासंगिकता व्यक्त करने के लिए पर्याप्त है.
कोई भी कृति और लेखक काल की सीमाओं को तभी पार करता है जब वह युगीन सत्य के बहाने मानव के मूलभूत प्रवृत्तियों को उधेड़ देता है. खुद श्रीलाल शुक्ल के शब्दों में 'कथालेखन में मैं जीवन के कुछ मूलभूत नैतिक मूल्यों से प्रतिबद्ध होते हुए भी यथार्थ के प्रति बहुत आकृष्ट हूं.' पर यथार्थ की यह धारणा इकहरी नहीं है, वह बहुस्तरीय है और उसके सभी स्तर - आध्यात्मिक, आभ्यंतरिक, भौतिक आदि जटिल रूप से एक दूसरे से गहरे जुड़ी हैं. उनकी समग्र रूप में पहचान और अनुभूति कहीं-कहीं रचना को जटिल भले ही बनाए, पर उस समग्रता की पकड़ ही रचना को श्रेष्ठता देती है.'
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