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मुंशी प्रेमचंद आज होते तो 'Best Seller' बनने के लिए क्या क्या करना पड़ता?

    • बिलाल एम जाफ़री
    • Updated: 08 अक्टूबर, 2020 08:12 PM
  • 08 अक्टूबर, 2020 08:12 PM
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ब्रांडिंग के इस दौर में अगर आज मुंशी प्रेमचंद (Munshi Premchand) होते तो क्या वो इतने ही महान लेखक होते ? साफ़ है कि उन्हें भी अमेज़न बेस्ट सेलर (Amazon Best Seller) की लड़ाई लड़नी पड़ती. दिन का एक बड़ा हिस्सा फेसबुक (Facebook ) को भी देना होता. ट्विटर (Twitter ) पर ट्वीट और री ट्वीट भी होते.

'जिस साहित्य से हमारी सुरुचि न जागे, आध्यात्मिक और मानसिक तृप्ति न मिले, हममें गति और शक्ति न पैदा हो, हमारा सौंदर्य प्रेम न जागृत हो, जो हममें संकल्प और कठिनाइयों पर विजय प्राप्त करने की सच्ची दृढ़ता न उत्पन्न करे, वह हमारे लिए बेकार है उसे साहित्य कहलाने का अधिकार नहीं है.'

उपरोक्त बातें गंभीर हैं. जिन्हें हिंदी साहित्य के पुरोधा 'मुंशी प्रेमचंद' (Munshi Premchand) ने कहा. ये पंक्तियां हमने 8 अक्टूबर के मद्देनजर चुनी हैं. 8 अक्टूबर, ये वो तारीख़ है जो 31 जुलाई 1880 में जन्में मुंशी प्रेमचंद की पुण्यतिथि (Munsi Premchand Death Anniversary) के रूप में जानी जाती है. चूंकि 8 अक्टूबर का दिन मुंशी जी और उनकी पुण्यतिथि को समर्पित है इसलिए आज का दिन वो दिन भी है जब भारत भर में प्रेमचंद की तारीफें हो रही हैं. तमाम पब्लिकेशंस होंगे जिन्होंने कोरोना के इस दौर में 'जूम' पर 'वेबिनार' आयोजित किये होंगे. दलीलें दी जा रही होंगी कि प्रेमचंद ने अपने समय की जैसी मंजरकशी शब्दों का जाल बिछाकर की वो अपने मे बेमिसाल है. उन्होंने इंसानों को, उसके भावों को शब्दों में जगह दी और ऐसा बहुत कुछ रच दिया जो नजीर बन गया. उसूलन देखा जाए तो हमें भी इसी परंपरा का पालन करते हुए मुंशी प्रेमचंद की शान में कसीदे कहने चाहिये. वक़्त का तकाजा यही है. होना तो यही चाहिए। लेकिन इससे दो हाथ आगे निकलते हुए, हम थोड़ा प्रैक्टिकल बातें करेंगे.

अगर आज मुंशी प्रेमचंद होते तो क्या उन्हें इसी सहजता से स्वीकार किया जाता ?

वर्तमान दौर नई हिंदी का दौर है. प्यार की घिसी पिटी कहानियों से लेकर आम स्टूडेंट्स के संघर्ष, कॉरपोरेट लाइफ, स्टूडेंट पॉलिटिक्स, बैंक पीओ और जल निगम में बाबू बनने की तैयारी में आने वाली चुनैतियों से लेकर लिव इन और सेम...

'जिस साहित्य से हमारी सुरुचि न जागे, आध्यात्मिक और मानसिक तृप्ति न मिले, हममें गति और शक्ति न पैदा हो, हमारा सौंदर्य प्रेम न जागृत हो, जो हममें संकल्प और कठिनाइयों पर विजय प्राप्त करने की सच्ची दृढ़ता न उत्पन्न करे, वह हमारे लिए बेकार है उसे साहित्य कहलाने का अधिकार नहीं है.'

उपरोक्त बातें गंभीर हैं. जिन्हें हिंदी साहित्य के पुरोधा 'मुंशी प्रेमचंद' (Munshi Premchand) ने कहा. ये पंक्तियां हमने 8 अक्टूबर के मद्देनजर चुनी हैं. 8 अक्टूबर, ये वो तारीख़ है जो 31 जुलाई 1880 में जन्में मुंशी प्रेमचंद की पुण्यतिथि (Munsi Premchand Death Anniversary) के रूप में जानी जाती है. चूंकि 8 अक्टूबर का दिन मुंशी जी और उनकी पुण्यतिथि को समर्पित है इसलिए आज का दिन वो दिन भी है जब भारत भर में प्रेमचंद की तारीफें हो रही हैं. तमाम पब्लिकेशंस होंगे जिन्होंने कोरोना के इस दौर में 'जूम' पर 'वेबिनार' आयोजित किये होंगे. दलीलें दी जा रही होंगी कि प्रेमचंद ने अपने समय की जैसी मंजरकशी शब्दों का जाल बिछाकर की वो अपने मे बेमिसाल है. उन्होंने इंसानों को, उसके भावों को शब्दों में जगह दी और ऐसा बहुत कुछ रच दिया जो नजीर बन गया. उसूलन देखा जाए तो हमें भी इसी परंपरा का पालन करते हुए मुंशी प्रेमचंद की शान में कसीदे कहने चाहिये. वक़्त का तकाजा यही है. होना तो यही चाहिए। लेकिन इससे दो हाथ आगे निकलते हुए, हम थोड़ा प्रैक्टिकल बातें करेंगे.

अगर आज मुंशी प्रेमचंद होते तो क्या उन्हें इसी सहजता से स्वीकार किया जाता ?

वर्तमान दौर नई हिंदी का दौर है. प्यार की घिसी पिटी कहानियों से लेकर आम स्टूडेंट्स के संघर्ष, कॉरपोरेट लाइफ, स्टूडेंट पॉलिटिक्स, बैंक पीओ और जल निगम में बाबू बनने की तैयारी में आने वाली चुनैतियों से लेकर लिव इन और सेम सेक्स मैरिज तक, नई हिंदी के लेखक अलग ही लेवल का काम काम कर रहे हैं कहीं ये काम उम्दा है तो कहीं बस रायता मथा जा रहा है और माल मसाला डालकर उसे जायकेदार बनाने के प्रयास किये जा रहे हैं.

मौजूदा वक़्त में कुछ लेखक वाक़ई अच्छा लिख रहे हैं. मतलब ऐसे समझिए कि छात्र राजनीति पर जो नवीन चौधरी ने अपनी किताब 'जनता स्टोर' में लिख दिया वो नजीर बन गया. मानव कौल ने अपनी लेखनी से जैसे मानवीय संवेदनाओं को छुआ वो अपने में बेमिसाल है. इसी तरह 'आज़ादी मेरा ब्रांड' में जो कुछ अनुराधा बेनीवाल ने लिखा उसने न सिर्फ भारत बल्कि दुनिया भर की उन स्त्रियों को पंख दिए जो घूमने फिरने की शौक़ीन हैं. चाहे अणुशक्ति सिंह की शर्मिष्ठा, रजनी मोरवाल की नमकसार या फिर अंकिता जैन की किताब मैं से मां तक, इन किताबों में एक महिला के वो रूप देखने को मिले जिनके बारे में आज से 5 या 10 साल पहले हमने शायद ही कभी सोचा हो. दिव्य प्रकाश दुबे, नीलोत्पल मृणाल, सत्य व्यास, सचिन देव शर्मा, अस्तित्व, नई हिंदी के तमाम एक से बढ़कर एक और काबिल लेखक हमारे सामने हैं.

सवाल ये उठता है कि क्या अगर आज प्रेमचंद हमारे बीच होते और गबन, गोदान, निर्मला, दो बैलों की कथा जैसा कोई उपन्यास ईदगाह जैसी कोई कहानी लिख रहे होते। तो क्या उन्हें इसी सहजता से लिया जाता? क्या उनकी किताबों को पहले प्रकाशक फिर पाठक मिलते? क्या उनका फैंसबेस होता?

छोटा मुंह बड़ी बात होगी लेकिन जवाब है नहीं. नई हिंदी के इस दौर में सिर्फ लिखना ज़रूरी नहीं है. आज के समय में लिखने से ज्यादा जरूरी दिखना है. ये कहने में हमें कोई गुरेज नहीं है कि आज जो लेखक जितना दिख रहा है वो उतना बिक रहा है. चूंकि प्रेमचंद ने अपना सम्पूर्ण जीवन केवल लेखन को दिया इसलिए अगर आज वो होते और केवल लिख रहे होते तो शायद काम न चल पाता. बात थोड़ी कड़वी है लेकिन सिर्फ लिखने मात्र से अमेज़न से लेकर जागरण तक किसी भी टॉप लिस्ट में आना मुश्किल नहीं नामुमकिन है.

प्रेमचंद को भी आज बेस्ट सेलर की लड़ाई लड़नी होती और कदम कदम पर अपने को जनता और जनता से भी ज्यादा नई हिंदी के अन्य राइटर्स के सामने सिद्ध करना होता. जैसे हालात हैं कहा जा सकता है कि अपनी स्वयं की ब्रांडिंग के लिए अपने दिन का एक बड़ा हिस्सा प्रेमचंद को खुद की ब्रांडिंग के लिए सोशल मीडिया पर बिताना होता. प्रेमचंद को फेसबुक पर पोस्ट लिखनी पड़ती उनपर आए कमेंट्स का जवाब देते हुए संवाद करना होता. अपनी रचना को वन लाइनर, टू लाइनर, थ्री-फोर लाइनर बनाकर और उसे अलग अलग ट्रेंडिंग हैशटैग के जरिये इंस्टाग्राम पर पोस्ट करना होता. ट्विटर की यात्रा कर ट्वीट और रीट्वीट का खेल खेलना पड़ता.

ध्यान रहे कि लेखन के इतर आज यही चीजें हैं जो इस नई वाली हिंदी के दौर में किसी लेखक को रातों रात स्टार बनाती हैं. कहा ये भी जा सकता है कि यही वो टूल हैं जो एक लेखक को प्रकाशक देता है. याद रखिये आज का प्रकाशक पहले के प्रकाशकों से अलग है वो घोड़े पर नहीं 'जीतने वाले घोड़े' पर पैसे लगाता है. प्रकाशक को जब महसूस होता है कि फलां शख्स की खूब फॉलोइंग है तब उस क्षण प्रकाशक लेखक के लिए अपना सर्वस्व न्योछावर करने को तैयार है. वरना स्थिति क्या है वो वर्तमान में किसी हरगिज़ नहीं है. तमाम अच्छे लेखक हैं जो ब्रांडिंग को नजरअंदाज कर रहे हैं और वर्तमान में गर्त के अंधेरों में हैं.  

हो सकता है कि लेखक बिरादरी में से एक बड़ा वर्ग इन बातों के विरोध में आ जाए. इस लेख के खिलाफ लॉबिंग कर ले लेकिन जो वास्तविकता है उसे किसी भी सूरत में झुठलाया नहीं जा सकता है. सच यही है कि नई हिंदी के इस दौर में आज सोशल मीडिया टूल फेसबुक और ट्विटर, इंस्टाग्राम का जिसने इस्तेमाल कर लिया वही प्रेमचंद है वरना एक तस्वीर तो वो भी है जिसे लेकर सदी के महान व्यंग्यकारों में शुमार हरिशंकर परसाई ने व्यंग्य किया था और एक रचना के जरिये तमाम साहित्य प्रेमियों ने देखे थे 'प्रेमचंद के फटे जूते.'

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इस लेख में लेखक ने अपने निजी विचार व्यक्त किए हैं. ये जरूरी नहीं कि आईचौक.इन या इंडिया टुडे ग्रुप उनसे सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ लेखक ही जिम्मेदार है.

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