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'चाय का एक गंदा कप, अधजली सिगरेट और अमृता प्रीतम'

    • श्रुति दीक्षित
    • Updated: 31 अगस्त, 2018 04:18 PM
  • 31 अगस्त, 2018 04:18 PM
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अमृता प्रीतम की शादी तो 16 साल के होने तक हो ही गई थी, लेकिन कभी वो इस शादी से खुश न हो सकीं. उन्हें खुश तो उनकी कविता करती थी और 1944 की एक शाम साहिर ने किया था.

हिंदुस्तान एक ऐसा देश है जहां देवी और देवताओं का प्यार तो कथाओं में सुनाया जाता है, लेकिन प्यार करने की इजाजत किसी को नहीं दी जाती. कई प्रेम कहानियां राधा और कृष्ण की तरह सिर्फ किस्सों और कहानियों में अमर हो जाती हैं. कुछ के बारे में दुनिया को पता नहीं होता और कुछ हर इंसान की जुबान पर ऐसे चढ़ जाती हैं मानो उनकी अपनी ही हों. कुछ ऐसी ही कहानी है साहिर लुधियानवी, अमृता प्रीतम और इमरोज़ की. ये वही अमृता प्रीतम हैं जिन्हें पंजाबी की पहली बागी महिला कवयित्री के रूप में देखा गया.

अमृता की जिंदगी तो देखिए.. वो एक ऐसे परिवार से ताल्लुक रखती थीं जहां धर्म को बहुत माना जाता था. जहां उनकी दादी मां हिंदू और मुसलमानों के खाने के बर्तन भी अलग रखती थीं. जहां शादी का मतलब जिंदगी भर का साथ होता था और उस परिवार की एक बेखौफ लड़की ने अपनी जिंदगी में दो लोगों से प्यार किया. और दोनों में से कोई भी उसका पति न बन सका. उनका प्यार सिख भी था और मुस्लिम भी. अमृता प्रीतम वो महिला थीं जो अपने दौर से बहुत आगे थीं.

11 साल की उम्र में मां को खोने के बाद सिर्फ कविता ही तो थी जिसने अमृता को सहारा दिया था. 16 साल की उम्र में पहला कविता संग्रह 'अमृत लहरां' लिखने के बाद कभी पीछे पलट कर नहीं देखा था अमृता ने.

'तेरा मिलना ऐसा होता है जैसे कोई हथेली पर एक वक्त की रोटी रख दे'

अमृता प्रीतम की शादी तो 16 साल के होने तक हो ही गई थी, लेकिन कभी वो इस शादी से खुश न हो सकीं. उन्हें खुश तो उनकी कविता करती थी और 1944 की एक शाम साहिर ने किया था. साहिर और अमृता एक मुशायरे में मिले थे और उन्हें प्यार हो गया. उनका प्यार शांत था. अलफाज़ की जरूरत नहीं थी उन्हें. वो मिले भी थे लाहौर और दिल्ली के बीच एक शहर प्रीत नगर में. प्रीत नगर यानी प्यार की नगरी. 1944 में प्यार शायद खामोश ही होता था. अमृता ने उस जुनूनी कवि साहिर के लिए एक कविता भी लिखी थी ... 'एक मुलाकात'. ये शायद खामोशी ही थी जो इतनी ताकतवर कविता लिख दी अमृता ने.

हिंदुस्तान एक ऐसा देश है जहां देवी और देवताओं का प्यार तो कथाओं में सुनाया जाता है, लेकिन प्यार करने की इजाजत किसी को नहीं दी जाती. कई प्रेम कहानियां राधा और कृष्ण की तरह सिर्फ किस्सों और कहानियों में अमर हो जाती हैं. कुछ के बारे में दुनिया को पता नहीं होता और कुछ हर इंसान की जुबान पर ऐसे चढ़ जाती हैं मानो उनकी अपनी ही हों. कुछ ऐसी ही कहानी है साहिर लुधियानवी, अमृता प्रीतम और इमरोज़ की. ये वही अमृता प्रीतम हैं जिन्हें पंजाबी की पहली बागी महिला कवयित्री के रूप में देखा गया.

अमृता की जिंदगी तो देखिए.. वो एक ऐसे परिवार से ताल्लुक रखती थीं जहां धर्म को बहुत माना जाता था. जहां उनकी दादी मां हिंदू और मुसलमानों के खाने के बर्तन भी अलग रखती थीं. जहां शादी का मतलब जिंदगी भर का साथ होता था और उस परिवार की एक बेखौफ लड़की ने अपनी जिंदगी में दो लोगों से प्यार किया. और दोनों में से कोई भी उसका पति न बन सका. उनका प्यार सिख भी था और मुस्लिम भी. अमृता प्रीतम वो महिला थीं जो अपने दौर से बहुत आगे थीं.

11 साल की उम्र में मां को खोने के बाद सिर्फ कविता ही तो थी जिसने अमृता को सहारा दिया था. 16 साल की उम्र में पहला कविता संग्रह 'अमृत लहरां' लिखने के बाद कभी पीछे पलट कर नहीं देखा था अमृता ने.

'तेरा मिलना ऐसा होता है जैसे कोई हथेली पर एक वक्त की रोटी रख दे'

अमृता प्रीतम की शादी तो 16 साल के होने तक हो ही गई थी, लेकिन कभी वो इस शादी से खुश न हो सकीं. उन्हें खुश तो उनकी कविता करती थी और 1944 की एक शाम साहिर ने किया था. साहिर और अमृता एक मुशायरे में मिले थे और उन्हें प्यार हो गया. उनका प्यार शांत था. अलफाज़ की जरूरत नहीं थी उन्हें. वो मिले भी थे लाहौर और दिल्ली के बीच एक शहर प्रीत नगर में. प्रीत नगर यानी प्यार की नगरी. 1944 में प्यार शायद खामोश ही होता था. अमृता ने उस जुनूनी कवि साहिर के लिए एक कविता भी लिखी थी ... 'एक मुलाकात'. ये शायद खामोशी ही थी जो इतनी ताकतवर कविता लिख दी अमृता ने.

अमृता जिंदगी को लिखती और कविता को जीती थीं

'अब रात घिरने लगी तो तू मिला है, तू भी उदास, चुप, शांत और अडोल. मैं भी उदास, चुप, शांत और अडोल. सिर्फ- दूर बहते समुद्र में तूफान है…'

साहिर और अमृता की प्रेम कहानी को उनके खतों से पहचाना जाता है. देश के दो हिस्सों में रहने वाले एक लाहौर और एक दिल्ली कहने वाले उन खतों की दास्तां ही कुछ ऐसी थी कि दुनिया में पहचान अपने आप मिल गई. अमृता साहिर को हमेशा 'मेरा शायर', 'मेरा महबूब', 'मेरा खुदा' और 'मेरा देवता' कहती थीं.

इस इश्क की ताकत देखिए कि इतने सालों बाद भी बंटवारे के घाव की तरह दोनों का प्यार अभी भी जिंदा है.

एक चाय का कप और एक अधजली सिगरेट..

अमृता की जिंदगी भी एक खूबसूरत कविता की ही तरह एक किताब में झलकती है. वो किताब जिसे अमृता ने खुद लिखा था. नाम भी क्या खूब है.. 'रसीदी टिकट'. लोग कहते हैं कि अमृता प्रीतम को सिगरेट पीने की लत थी. उन्हें फ्रिज में रखी ठंडी बियर बेहद पसंद थी, पर लोग इस बात का अंदाज़ा नहीं लगा पाते कि शायद उन्हें सिगरेट नहीं साहिर की खामोशी और उनकी छुअन की लत थी. अपनी किताब में उन्होंने लिखा कि...

'वो खामोशी से सिगरेट जलाता और फिर आधी सिगरेट ही बुझा देता, फिर एक नई सिगरेट जला लेता. जबतक वो विदा लेता, कमरा ऐसी सिगरेटों से भर जाता. मैं इन सिगरेटों को हिफाजत से उठाकर अलमारी में रख देती. और जब कमरे में अकेली होती तो उन सिगरेटों को एक-एक करके पीती. मेरी उंगलियों में फंसी सिगरेट, ऐसा लगता कि मैं उसकी उंगलियों को छू रही हूं. मुझे धुएं में उसकी शक्ल दिखाई पड़ती. ऐसे मुझे सिगरेट पीने की लत पड़ी.'

अमृता और साहिर की मुलाकात जहां हुई उसका नाम ही प्रीत नगर था.

साहिर भी कुछ कम नहीं थे. विनय शुक्ला ने साहिर की जिंदगी से जुड़ा एक किस्सा सुनाया था. जब साहिर और संगीतकार जयदेव एक गाने पर काम कर रहे थे तो साहिर के घर पर एक गंदा कप उन्हें दिखा. उस कप को साफ करने की बात जब जयदेव ने कही तो साहिर ने कहा कि इसे छूना भी मत, अमृता जब आखिरी बार यहां आई थी तो इसी कप में चाय पी थी.

साहिर लुधियानवी खुद को बैचलर ही मानते थे, लेकिन वो अमृता ही थीं जिन्होंने साहिर को कमिटमेंट शब्द का मतलब समझाया. साहिर की जीवनी, साहिर: अ पीपुल्स पोएट, लिखने वाले अक्षय मानवानी कहते हैं कि अमृता वो इकलौती महिला थीं, जो साहिर को शादी के लिए मना सकती थीं. एक बार साहिर लुधियानवी ने अपनी मां सरदार बेगम से कहा भी था, 'वो अमृता प्रीतम थी. वो आप की बहू बन सकती थी'.

पर आखिर वो इश्क ही क्या जो आसानी से पूरा हो जाए. साहिर और अमृता भी इसी तरह एक दूसरे के साथ रहकर भी अधूरे रहे. एक दूसरे से न मिलकर भी मिल गए.

'सामने पूरी रात थी, पर आधी नज्म एक कोने में सिमटी रही, और आधी नज्म एक कोने में बैठी रही.'

अमृता प्रीतम पार्टीशन के बाद कुछ टूट सी गईं. हालांकि, साहिर और वो अब भी एक देश में थे, लेकिन अमृता के लिए पार्टीशन वो दौर था जिसने उन्हें अपनी जिंदगी की सबसे ताकतवर कविता लिखने के लिए प्रेरित किया. कविता थी 'अज अखां वारिस शाह नू'. ये 18वीं सही के सूवी कवि वारिस शाह के लिए लिखी गई कविता थी. अपने बेटे को कोख में लिए 28 साल की अमृता ने बंटवारे के दौर में हुए नरसंहार की यादें लिखीं थी इस कविता में. आपको बता दूं कि वारिस शाह ही थे जिन्होंने 'हीर और रांझा' को पन्नों पर उकेरा था.

1950 का उपन्यास पिंजर भी तो बंटवारे के लिए ही था. एक महिला कैसे हिंदुस्तान और पाकिस्तान के बीच फंस जाती है. उसका दर्द क्या होता है ये खूब पता था अमृता को.

अमृता ने साहिर से प्यार किया था और इमरोज ने अमृता से...

1960 के दशक में अमृता ने अपने पति प्रीतम सिंह को छोड़ दिया था. साहिर के प्रति लगाव कभी कम नहीं हुआ अमृता के मन में. साहिर की जिंदगी में एक अन्य महिला आ गई थीं. नाम था सुधा मल्होत्रा. उस समय अमृता दिल्ली में थीं. साहिर और अमृता की मुलाकात यूं हीं संयोग से हो गई थी, लेकिन इमरोज़ से तो अमृता की मुलाकात करवाई गई थी. एक दोस्त ने दोनों को मिलवाया था. इमरोज़ ने तब अमृता का साथ दिया जब साहिर को कोई और मिल गया था. अमृता और इमरोज़ साहिर से मिलने मुंबई भी गए थे, लेकिन साहिर को ये मुलाकात नागवार गुजरी थी. खुद को एक लुटे हुए आशिक की तरह समझने लगे थे साहिर.

अमृता और इमरोज ने अपनी जिंदगी के आखिरी 40 साल एक साथ गुजारे

इमरोज़ के साथ अमृता ने अपनी जिंदगी के आखिरी 40 साल गुजारे, इमरोज़ अमृता की पेंटिंग भी बनाते और उनकी किताबों के कवर भी डिजाइन करते. उनकी जिंदगी के ऊपर एक किताब भी है 'अमृता इमरोज़: एक प्रेम कहानी.' किस्‍सा तो यह भी है कि इमरोज के पीछे स्‍कूटर पर बैठी अमृता सफर के दौरान खयालों में गुम होतीं तो इमरोज की पीठ पर अंगुलियां फेरकर 'साहिर' लिख दिया करती थीं.

अमृता ने अपनी जिंदगी में मौत को बहुत करीब से देखा था और उन्हें मौत भी बेहद आरामदायक मिली थी शायद. 31 अक्टूबर 2005 को अमृता नींद में ही चल बसी थीं.

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इस लेख में लेखक ने अपने निजी विचार व्यक्त किए हैं. ये जरूरी नहीं कि आईचौक.इन या इंडिया टुडे ग्रुप उनसे सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ लेखक ही जिम्मेदार है.

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