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नश्तर : जजों का विद्रोह, घर की बात नहीं है चेयरमैन साहब! घरों की बातों पर कभी प्रेस नहीं बुलाते

    • बिलाल एम जाफ़री
    • Updated: 14 जनवरी, 2018 09:24 PM
  • 14 जनवरी, 2018 06:08 PM
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सुप्रीम कोर्ट के चार जजों की बगावत को घर का मामला बताकर भले ही बार काउंसिल ऑफ इंडिया के चेयरमैन ने मामले को ठंडा करने का प्रयास किया हो, मगर जब गहराई से देखें तो मिलेगा कि उनके कथन और इस मामले में जमीन आसमान का अंतर है.

फिल्मों से लेकर आपसी रिश्तों तक, किसी भी वाद विवाद के वक़्त अक्सर ही हमनें एक उक्ति लोगों के मुंह से सुनी थी. उक्ति के अनुसार, लोग विवाद के समय ये कहकर किनारा-कशी कर लेते थे कि "सी यू इन कोर्ट" यानी "ठीक है कोई बात नहीं! हम तुम्हें अदालत में देखेंगे" इस उक्ति पर गौर करें तो मिलता है कि ऐसा सिर्फ इसलिए है क्योंकि, हम लोकतंत्र के चार स्तंभों में से एक न्यायपालिका पर किसी और चीज से ज्यादा भरोसा करते हैं और उम्मीद करते हैं वहां दिया गया फैसला निष्पक्ष होगा.

चार जजों का ये विद्रोह लोकतंत्र के लिए एक बड़ा खतरा है

अब तक कोर्ट कचहरी और उसकी कार्यप्रणाली पर आंखें मूंद कर विश्वास करने वाले हम लोग, ऐसा सिर्फ इसलिए करते हैं क्योंकि प्राचीन काल से हमारा ये मानना रहा है कि किसी भी मुद्दे पर फैसला देने वाले "पंचों में ईश्वर वास करता है" और पंच यानी ईश्वर का फैसला कभी गलत हो ही नहीं सकता. वो दौर अलग था, ये दौर अलग है. अब न तो वैसी पंचायतें ही हैं और न ही वैसे पंच. इनकी जगह अब अदालतों ने ले ली है. आज के समय में जज ही हमारे लिए भगवान का रूप हैं.

अध्यात्म के अनुसार, भगवान वो हैं जो सभी बुराइयों और तमाम तरह के मोह से दूर हैं. अब जब हमने अदालत में फैसला करने बैठे जजों को भगवान मान लिया है तो उनका भी तमाम बुराइयों से दूर रहना और मोह त्याग के निष्पक्ष बने रहना भगवान बनने की पात्रता है. खैर न्यायपालिका की वर्तमान कार्यप्रणाली को देखकर शायद ये कहना कहीं से भी गलत न हो कि आज जजों में न तो भगवान बसते हैं और न ही वो मोह माया के बंधनों से ही दूर हैं.

हमारी कही इस बात की पुष्टि खुद सर्वोच्च न्यायालय के चार जजों के विद्रोह और उनकी प्रेस कांफ्रेंस ने कर दी है. इन चार जजों में जस्टिस चेलमेश्वर, जस्टिस गोगोई, जस्टिस कुरियन जोसेफ और जस्टिस मदन लोकुर हैं....

फिल्मों से लेकर आपसी रिश्तों तक, किसी भी वाद विवाद के वक़्त अक्सर ही हमनें एक उक्ति लोगों के मुंह से सुनी थी. उक्ति के अनुसार, लोग विवाद के समय ये कहकर किनारा-कशी कर लेते थे कि "सी यू इन कोर्ट" यानी "ठीक है कोई बात नहीं! हम तुम्हें अदालत में देखेंगे" इस उक्ति पर गौर करें तो मिलता है कि ऐसा सिर्फ इसलिए है क्योंकि, हम लोकतंत्र के चार स्तंभों में से एक न्यायपालिका पर किसी और चीज से ज्यादा भरोसा करते हैं और उम्मीद करते हैं वहां दिया गया फैसला निष्पक्ष होगा.

चार जजों का ये विद्रोह लोकतंत्र के लिए एक बड़ा खतरा है

अब तक कोर्ट कचहरी और उसकी कार्यप्रणाली पर आंखें मूंद कर विश्वास करने वाले हम लोग, ऐसा सिर्फ इसलिए करते हैं क्योंकि प्राचीन काल से हमारा ये मानना रहा है कि किसी भी मुद्दे पर फैसला देने वाले "पंचों में ईश्वर वास करता है" और पंच यानी ईश्वर का फैसला कभी गलत हो ही नहीं सकता. वो दौर अलग था, ये दौर अलग है. अब न तो वैसी पंचायतें ही हैं और न ही वैसे पंच. इनकी जगह अब अदालतों ने ले ली है. आज के समय में जज ही हमारे लिए भगवान का रूप हैं.

अध्यात्म के अनुसार, भगवान वो हैं जो सभी बुराइयों और तमाम तरह के मोह से दूर हैं. अब जब हमने अदालत में फैसला करने बैठे जजों को भगवान मान लिया है तो उनका भी तमाम बुराइयों से दूर रहना और मोह त्याग के निष्पक्ष बने रहना भगवान बनने की पात्रता है. खैर न्यायपालिका की वर्तमान कार्यप्रणाली को देखकर शायद ये कहना कहीं से भी गलत न हो कि आज जजों में न तो भगवान बसते हैं और न ही वो मोह माया के बंधनों से ही दूर हैं.

हमारी कही इस बात की पुष्टि खुद सर्वोच्च न्यायालय के चार जजों के विद्रोह और उनकी प्रेस कांफ्रेंस ने कर दी है. इन चार जजों में जस्टिस चेलमेश्वर, जस्टिस गोगोई, जस्टिस कुरियन जोसेफ और जस्टिस मदन लोकुर हैं. ज्ञात हो कि सुप्रीम कोर्ट के चार जजों ने न्यायपालिका पर कई गंभीर आरोप लगाए हैं और कहा है कि है कि, सुप्रीम कोर्ट में बहुत सारी अनियमितताएं हो रही हैं, जिसे लेकर उन्होंने करीब 2 महीने पहले मुख्य न्यायाधीश को एक पत्र भी लिखा था. ध्यान रहे कि उस पत्र में सुप्रीम कोर्ट की अनियमितताओं के अलावा कई जजों के खिलाफ शिकायत भी की जा चुकी है. इन जजों ने अपनी कही बात में ये भी कहा कि देश का लोकतंत्र खतरे में है.

बीसीआई के चेयरमैन का जजों के विद्रोह को घर का मामला बताना पूरे प्रकरण पर सवालिया निशान लगा रहा है

सुप्रीम कोर्ट के चार जजों की इस पत्रकार वार्ता से देश की जनता सकते में और पूरा लोकतंत्र शर्मिंदा है. सुप्रीम कोर्ट के जजों की इस बगावत के पूरे मामले में सबसे दिलचस्प तर्क बार काउंसिल ऑफ इंडिया के चेयरमैन मनन कुमार मिश्रा का है. मिश्रा ने इस पूरे घटनाक्रम को "घर की बात" कहा है और माना है कि घर की इस बात को घर में ही रहकर सुलझा लिया जाएगा. बीसीआई के चेयरमैन ने इस मुद्दे पर क्या कहा, क्यों कहा, किस सन्दर्भ में कहा, कहां कहा, कब कहा हम इसपर ज्यादा बात नहीं करेंगे न ही हम उनकी कही बातों की जड़ों में जाएंगे. मगर हां, चूंकि अब इसमें एक शब्द के रूप में "घर" जुड़ गया है और इसे "घर की साधारण बात" कहा गया है तो इस कथन पर प्रकाश डालना जरूरी है.

कह सकते हैं कि बीसीआई के चेयरमैन को अपने द्वारा कही बात सोच समझ कर और दो चार बार विचार करते हुए कहनी चाहिए थी. चेयरमैन साहब ने खुद अपनी बात को संदेह के घेरों में लाकर खड़ा कर दिया है. हम ऐसा सिर्फ इसलिए कह रहे हैं क्योंकि, हम जिस सामाजिक ताने बाने में रहते हैं, वहां घर में हुए झगड़े को यूं सरेआम नहीं किया जाता. और न ही उसपर मीडिया बुलाई जाती है. इस बात को आप एक उदाहरण से समझिये. मान लीजिये घर में रहने वाले पति पत्नी का दाल में नमक की ज्यादा मात्रा को लेकर झगड़ा हो जाए या फिर दो भाई सिर्फ इसलिए लड़ पड़ें क्योंकि इस बार गांव से जो गेहूं आया है उसके बंटवारे में छोटे भाई को बड़े भाई की अपेक्षा 2 किलो गेहूं ज्यादा मिला है. या ये कि ननद और भौजाई में सिर्फ इस बात को लेकर कहासुनी हो गयी कि ननद को "ससुराल सिमर का देखना था" और भौजाई "भाभी जी घर पर हैं" देखना चाहती थी.

इस तरह के झगड़े में घर के सदस्य साथ आएंगे, एक दूसरे की बातें सुनेंगे, कुछ अपनी कहेंगे कुछ पर औरों की राय लेंगे. इस पूरे प्रकरण में, निश्चित तौर पर घर के सारे सदस्यों द्वारा यही प्रयास किया जाएगा कि घर में चल रहे इस संग्राम को पड़ोसियों की पहुंच से दूर रखा जाए. अब जब पड़ोसी दूर हैं तो फिर मीडिया, प्रेस, टीवी, कैमरे का तो सवाल ही नहीं उठता. आपसी सूझ बूझ से घर के मामले घर में ही सुलझ जाते हैं और किसी को कानों कान पता नहीं चलता. घर के किसी मामले में अगर गलती से मीडिया आ जाए तो वो कुछ भी हो, मगर घर का या फिर घर के अन्दर रहकर सुलझाने का मामला नहीं रहता.

ध्यान रहे कि चारों जजों ने न्यायप्रणाली पर कई गंभीर आरोप लगाए हैं और उसे भ्रष्ट कहा है

जजों का मामला भी ऐसा ही है. इसमें मीडिया आया चुकी है, सारा देश देख चुका है, न्यायपालिका और लोकतंत्र पर बदनुमा दाग लग चुके हैं. जैसा कि इसे बीसीआई के चेयरमैन ने घर का मामला कहा था अब ये किसी भी सूरत में घर का मामला नहीं रहा है. बहरहाल बार काउंसिल ऑफ इंडिया के चेयरमैन मनन कुमार मिश्राको हमारी तरफ से एक सुझाव है. सुझाव ये है कि सच स्वीकार करने में कोई बुराई नहीं है. अभी भी उनके पास सच स्वीकार कर लेने का वक़्त है.

यदि वो वक़्त रहते सच स्वीकार कर ले गए तो ये लोकतंत्र के बचाव की दिशा में एक सकारात्मक कदम होगा. और यदि वो सच नहीं स्वीकार करते हैं तो उनको जान लेना चाहिए कि चार जजों की लगाई ये आग आने वाले वक़्त में और कई घरों को अपनी जद में लेगी. जिससे लोकतंत्र की तस्वीर जलकर राख हो जाएगी.

अंत में ये कहते हुए हम अपनी बात खत्म करेंगे कि, इन चार जजों की पत्रकार वार्ता के रूप में न्यायपालिका की कार्यप्रणाली पर जो सवाल उठे वो दुर्भाग्यपूर्ण हैं. अगर इसे वक़्त रहते सही नहीं किया गया तो फिर शायद आने वाले वक़्त में हम इन जजों के मुंह से निकले फैसले पर कभी ऐतबार नहीं कर पाएंगे न ही ये विश्वास जुटा पाएंगे कि जजों में भगवान या खुदा का वास होता है.

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इस लेख में लेखक ने अपने निजी विचार व्यक्त किए हैं. ये जरूरी नहीं कि आईचौक.इन या इंडिया टुडे ग्रुप उनसे सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ लेखक ही जिम्मेदार है.

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