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बस न्यायपालिका को बचा लीजिए 'मिलॉर्ड', लोकतंत्र अपनेआप बच जाएगा

    • आईचौक
    • Updated: 14 जनवरी, 2018 03:57 PM
  • 14 जनवरी, 2018 03:57 PM
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डिवाइड एंड रूल तो शासन और सत्ता प्रतिष्ठानों का सबसे पुराना और असरदार सिद्धांत रहा है. न्यायपालिका को भी इसे समझना होगा कि लोकतंत्र पर मंडराते खतरे को टालने के लिए उनका एकराय रहना ही वक्त की जरूरत है.

सुप्रीम कोर्ट के जजों की बगावत से मचे बवाल के बीच एक अपडेट बेहद अहम है - चार में से दो जजों के रुख में बदलाव देखा और दर्ज किया गया है. दोनों ही जजों का कहना है कि सुप्रीम कोर्ट में कोई संवैधानिक संकट नहीं है.

कोच्चि में जस्टिस कुरियन जोसेफ ने मीडिया से कहा कि संकट के समाधान के लिए बाहरी दखल की जरूरत नहीं है और कोलकाता में जस्टिस रंजन गोगोई ने सुप्रीम कोर्ट में किसी भी संवैधानिक संकट से इंकार किया. वैसे बार काउंसिल ऑफ इंडिया ने भी अपनी ओर से पहल की बात भी कही है - और अटॉर्नी जनरल की संकट सुलझ जाने की आशांवित डेडलाइन भले ही खत्म हो चुकी हो, लेकिन उम्मीद तो कायम है ही.

लगता है अब सारा दारोमदार चीफ जस्टिस दीपक मिश्रा पर आ टिका है कि कैसे बातचीत के जरिये वो ऐसा रास्ता निकालें कि आउट ऑफ कोर्ट सेटलमेंट जैसी स्थितियां टाली जा सकें.

कॉलेजियम सिस्टम पर नजर तो अरसे से है

जजों के जनता की अदालत में आने से ठीक एक दिन पहले सीनियर एडवोकेट इंदु मल्होत्रा को सीधे सुप्रीम कोर्ट का जज बनाने की खबर आई थी. ये कॉलेजियम का ही फैसला था जिसमें उत्तराखंड के चीफ जस्टिस केएम जोसेफ को भी सुप्रीम कोर्ट के लिए सेलेक्ट किया गया.

...ताकि आउट ऑफ कोर्ट जैसी नौबत न आये!

कुछ मीडिया रिपोर्ट में सूत्रों के हवाले से बनी खबर में दोनों बातों को जोड़ कर देखा गया है. समझने वाली बात ये है कि इसके बहाने जजों की नियुक्ति के कॉलेजियम सिस्टम पर सवाल उठाने का सरकार को मौका मिल गया है. वैसे भी कॉलेजियम सिस्टम अरसे से सरकार के आंख की किरकिरी बना हुआ है. सरकार इसके लिए राष्ट्रीय न्यायिक नियुक्ति आयोग बिल लाने की कोशिश की तो न्यायपालिका ने इसे ठुकरा दिया. जब सरकार की ओर से कॉलेजियम सिस्टम में खामियां बताने की कोशिश हुई तो जजों ने...

सुप्रीम कोर्ट के जजों की बगावत से मचे बवाल के बीच एक अपडेट बेहद अहम है - चार में से दो जजों के रुख में बदलाव देखा और दर्ज किया गया है. दोनों ही जजों का कहना है कि सुप्रीम कोर्ट में कोई संवैधानिक संकट नहीं है.

कोच्चि में जस्टिस कुरियन जोसेफ ने मीडिया से कहा कि संकट के समाधान के लिए बाहरी दखल की जरूरत नहीं है और कोलकाता में जस्टिस रंजन गोगोई ने सुप्रीम कोर्ट में किसी भी संवैधानिक संकट से इंकार किया. वैसे बार काउंसिल ऑफ इंडिया ने भी अपनी ओर से पहल की बात भी कही है - और अटॉर्नी जनरल की संकट सुलझ जाने की आशांवित डेडलाइन भले ही खत्म हो चुकी हो, लेकिन उम्मीद तो कायम है ही.

लगता है अब सारा दारोमदार चीफ जस्टिस दीपक मिश्रा पर आ टिका है कि कैसे बातचीत के जरिये वो ऐसा रास्ता निकालें कि आउट ऑफ कोर्ट सेटलमेंट जैसी स्थितियां टाली जा सकें.

कॉलेजियम सिस्टम पर नजर तो अरसे से है

जजों के जनता की अदालत में आने से ठीक एक दिन पहले सीनियर एडवोकेट इंदु मल्होत्रा को सीधे सुप्रीम कोर्ट का जज बनाने की खबर आई थी. ये कॉलेजियम का ही फैसला था जिसमें उत्तराखंड के चीफ जस्टिस केएम जोसेफ को भी सुप्रीम कोर्ट के लिए सेलेक्ट किया गया.

...ताकि आउट ऑफ कोर्ट जैसी नौबत न आये!

कुछ मीडिया रिपोर्ट में सूत्रों के हवाले से बनी खबर में दोनों बातों को जोड़ कर देखा गया है. समझने वाली बात ये है कि इसके बहाने जजों की नियुक्ति के कॉलेजियम सिस्टम पर सवाल उठाने का सरकार को मौका मिल गया है. वैसे भी कॉलेजियम सिस्टम अरसे से सरकार के आंख की किरकिरी बना हुआ है. सरकार इसके लिए राष्ट्रीय न्यायिक नियुक्ति आयोग बिल लाने की कोशिश की तो न्यायपालिका ने इसे ठुकरा दिया. जब सरकार की ओर से कॉलेजियम सिस्टम में खामियां बताने की कोशिश हुई तो जजों ने आयोग के प्रस्ताव को ही सिरे से खारिज कर दिया. आयोग के पक्षधर सारे लोग मन मसोस कर रह गये. तभी से उन्हें मौके का इंतजार है. चीफ जस्टिस के खिलाफ साथियों के मोर्चा खोल देने के बाद प्रेसिडेंशियल रेफरेंस की संभावना को लेकर भी राय मशविरा का दौर जारी है.

एक बेहद नाजुक मौके पर जस्टिस चेलमेश्वर के घर जाने की बात पर सीपीआई नेता डी राजा जो भी सफाई दें - और प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के प्रधान सचिव नृपेंद्र मिश्रा अपनी कार में बैठे मीडिया के कैमरे में कैद हो जाने के बाद जो भी वजह बताये - जजों में पड़ी फूट का फायदा उठाने की बाकी बची संभावनाओं से इंकार करना काफी मुश्किल लगता है.

'मिलॉर्ड' मुखिया भी तो आप ही हैं!

ये सही है कि सुप्रीम कोर्ट में सभी जज बराबर हैं, लेकिन पहले तो चीफ जस्टिस ही हैं. पहला तो पहला ही होता है. इसलिए पूरा दारोमदार अब जस्टिस दीपक मिश्रा पर ही आ पड़ा है. वैसे भी मुखिया तो वही हैं. नाराजगी भी सभी की उन्हीं से है. कोई भी घर मुखिया नेतृत्व में ही चलता है. बाहरी दखल के साये में देखें तो ये भी घर का ही झगड़ा है. जैसे कई भाइयों में एक बड़ा तो बाकी सब छोटे होते हैं लेकिन परिवार की संपत्ति से लेकर हर मामले में वे बराबरी के हिस्सेदार होते हैं - ये मामला भी काफी हद तक उसके करीब ही लगता है.

...फिर तो लोकतंत्र का कोई कुछ भी नहीं बिगाड़ पाएगा

एकमत होने और मतभेद उभरने को लेकर दो बातें खासतौर पर अक्सर प्रसंग में आती रही हैं. एक है', 'डिवाइड एंड रूल' का सिद्धांत और दूसरा है - 'घर फूटे गंवार लूटे'. इसमें गंवार का जिस प्रसंग में जिक्र किया गया है जरूरी नहीं कि गुजरते वक्त के साथ भी उसका पुराना प्रसंग ही बरकरार रहे. गंवार से आशय उन सभी से है जो मौके की तलाश में बैठे हुए हों. गौर करने वाली बात तो ये है कि कथित गंवार ही फिलहाल हद से ज्यादा समझदार है. सुप्रीम कोर्ट के मुखिया को समझ में तो आ ही रहा होगा कि हर कोई ताक में बैठा है कि कब भाइयों में फूट पड़े और अपना काम बने. कोई आपको टूल बना रहा है तो कोई आप से बात करना चाहता है - वरना, लोहड़ी के दिन आपको घर जाकर नये साल का कार्ड देने का सच में क्या मतलब है?

कोई पुराने रिश्तों की दुहाई देता हुआ सीधे घर में घुस जाता है तो कोई घर पर धावा बोलने के लिए कुछ और बहाने बनाता है. अच्छा लगा आपने ऐसे लोगों से आपनी दूरी बनाने का फैसला किया. वैसे भी मौजूदा व्यवस्था में आपके फैसले पर टिप्पणी को कोई मतलब नहीं बनता. फिर भी ये तो कहना ही पड़ेगा कि इस मामले में भी आपका फैसला बेहतरीन ही रहा.

जजों के जनता की अदालत में आने का फैसला भी बेहतरीन ही माना जाना चाहिये. कम से कम इसी बहाने ये तो बता दिया गया कि सब ठीक नहीं चल रहा है. इस बहाने लोगों को ये सोचने का मौका तो मिला कि आखिर कौन ऐसी कोशिश कर रहा है है सब ठीक ठीक ठाक न चल पाये. जो बात करना चाहता है, उसका अपना मकसद है. मुमकिन है बातचीत में वो अपने तौर तरीके अख्तियार कर अपनी बात मनवाने की कोशिश में हो. निश्चित रूप से ये भी आपको ही तय करना है कि आप उसके साथ कैसे पेश आते हैं.

समझने की बात बस इतनी है कि अंजाम-ए-गुलिस्तां क्या हो सकता है जब हर शाख पर उल्लू बैठा हुआ हो - और वो हर वक्त मौके की तलाश में हो. वैसे भी कोई भ्रम पालने की जरूरत नहीं - कोई उसे उल्लू कहे या समझे, हकीकत तो ये है कि उसे तो उल्लू बनाने में महारत हासिल हो चुकी है. उसका नाम, पद या पक्ष कुछ भी हो सकता है - फिर तो वो किस कतार में कहां बैठा है बहुत मतलब नहीं बनता.

वैसे जनहित में और लोकतंत्र की हिफाजत के लिए गुजारिश यही है चिट्ठी न होते हुए भी इसे तार ही समझें, भले ही अब तार जैसी चीज तार-तार हो चुकी हो - सबसे अहम बात ये है कि इस थोड़े को ज्यादा जरूर समझें!

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इस लेख में लेखक ने अपने निजी विचार व्यक्त किए हैं. ये जरूरी नहीं कि आईचौक.इन या इंडिया टुडे ग्रुप उनसे सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ लेखक ही जिम्मेदार है.

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