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समाज

बलात्कार को उम्र में बांटकर जुर्म को छोटा बताना अपराध है...

    • सोनाली मिश्र
    • Updated: 03 फरवरी, 2018 02:53 PM
  • 03 फरवरी, 2018 02:53 PM
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ये तो पहले से ही लड़की को दोषी ठहराए जाने की एक मानसिकता है, वह इन लड़कों को प्रेरित करती है, वह इन लड़कों को प्रेरित करती है कि जाओ और जाकर उन पर आक्रमण करो.

इस समय दिल्ली में आठ महीने की बच्ची के बलात्कार की खबर है. मीडिया से लेकर सोशल मीडिया तक एक भयानक चुप्पी है. इस चुप्पी में हम सभी शामिल हैं, दरअसल हमारे पास बहस करने के लिए तमाम मुद्दे हैं, साहब का सूटबूट है, युवराज की जैकेट है, केजरीवाल के लिए व्यापारियों का विरोध है, शायद अब सबके अपने-अपने एजेंडे तय हैं तो ऐसे में उस लड़की की पीड़ा की तरफ ध्यान देने का समय नहीं है. इस समय पद्मावत की आग में जलती हुई राजस्थान में भाजपा है, या दीपिका की परदे पर जलती हुई पीड़ा के आधार पर स्वरा भास्कर का सबको योनि कह देना, मगर वह लड़की और उसकी पीड़ा सब कुछ इस परिद्रश्य से बाहर है. और हम? हम क्या कर रहे हैं? क्यों कर रहे हैं, क्या कह रहे हैं, ये हममें से किसी को भी नहीं पता है.

अभी हाल ही में पड़ोसी देश पाकिस्तान के पंजाब प्रांत में एक आठ बरस की छोटी बच्ची के साथ बेरहमी से किसी ने न केवल दुष्कर्म किया था बल्कि उसकी निर्ममता से ह्त्या भी कर दी थी. पूरा पाकिस्तान और पंजाब प्रांत गुस्से से उबल गया था, और कई दिन तक आक्रोश और प्रदर्शन हुए थे. हम क्या कर रहे हैं?

खैर, करने के नाम पर यदि हम कहें कि हम अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के नाम पर पोर्न का समर्थन करने लग जाते हैं, हम चाइल्ड पोर्न का भी समर्थन करते हैं. हर हाथ में मोबाइल है, हर हाथ में एक विस्फोट का सामान है, मगर दुःख की बात यह है कि यह विस्फोट समाज की लड़कियों के लिए हानिकारक है. जैसे ही किसी लड़की के साथ बलात्कार की खबर आती है वैसे ही दुःख जताने के साथ-साथ समाज बलात्कारी के पक्ष में खड़ा हो जाता है, “ठीक है, गलत हुआ मगर रात में क्या कर रही थी?” “बहुत दुःख हुआ, गलत हुआ, मगर साड़ी भी सही से पहनना था न”, “ठीक है, गलत हुआ, मगर कपड़े तो सही से पहनने थे न!”

ये तो पहले से ही लड़की को दोषी ठहराए जाने...

इस समय दिल्ली में आठ महीने की बच्ची के बलात्कार की खबर है. मीडिया से लेकर सोशल मीडिया तक एक भयानक चुप्पी है. इस चुप्पी में हम सभी शामिल हैं, दरअसल हमारे पास बहस करने के लिए तमाम मुद्दे हैं, साहब का सूटबूट है, युवराज की जैकेट है, केजरीवाल के लिए व्यापारियों का विरोध है, शायद अब सबके अपने-अपने एजेंडे तय हैं तो ऐसे में उस लड़की की पीड़ा की तरफ ध्यान देने का समय नहीं है. इस समय पद्मावत की आग में जलती हुई राजस्थान में भाजपा है, या दीपिका की परदे पर जलती हुई पीड़ा के आधार पर स्वरा भास्कर का सबको योनि कह देना, मगर वह लड़की और उसकी पीड़ा सब कुछ इस परिद्रश्य से बाहर है. और हम? हम क्या कर रहे हैं? क्यों कर रहे हैं, क्या कह रहे हैं, ये हममें से किसी को भी नहीं पता है.

अभी हाल ही में पड़ोसी देश पाकिस्तान के पंजाब प्रांत में एक आठ बरस की छोटी बच्ची के साथ बेरहमी से किसी ने न केवल दुष्कर्म किया था बल्कि उसकी निर्ममता से ह्त्या भी कर दी थी. पूरा पाकिस्तान और पंजाब प्रांत गुस्से से उबल गया था, और कई दिन तक आक्रोश और प्रदर्शन हुए थे. हम क्या कर रहे हैं?

खैर, करने के नाम पर यदि हम कहें कि हम अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के नाम पर पोर्न का समर्थन करने लग जाते हैं, हम चाइल्ड पोर्न का भी समर्थन करते हैं. हर हाथ में मोबाइल है, हर हाथ में एक विस्फोट का सामान है, मगर दुःख की बात यह है कि यह विस्फोट समाज की लड़कियों के लिए हानिकारक है. जैसे ही किसी लड़की के साथ बलात्कार की खबर आती है वैसे ही दुःख जताने के साथ-साथ समाज बलात्कारी के पक्ष में खड़ा हो जाता है, “ठीक है, गलत हुआ मगर रात में क्या कर रही थी?” “बहुत दुःख हुआ, गलत हुआ, मगर साड़ी भी सही से पहनना था न”, “ठीक है, गलत हुआ, मगर कपड़े तो सही से पहनने थे न!”

ये तो पहले से ही लड़की को दोषी ठहराए जाने की एक मानसिकता है, वह इन लड़कों को प्रेरित करती है, वह इन लड़कों को प्रेरित करती है कि जाओ और जाकर उन पर आक्रमण करो. हर हाथ में मोबाइल, नेट की उपलब्धता और उसके बाद पोर्न की उपलब्धता, ये सब कुछ आपके बच्चों के हाथों से बचपन छीनकर उनमें शारीरिक कुंठा भर रहा है. सेक्स अलग है, पोर्न अलग बात है. सेक्स के माध्यम से पोर्न का बाज़ार बनाते बनाते कब हम अपनी ही बच्चियों के दुश्मन बन बैठे हैं, हमें ही नहीं पता. लडकियां आज केवल और केवल उत्पाद हैं, और हम उन उत्पादों को नए-नए रैपर में लपेट कर दे रहे हैं. जहां एक तरफ लड़कियों को एक उत्पाद के रूप में पेश करने में मीडिया सबसे आगे है, वहीं उसे टीवी पर उत्पाद के रूप में देखने वाला एक वर्ग फिर लड़की को ही परदे में रखने में लग जाता है. समझ नहीं आता कि सुबह से लेकर शाम तक ये लोग केवल लड़कियों के लिए ही नियम और कायदे क्यों बनाने लगते हैं. एक तरफ कुछ लोग हैं, जो फुटबॉल मैच को ही लड़कियों के लिए हराम बता देते हैं, क्योंकि उनके मुताबिक़ लड़कियां मैच देखने नहीं बल्कि खुली टांगें देखने आती हैं.

भई, गज़ब है लड़कियों को ही सबके लिए जिम्मेदार ठहराना! मगर दिल्ली में जब वह आठ महीने की बच्ची अपनी आँखें खोलकर टुकर-टुकर पूछेगी कि क्या मैंने कपड़े छोटे पहने थे जो आप फिसल गए! तब उन दरिंदों के पास कोई जबाव नहीं होगा, जब वह पूछेगी कि क्या मैंने रिवीलिंग कपड़े पहने, तो भी कोई जबाव नहीं होगा, और जब वह पूछेगी कि मैं तो शोर भी नहीं मचा पाई, मैं कुछ कह भी नहीं पाई, तो भी कोई जबाव नहीं होगा!

उस आठ महीने की बच्ची के लिए हमारे पास कोई जबाव नहीं होगा, और शायद बलात्कार की शिकार उन बच्चियों के लिए भी हमारे पास कोई जबाव नहीं होता है क्योंकि समाज बलात्कारियों के प्रति एक सॉफ्ट कॉर्नर हमेशा बचाकर रखता है.

उसके पास लड़कियों को कठघरे में खड़ा करने के लिए तमाम तर्क हैं, मगर खुद के लिए नहीं! बस वह पोर्न और सेक्स में अंतर कर सेक्स को सेक्स की तरह लेने लगे तो लड़कियों का जीवन बच जाए, नहीं तो इस आठ महीने की बच्ची की तरह और भी बच्चियां अभी अस्पताल की तरफ आएंगी. और भगवान के लिए बलात्कार बलात्कार है चाहे वह आठ महीने की बच्ची का हो या साठ साल की स्त्री का, या चौबीस या पैंतीस साल की महिला का! आत्मा पर प्रहार है वह, किसी के अस्तित्व और जीवन को समाप्त करने की कुंठित साज़िश का नाम है, जैसे ही हम यह कहते हैं कि आठ माह की बच्ची या साठ साल की महिला तक के साथ, तो यह तक शब्द उन सभी बलात्कारों की पीड़ा को कहीं न कहीं बहुत हल्का कर देता है, जो युवा लड़कियों की देह को रौंदकर खड़ा होता है. बलात्कार बलात्कार है, जितना घ्रणित वह छोटे सी बच्ची के साथ है, उतना ही घ्रणित वह बड़ी लड़की के साथ. लड़कियों को उम्र के हिसाब से बांटकर बलात्कार को कम न आंकिये.

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इस लेख में लेखक ने अपने निजी विचार व्यक्त किए हैं. ये जरूरी नहीं कि आईचौक.इन या इंडिया टुडे ग्रुप उनसे सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ लेखक ही जिम्मेदार है.

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