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मंदसौर रेप: ये सूची कब ख़त्म होगी?

    • प्रीति अज्ञात
    • Updated: 01 जुलाई, 2018 06:11 PM
  • 01 जुलाई, 2018 06:07 PM
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दुःखद है कि इतना सब कुछ बार-बार होने के बाद भी न तो अपराध रुके और न ही उस पर होने वाली राजनीति. कुछ निर्लज़्ज़ तो यह भी कहने में नहीं हिचकते कि 'विधायक आए हैं, उन्हें धन्यवाद दीजिए.' किस बात का धन्यवाद चाहिए था इनको?

मंदसौर की सम्पूर्ण घटना का विवरण इतना क्रूर और जघन्य है कि उसे बोलते समय आपकी ज़बान साथ छोड़ देती है. शब्द लड़खड़ाकर न बोले जाने की भीख मांगते हैं. पूरा शरीर कांपने लगता है और उस मासूम बच्ची की पीड़ा को महसूस कर हृदय चीत्कार कर उठता है.

यक़ीन मानिये इसे पढ़ते-सुनते समय आप दुःख और ग्लानि के इतने गहरे समंदर में डूब जाते हैं कि इस समाज में अपने होने का अर्थ एवं औचित्य तलाशने लगते हैं. अनायास ही उन तमाम खिलखिलाते बच्चों के चेहरे आंखों में घूमने लगते हैं, जिन्हें इस दुनिया के सुन्दर होने पर अब भी भरोसा है. जो अब भी बाग़ में खिलते फूलों पर भटकती तितलियों को देख हंसते हुए उनके पीछे दौड़ते हैं. जिन्हें चॉकलेट, आइसक्रीम, टॉफ़ी खाना ख़ूब सुहाता है और जिनका मासूम हृदय किसी अंकल की घिनौनी सोच और निकृष्टम कुत्सित इरादों को पढ़ नहीं पाता. ये इनकी नहीं, इस उम्र की स्वाभाविक असमर्थता है, क्योंकि हमारे जिग़र के ये टुकड़े बस इतना ही जानते, समझते हैं कि मनुष्य तमाम भौतिक सुख-सुविधाओं के साथ समाज में रहता है और खूंखार जानवर जंगल में. अभी उनकी इतनी उम्र ही कहां हुई कि वे समझ सकें कि कुछ पुरुष शरीर के भीतर एक खूंखार, जंगली जानवर भी दांत निकाले चीर डालने को बैठा होता है.

बच्चों को तो हर इंसान अपना-सा लगता है और इसी अपनेपन में वे अनजान शख़्स पर भरोसा कर उसकी उंगली थाम चल पड़ते हैं. किसी की नीयत पढ़ पाने का हुनर बचपन में नहीं आता! बचपन, छल-कपट से दूर भरोसे में जीता है. प्यार की भाषा ही बोलता-समझता है, ईमानदारी में विश्वास रखता है. जीवन की कड़वी सच्चाइयां तो इस पड़ाव के दो दशक पूर्ण होने के बाद ही समझ आती हैं. वरना हर मां अपने बच्चे को सिखाती ही है कि किसी अनजान व्यक्ति के साथ कभी नहीं जाना चाहिए, लेकिन इस बात की समझ भी तो एक पकी उम्र की मांग करती है. आज जबकि हम उस समाज में रह रहे हैं जहां बलात्कारी छह माह की बच्ची...

मंदसौर की सम्पूर्ण घटना का विवरण इतना क्रूर और जघन्य है कि उसे बोलते समय आपकी ज़बान साथ छोड़ देती है. शब्द लड़खड़ाकर न बोले जाने की भीख मांगते हैं. पूरा शरीर कांपने लगता है और उस मासूम बच्ची की पीड़ा को महसूस कर हृदय चीत्कार कर उठता है.

यक़ीन मानिये इसे पढ़ते-सुनते समय आप दुःख और ग्लानि के इतने गहरे समंदर में डूब जाते हैं कि इस समाज में अपने होने का अर्थ एवं औचित्य तलाशने लगते हैं. अनायास ही उन तमाम खिलखिलाते बच्चों के चेहरे आंखों में घूमने लगते हैं, जिन्हें इस दुनिया के सुन्दर होने पर अब भी भरोसा है. जो अब भी बाग़ में खिलते फूलों पर भटकती तितलियों को देख हंसते हुए उनके पीछे दौड़ते हैं. जिन्हें चॉकलेट, आइसक्रीम, टॉफ़ी खाना ख़ूब सुहाता है और जिनका मासूम हृदय किसी अंकल की घिनौनी सोच और निकृष्टम कुत्सित इरादों को पढ़ नहीं पाता. ये इनकी नहीं, इस उम्र की स्वाभाविक असमर्थता है, क्योंकि हमारे जिग़र के ये टुकड़े बस इतना ही जानते, समझते हैं कि मनुष्य तमाम भौतिक सुख-सुविधाओं के साथ समाज में रहता है और खूंखार जानवर जंगल में. अभी उनकी इतनी उम्र ही कहां हुई कि वे समझ सकें कि कुछ पुरुष शरीर के भीतर एक खूंखार, जंगली जानवर भी दांत निकाले चीर डालने को बैठा होता है.

बच्चों को तो हर इंसान अपना-सा लगता है और इसी अपनेपन में वे अनजान शख़्स पर भरोसा कर उसकी उंगली थाम चल पड़ते हैं. किसी की नीयत पढ़ पाने का हुनर बचपन में नहीं आता! बचपन, छल-कपट से दूर भरोसे में जीता है. प्यार की भाषा ही बोलता-समझता है, ईमानदारी में विश्वास रखता है. जीवन की कड़वी सच्चाइयां तो इस पड़ाव के दो दशक पूर्ण होने के बाद ही समझ आती हैं. वरना हर मां अपने बच्चे को सिखाती ही है कि किसी अनजान व्यक्ति के साथ कभी नहीं जाना चाहिए, लेकिन इस बात की समझ भी तो एक पकी उम्र की मांग करती है. आज जबकि हम उस समाज में रह रहे हैं जहां बलात्कारी छह माह की बच्ची से लेकर अस्सी वर्ष की वृद्धा तक को नहीं बख़्शता, तो ऐसे में हमारे बच्चे कहां जाएं? क्या जन्म लेते ही सबसे पहले उन्हें बलात्कार का मतलब समझाया जाए? उनके भोले बचपन को छिन्न-भिन्न कर अब तक हुई सारी अमानवीय घटनाओं को उन्हें पढ़ाया जाए कि देखो! तुम जहां जन्मे हो, वहां यह भी होता है. क्या हम हर समय एक सहमे, भयभीत चेहरे को देखने के लिए तैयार हैं? पर यदि बच्चों को बचाना है तो यह तैयारी तो अब हमें करनी ही होगी. उनके मस्तिष्क में यह ठूस-ठूसकर भरना होगा कि तुम्हारे आसपास कोई जंगली भेड़िया भी घूम रहा है. दुःखद है कि इतना सब कुछ बार-बार होने के बाद भी न तो अपराध रुके और न ही उस पर होने वाली राजनीति. कुछ निर्लज़्ज़ तो यह भी कहने में नहीं हिचकते कि "विधायक आए हैं, उन्हें धन्यवाद दीजिए." किस बात का धन्यवाद चाहिए था इनको कि

"धन्यवाद, आप और आपका प्रशासन निकम्मा है?"

"धन्यवाद, कि आज हमारी बेटी जीवन-मृत्यु के बीच झूल रही है!"

"धन्यवाद, कि हमारी इस अथाह पीड़ा में भी आप मुस्कुराने का साहस कर पा रहे हैं!"

"धन्यवाद, कि आपको इस दर्द के राजनीतिकरण का एक और विषय मिल गया!"

धिक्कार है ऐसे लोगों पर और उनकी गिरी हुई सोच पर कि इन्हें किसी के दर्द से कोई मतलब नहीं. तुम और तुम्हारे जैसे सभी घटिया लोग, कान खोलकर सुनो और यदि थोड़ा भी शेष है तो उस दिमाग़ में ये बात अच्छे से गुदवा लो कि "ख़ून या दर्द कभी हिन्दू-मुस्लिम नहीं होता! 'हिन्दू-मुस्लिम' शब्द के नाम पर प्रायोजित दंगे होते हैं, यह चुनाव का मन्त्र होता है, वोट को भुनाने और मानवता की जड़ में ज़हर का बीज रोपने का वीभत्स तरीक़ा होता है." भारतीय संस्कृति की दुहाई देने वाले तथाकथित देशभक्तों को हर बात में अपराधी की जात देखने के पहले अपराध को समझना होगा, उसके विरोध में बेझिझक खड़ा होना होगा. इन्हें सजा देने के लिए सत्ता-विपक्ष, धर्म-जाति के निंदनीय कुतर्कों से परे हो समवेत स्वर में आवाज़ उठानी होगी. यह भी समझिये कि जिस भी दल का झंडा थामे आप लोगों से निरर्थक भिड़ रहे हैं, उस दल के लिए आप एक प्यादे भर हैं जो केवल बलिदान के काम आता है.

बलात्कार जैसे कुकृत्य तब तक नहीं रुकेंगे जब तक कि अपराधियों को उनके किये का क्रूरतम दंड नहीं मिलेगा. इनके लिए कोई वक़ील नहीं होना चाहिए. इनके शरीर को कहीं भी जगह न मिले. इनके परिवार का सामाजिक बहिष्कार हो. फांसी एक आसान सज़ा है. इन्हें भूखे शेर के आगे फेंक देना चाहिए. जंगली कुत्तों से नुचवाना चाहिए. इनके हाथ-पैर काट देने के बाद इन्हें किसी गहरी खाई में उछाल देना चाहिए कि इनकी आने वाली पीढ़ियां भी ये दुर्गति देख सदियों सिहरती रहें. समाज और प्रशासन को उन माता-पिता से हाथ जोड़ क्षमा मांगनी चाहिए, उनके पैरों में गिर जाना चाहिए कि "हम आपकी बेटी को इस पीड़ा से बचा पाने में असमर्थ रहे." यूं दर्द तो यह जीवन भर का है. किसी की सज़ा या किसी का गिड़गिड़ाना इसे रत्ती भर भी कम नहीं कर सकता. उन बदहवास माता-पिता के कानों में अपनी बेटी की चीखें गूंजती रहेंगी, उसका बहता लहू उनकी पलकों तले रिसता रहेगा. सरकार से यही विनती है कि हो सके तो, वो जो एक कानून बनाया है, उम्र के हिसाब से. उसी के तहत ही सही पर इस कुकर्मी, दरिंदे को दुनिया से हटा दो और जिन्हें इससे हमदर्दी है उन्हें भी.

ऐसे अपराध अब नहीं होंगे, यह सोच लेना भी मन को झूठा भरमाना ही है. ये क्रम कब और कहाँ रुकेगा, पता नहीं! 'मानवता' शब्द भी मज़ाक भर रह गया है. इंसानियत मर ही चुकी है.

क्या करें! क्या कहें!

बच्चों से उनका बचपन और सभी माँओं से उनके हिस्से की नींद छीन ली गई है. इधर एक सर्वे में 'भारत को महिलाओं के लिए सबसे असुरक्षित देश' कहा गया है. इस ख़बर से एक पक्ष शर्मिंदा और दुःखी महसूस कर रहा तो वहीं दूसरों का चेहरा तमतमाया हुआ है. वे चीखकर कहते हैं "तो फिर पाकिस्तान में रहो, सीरिया में रहो" लेकिन इस बात को स्वीकारने और मूल समस्या को समझने में उनको लकवा मार जाता है कि तमाम ख़ूबियों और सुंदरता के बाद भी यही वह देश भी है जहाँ विदेशी सैलानियों के साथ दुर्व्यवहार और बलात्कार की ख़बरें आम हैं. जहाँ हर दूसरे दिन किसी न किसी शहर में एक स्त्री की लाश नाले में पड़ी मिलती है. हारे हुए तथाकथित प्रेमी द्वारा उसे कभी एसिड डालकर जला दिया जाता है तो कभी ससुराल पक्ष द्वारा पेट्रोल डालकर. कभी फ्रीज़र तो कभी तंदूर से उसके टुकड़े मिलते हैं. रेप के सरकारी आँकड़े देखकर ही पसीना छूट जाए जबकि उसके दोगुने तो भय और अपमान के कारण दर्ज़ भी नहीं होते. कन्या भ्रूण हत्या की बात भी किसी से छिपी नहीं रही. बेटे की आस में घरेलू हिंसा और मानसिक प्रताड़ना की तो अनगिनत; अनसुनी, अनकही कहानियाँ हैं. विकास के इस स्वर्णिम दौर में बाल-विवाह अब भी होते हैं. विधवाओं की स्थिति में कोई सुधार नहीं. अकेली स्त्री को उपलब्ध मान लिया जाता है. न्याय की गुहार लगाते हुए एक शिक्षिका सस्पेंड कर दी जाती है.

जी, हो सकता है कि यह सर्वे और उस पर आधारित रिपोर्ट पूर्ण रूप से सच न भी हो पर क्या हमारा सातवाँ नंबर ही रहता तो हम तसल्ली से हाथ झाड़ शर्मिंदा नहीं होते? सूची से आप इसलिए सहमत नहीं क्योंकि आपका नंबर पहला है पर क्या इस सूची में होना ही वस्तुस्थिति स्पष्ट करने के लिए पर्याप्त नहीं?

इसमें कोई दो राय नहीं कि समय के साथ परिवर्तन आया है और स्त्रियाँ भी पहले से अधिक जागरूक हो गई हैं. लेकिन जब तक निर्भया, आसिफा और मंदसौर की इस बच्ची के साथ ऐसे घृणित कुकर्म होते रहेंगे, तब तक आईना देखने के लिए इस सूची की भी कोई आवश्यकता नहीं! प्रयास इस सूची से बाहर निकलने का होना चाहिए न कि तमतमाने का. यह भी तय है कि यदि यही सूची सकारात्मक बात के लिए होती तो अभी यही सब लोग एक दूसरे की पीठ थपथपा रहे होते और तब इसकी विश्वसनीयता पर भी कोई संदेह नहीं होता. हम तारीफ़ पसंद लोग जो हैं. खैर! आप सब सुरक्षित रहें और अपने बच्चों का ध्यान रखें. किसी से कोई भी उम्मीद न रख, उन्हें सुरक्षित वातावरण देने की व्यवस्था स्वयं करें.

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इस लेख में लेखक ने अपने निजी विचार व्यक्त किए हैं. ये जरूरी नहीं कि आईचौक.इन या इंडिया टुडे ग्रुप उनसे सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ लेखक ही जिम्मेदार है.

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