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पैगंबर मोहम्मद पर कूड़ा फेंकने वाली बुढ़िया के साथ क्या सुलूक हुआ था, भूल गए?

    • नवेद शिकोह
    • Updated: 02 नवम्बर, 2020 04:13 PM
  • 02 नवम्बर, 2020 04:12 PM
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पैगंबर मोहम्मद (Prophet Mohammad) के समय मुसलमानों (Muslims) के किरदार में वाकई इस्लाम (Islam) का रंग झलकता था. जो अब काफी धुंधला होता जा रहा है. इस्लाम के उदय के समय सुन्नते रसूल पर खूब अमल होता था. नहीं तो रसूल पर कूड़ा फेकने वाली बुढ़िया की गर्दन काट दी जाती.

आज के कुछ मुसलमान (Muslim) अपने रसूल मोहम्मद साहब (Prophet Mohammad) के कार्टून से नाराज होकर गर्दन रेत देते हैं. लेकिन रसूल की हया में उनके सहाबा ने उस बुढ़िया के खिलाफ भी कोई क़दम नहीं उठाया जो रसूल पर रोज़ कूड़ा फेकती थी. बल्कि जब रसूल की कट्टर विरोधी बुढ़िया बीमार पड़ी तो पैगम्बरे इस्लाम (Islam) और उनके सहाबा ने उसके इलाज का इंतजाम किया. हजरत मोहम्मद मुस्तफा के जमाने में संयुक्त राष्ट्र संघ नहीं था. मानवाधिकार कानून भी नहीं था. हाथों में तलवारें ऐसे रहती थीं जैसे आज लोगों के पैरों में जूते-चप्पलें और जेब में मोबाइल रहते हैं. जिस तरह आज सिविल सर्विसेज, नीट, प्रवेश परीक्षाएं इत्यादि होती हैं वैसे पहले जंगे होती थी. ऐसा माहौल था. फिर भी रसूल पर कूड़ा फेकने वाली बुढ़िया का विरोध नहीं हुआ बल्कि जब बुढ़िया बीमार हुई तो रसूल ने उसका इलाज करवाया.

महात्मा गांधी से चौदह सौ साल पहले मोहम्मद साहब ने प्रतिशोध और विरोध को एक नई सकारात्मक सूरत दी थी. जिसे महत्मा गांधी ने भी अपने चरित्र मे ढाला और फिर शांतिप्रिय भारतीय समाज ने उसे गांधीगीरी नाम देकर दुनिया के सामने सकारात्मक सोच का एक नमूना पेश किया. कहा जाता है कि अरब की धरती पर हिंसा, नफरत, कबीलों के बीच द्वेष, खेमेबाजी, गुटबाजी, कट्टरता, प्रतिशोध की भावना की अति और उग्रता को खत्म करने के लिए अल्लाह ने हजरत मोहम्मद मुस्तफा को अपना पैगम्बर बनाकर भेजा था.

फ्रांस द्वारा रसूल का कार्टून बनाए जाने के बाद हिंसा के कई मामले सामने आ चुके हैं

संकीर्ण मानसिकता, प्रतिस्पर्धा की शिद्दत, हवस, साम्प्रदायिकता और नफरत के खात्मे के लिए रसूल-ए-पाक ने मोहब्बत के पैगाम दिये. अपने आचरण और व्यवहार से इंसानियत के नमूने पेश किये। उनके किरदार पर अमल करना सुन्नते रसूल है. अस्ल मुसलमान सुन्नते रसूल...

आज के कुछ मुसलमान (Muslim) अपने रसूल मोहम्मद साहब (Prophet Mohammad) के कार्टून से नाराज होकर गर्दन रेत देते हैं. लेकिन रसूल की हया में उनके सहाबा ने उस बुढ़िया के खिलाफ भी कोई क़दम नहीं उठाया जो रसूल पर रोज़ कूड़ा फेकती थी. बल्कि जब रसूल की कट्टर विरोधी बुढ़िया बीमार पड़ी तो पैगम्बरे इस्लाम (Islam) और उनके सहाबा ने उसके इलाज का इंतजाम किया. हजरत मोहम्मद मुस्तफा के जमाने में संयुक्त राष्ट्र संघ नहीं था. मानवाधिकार कानून भी नहीं था. हाथों में तलवारें ऐसे रहती थीं जैसे आज लोगों के पैरों में जूते-चप्पलें और जेब में मोबाइल रहते हैं. जिस तरह आज सिविल सर्विसेज, नीट, प्रवेश परीक्षाएं इत्यादि होती हैं वैसे पहले जंगे होती थी. ऐसा माहौल था. फिर भी रसूल पर कूड़ा फेकने वाली बुढ़िया का विरोध नहीं हुआ बल्कि जब बुढ़िया बीमार हुई तो रसूल ने उसका इलाज करवाया.

महात्मा गांधी से चौदह सौ साल पहले मोहम्मद साहब ने प्रतिशोध और विरोध को एक नई सकारात्मक सूरत दी थी. जिसे महत्मा गांधी ने भी अपने चरित्र मे ढाला और फिर शांतिप्रिय भारतीय समाज ने उसे गांधीगीरी नाम देकर दुनिया के सामने सकारात्मक सोच का एक नमूना पेश किया. कहा जाता है कि अरब की धरती पर हिंसा, नफरत, कबीलों के बीच द्वेष, खेमेबाजी, गुटबाजी, कट्टरता, प्रतिशोध की भावना की अति और उग्रता को खत्म करने के लिए अल्लाह ने हजरत मोहम्मद मुस्तफा को अपना पैगम्बर बनाकर भेजा था.

फ्रांस द्वारा रसूल का कार्टून बनाए जाने के बाद हिंसा के कई मामले सामने आ चुके हैं

संकीर्ण मानसिकता, प्रतिस्पर्धा की शिद्दत, हवस, साम्प्रदायिकता और नफरत के खात्मे के लिए रसूल-ए-पाक ने मोहब्बत के पैगाम दिये. अपने आचरण और व्यवहार से इंसानियत के नमूने पेश किये। उनके किरदार पर अमल करना सुन्नते रसूल है. अस्ल मुसलमान सुन्नते रसूल पर अमल करते हैं. मोहम्मद साहब ने बुढ़िया वाले वाक़िये से ये पैगाम दिया था कि यदि कोई आपके साथ बुरा करे तो आप उसके साथ अच्छा व्यवहार करें. ऐसा आचरण और व्यवहार सुन्नते रसूल हो गया.

यानी मुसलमानों के लिए ये सुन्नत है कि अगर आपके साथ कोई बुरा करे तो आप इसके विपरीत उसके साथ कुछ अच्छा करके सकारात्मक विरोध प्रदर्शन करें. भारतीय गांधीगीरी का कन्सेप्ट गांधी के किरदार से पैदा हुआ. और महत्मा गांधी ने कहा था कि मैंने इस तरह की मजलूमियत का सबक हजरत इमाम हुसैन से सीखा. और इमाम हुसैन ने विरोधी से प्यार करने का हुनर अपने नाना मोहम्मद साहब से सीखा था.

रसूल के बारे में सबसे ज्यादा प्रचलित किस्सा सब जानते हैं. जब वो नमाज पढ़ने मस्जिद जाते थे तो रास्ते में पड़ने वाले घर से एक बूढ़ी औरत उनपर कूड़ा फेकती थी. जब वो बीमार पड़ गई और उसने कूड़ा नहीं फेका तो रसूल ने उसके इलाज का इंतजाम किया. तमाम जईफ (काफी पुरानी) रवायतों में मुसलमानों के अलग-अलग फिरकों में मतभेद हैं लेकिन बुढ़िया का रसूल पर कूड़ा फेकने की रवायत को सबने स्वीकारा है. इसका जिक्र मुसलमानों के हर फिरक़े और हर मसलक के विद्वानों ने अपनी-किताबों मे किया है.

एक और बात है जिसे इस्लामी जगत का हर फिरक़ा मानता है. वो ये कि सुन्नत-ए-रसूल पर अमल करना सवाब है. सुन्नत-ए-रसूल का मतलब है कि यदि आप रसूल के पहनावे, गेटअप, दाढी-मूंछे, खान-पान, तौर-तरीके, आचरण-व्यवहार को अपनायेंगे तो आपको सवाब होगा. आपकी शख्सियत निखरेगी. आप पक्के मुसलमान कहलायेंगे.

अब लगता है कि पैगम्बरे इस्लाम के समय मुसलमानों के किरदार में वाकई इस्लाम का रंग झलकता था. जो अब काफी धुंधला होता जा रहा है. इस्लाम के उदय के समय सुन्नते रसूल पर खूब अमल होता था. नहीं तो रसूल पर कूड़ा फेकने वाली बुढ़िया की गर्दन काट दी जाती. उग्र प्रदर्शनकारी बुढ़िया का घर.. उसकी बस्ती यहां तक कि उसका पूरा इलाका उजाड़ सकते थे.

आज दुनिया के मुसलमान एक कार्टून पर इतना ज्यादा जज्बाती हो जाते हैं कि दुनिया की शांति को खतरा पैदा हो जाता है. कोई ये नहीं कहता कि किसी के भगवान, रसूल या गॉड के बारे में कोई कुछ भी टिप्पणी करे तो स्वीकार है. भावनाएं आहत करने वाले कृत्य का विरोध कीजिए. असहमति व्यक्त कीजिए. लेकिन विरोध या असहमति का वो शांतिप्रिय तरीका अपनाइए जो आपके रसूल... भगवान.. गॉड... ने आपको बताया है.

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इस लेख में लेखक ने अपने निजी विचार व्यक्त किए हैं. ये जरूरी नहीं कि आईचौक.इन या इंडिया टुडे ग्रुप उनसे सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ लेखक ही जिम्मेदार है.

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