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मत दिखिए हमेशा चकाचक!

    • सुजाता
    • Updated: 23 फरवरी, 2018 08:46 PM
  • 23 फरवरी, 2018 08:45 PM
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PMS (Premenstrual syndrome) बहुत ही बुरा साबित हो सकता है. किसी-किसी का एक हफ्ता पीएमएस की भेंट चढ जाता है. अपने मूड-स्विंग्स को संभालो, आत्महत्या के खयालों से उबरो, फिर तीन-चार दिन उठने-बैठने में सतर्क रहो लेकिन हँसों और चकाचक बनकर बाहर निकलो!

चालीस की उम्र तक भी मुझे यह याद नहीं रहता कि यह जो लगातार का चिड़चिड़ापन, नकारात्मकता, निराशा, देह में भरी हुई बेचैनी और चीस उठती हुई पाँवों, कमर और नाभि के नीचे यह सब PMS (Premenstrual syndrome) है. जर्मेन ग्रीयर कहती है कि जब तक तंग न करे, कोख हमें भूली रहती है. दुनिया के हज़ार झमेले हैं, खाना-वाना, बर्तन- वर्तन, बच्चे- औलादें, नौकरी- चाकरी, पढ़ाना- पढ़ना, लिखना, आना- जाना, मीटिंग- सेमिनार, कि याद ही नहीं रहता अपनी भी एक डेट है. यह डेटिंग तो दुनिया की हर डेटिंग से ज़रूरी. बराबर तरह से सबको भारी नहीं पड़ती होगी, लेकिन रहने-सहने पर इसका असर ज़रूर रहता है.

किसी-किसी का एक हफ्ता पीएमएस की भेंट चढ जाता है, अपने मूड-स्विंग्स को सम्भालो, आत्महत्या के खयालों से उबरो, फिर तीन-चार दिन उठने-बैठने में सतर्क रहो लेकिन हँसों और चकाचक बनकर बाहर निकलो! बीमारी नहीं है यह, लेकिन फैले-बिखरे घर की तरह इसे भी मैनेज करना होता है. आपके मैनेज करने के बूते से बाहर हुआ और रूटीन ज़िंदगी को नुकसान (इस नुकसान को समझना आसान नहीं) पहुँचाने लगा तो अलार्म बज रहा है आपके घर में, समझिए!

सालों पहले अपनी समस्या समझ आई थी तो गूगल सर्च किया. पता चला पीएमएस की सबसे विख्यात उदाहरण मर्लिन मुनरो थीं. क्या गज़ब फिगर, क्या खूबसूरती, उसके उड़ते हुए फ्रॉक वाले छब्बीस फुटे स्टैच्यू की छाँह तक में खड़ा होना कितना दिलकश होगा! लेकिन उस वक़्त कौन सोचता है कि यह चकाचक चेहरा और चकाचक देह जो 50 से 60 के दशक में सेक्स-बम कही जाती रही वह प्री मेंस्ट्रुअल सिण्ड्रोम की ऐसी भयानक वाली शिकार थी कि अपने मूड-स्विंग्स को मैंनेज नहीं कर पाती थीं. अक्सर प्रोड्यूसर्स बाद-बाद को उसके साथ काम करने से कतराने लगे कि शी इज़ डिफिकल्ट टू वर्क विथ. एण्टी-डिप्रेसेण्ट और जाने क्या-क्या दवाएँ तंत्रिकाओं को शांत करने के लिए वह लेती थी और उसी के ओवरडोज़ से जान भी गई. जानें आत्महत्या थी या...सर्च करिए नेट तो बहुत कुछ मिलेगा.

चालीस की उम्र तक भी मुझे यह याद नहीं रहता कि यह जो लगातार का चिड़चिड़ापन, नकारात्मकता, निराशा, देह में भरी हुई बेचैनी और चीस उठती हुई पाँवों, कमर और नाभि के नीचे यह सब PMS (Premenstrual syndrome) है. जर्मेन ग्रीयर कहती है कि जब तक तंग न करे, कोख हमें भूली रहती है. दुनिया के हज़ार झमेले हैं, खाना-वाना, बर्तन- वर्तन, बच्चे- औलादें, नौकरी- चाकरी, पढ़ाना- पढ़ना, लिखना, आना- जाना, मीटिंग- सेमिनार, कि याद ही नहीं रहता अपनी भी एक डेट है. यह डेटिंग तो दुनिया की हर डेटिंग से ज़रूरी. बराबर तरह से सबको भारी नहीं पड़ती होगी, लेकिन रहने-सहने पर इसका असर ज़रूर रहता है.

किसी-किसी का एक हफ्ता पीएमएस की भेंट चढ जाता है, अपने मूड-स्विंग्स को सम्भालो, आत्महत्या के खयालों से उबरो, फिर तीन-चार दिन उठने-बैठने में सतर्क रहो लेकिन हँसों और चकाचक बनकर बाहर निकलो! बीमारी नहीं है यह, लेकिन फैले-बिखरे घर की तरह इसे भी मैनेज करना होता है. आपके मैनेज करने के बूते से बाहर हुआ और रूटीन ज़िंदगी को नुकसान (इस नुकसान को समझना आसान नहीं) पहुँचाने लगा तो अलार्म बज रहा है आपके घर में, समझिए!

सालों पहले अपनी समस्या समझ आई थी तो गूगल सर्च किया. पता चला पीएमएस की सबसे विख्यात उदाहरण मर्लिन मुनरो थीं. क्या गज़ब फिगर, क्या खूबसूरती, उसके उड़ते हुए फ्रॉक वाले छब्बीस फुटे स्टैच्यू की छाँह तक में खड़ा होना कितना दिलकश होगा! लेकिन उस वक़्त कौन सोचता है कि यह चकाचक चेहरा और चकाचक देह जो 50 से 60 के दशक में सेक्स-बम कही जाती रही वह प्री मेंस्ट्रुअल सिण्ड्रोम की ऐसी भयानक वाली शिकार थी कि अपने मूड-स्विंग्स को मैंनेज नहीं कर पाती थीं. अक्सर प्रोड्यूसर्स बाद-बाद को उसके साथ काम करने से कतराने लगे कि शी इज़ डिफिकल्ट टू वर्क विथ. एण्टी-डिप्रेसेण्ट और जाने क्या-क्या दवाएँ तंत्रिकाओं को शांत करने के लिए वह लेती थी और उसी के ओवरडोज़ से जान भी गई. जानें आत्महत्या थी या...सर्च करिए नेट तो बहुत कुछ मिलेगा.

लेकिन कहने की बात सिर्फ इतनी सी नहीं है. कहने को तो आँकड़े बताते हैं कि अस्सी प्रतिशत तक औरतें अलग-अलग स्तर के पीएमएस लक्षणों से ग्रस्त हैं. कहने की बात कुछ-कुछ वही है जो सोनम कपूर की आजकल सोशल मीडिया पर फिर से घूमती हुई चिट्ठी कह रही है. वह बता रही है कि हमारे चेहरे और देह असली नहीं है. आप सब असल देह और असल औरतें हैं. मत कोशिश कीजिए हमारे जैसी त्वचा और खूबसूरती पाने की वह फ्लॉलेस खूबसूरती आपको कभी नहीं मिलेगी क्योंकि उसके लिए मुझे कई घण्टे की मेहनत करने वाले कई मेकअप आर्टिस्ट, कई डायटीशियंस, बहुत कसरत और कई ड्रेस डिसाइनर लगते हैं.

सोनम की जितनी तारीफ करूँ वह कम है. और उसने यह सच कहा है. मैंने अपने जीवन में कई औरतें देखीं जिनमें न शऊर है न जिनके पास वक़्त है न जिनके पास अक्ल है न जिनके पास संसाधन है न जिन्हे परवाह है कि सफेद ब्लाउज़ के नीचे गुलाबी पहनने से वह झलकेगा, जिनके सूती सफेद/मटमैले स्ट्रैप, ब्लाउज़ या कुर्ते से अलग थलग नाराज़ और बोर से होकर कंधे से झाँकने लगते हैं. दफ्तरों को जैसे-तैसे निकलीं ये औरतें एकाध बार वॉशरूम जाती हैं तो उन स्ट्रैप्स को वापस दुलरा कर भीतर कर आती हैं. कपड़े के कंधे में भीतर जो इन स्ट्रैप्स को कण्ट्रोल में रखने की पट्टी पर से चुटपुटिया बटन टूट गया होता है, दोबारा सिलने की मोहलत नहीं मिलती. घर से भागते-भागते पलों में कितने ही वॉर्ड्रोब मालफंक्शनिंग में सेफ़्टी पिंस काम लिए जाते हैं. नए दुपट्टों के सिरों पर पीको नहीं मिलती इनके. इनकी गाढ़ी लाल लिपस्टीक और ढिंचैक बिंदियों का मज़ाक बन सकता है लेकिन यह, सब दर्दों के पार बस चकाचक बने रहने की कोशिशें भर हैं.

इस दुनिया की कोई औरत हमेशा चकाचक नहीं रह सकती. मर्द भी नहीं. इसलिए जब किसी विज्ञापन या फिल्म से पहले एक चेतावनी लिखी आती है कि – हीरो के स्टंट्स की नक़ल करने की कोशिश न करें क्योंकि इन्हें ट्रेनर की उपस्थिति में स्टंट आर्टिस्ट करते हैं तो साथ ही एक चेतावनी यह भी जारी करनी चाहिए कि हीरोईन जैसी अनिंद्य सुंदरी दिखने की कोशिश न करें क्योंकि उसे भी ट्रेनर, ब्यूटिशियन, मेकअप और फोटोशॉप के ज़रिए वैसा बनाया गया है. मत दिखिए हमेशा चकाचक ! खुद को और बाकी सब को महसूस होने दीजिए, चारदीवारी के बाहर भी कि बिखराव, फैलाव, अव्यवस्था, दर्द, एक से दूसरे चक्र में प्रवेश, बढना-घटना, निखरना उजड़ना और फिर निखरना यही अस्थायी भाव इस देह का स्थायी भाव है ! वर्ना चकाचक दिखने के दबाव आने वाली पीढ़ियों पर बढते जाएंगे उनकी अपने साथ सहजता को कम करते हुए. उनकी अपने लिए एक्सेपटेंस को कम करते हुए.

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इस लेख में लेखक ने अपने निजी विचार व्यक्त किए हैं. ये जरूरी नहीं कि आईचौक.इन या इंडिया टुडे ग्रुप उनसे सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ लेखक ही जिम्मेदार है.

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