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सोशल मीडिया पर कट्टरता के कारण मूर्ख साबित होते कट्टर समझदार!

    • नेहा सिंह राठौर
    • Updated: 17 फरवरी, 2021 01:43 PM
  • 17 फरवरी, 2021 01:43 PM
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सोशल मीडिया के इस दौर में तमाम बातें और मुद्दे फेसबुक और ट्विटर जैसे प्लेटफॉर्म्स पर ही उठाए जा रहे हैं. ऐसी स्थिति में ट्रोलिंग भी जमकर हो रही है और सोशल मीडिया पर लिखने वाले व्यक्ति को वामपंथी, दक्षिणपंथी, कांग्रेसी जैसे टैग्स से नवाजा भी खूब जा रहा है. ये सब क्यों हो रहा है इसकी एक बड़ी वजह कट्टरता है.

मैं पिछले एक साल से सोशल मीडिया पर सक्रिय हूं. अपने गीत खुद लिखती और गाती हूं. बदले में खूब सारा प्यार, तारीफें, गालियां और बद्दुआएं पाती हूं. अच्छी बात ये है कि लोग प्रेम या नफरत करने के बावजूद मुझे नोटिस करते हैं. बीते एक साल में मुझे तमाम अनुभव मिले, पर जो सबसे अहम् बात मैंने महसूस की वो ये है कि जैसे ही आप चर्चा में आते हैं, आपके वैचारिक रुझान की टैगिंग के प्रयास शुरू हो जाते हैं. मुझे एकदम समझ नहीं आता कि लोग इतनी जल्दबाज़ी में क्यों हैं? वो किसी भी तरह जल्द से जल्द आपको वामपंथी या दक्षिणपंथी या अपनी सुविधानुसार कोई भी पंथी-वादी घोषित करने में लग जाते हैं. उन्हें आपकी बात से ज्यादा इंटरेस्ट आपके कथन में होता है, जिसकी वो मनमानी व्याख्या करते हैं. लोगों में धैर्य नहीं है. वो आपको या तो अपने पक्ष में रख लेते हैं, या दूसरे पाले में धकेल देते हैं. जबकि ऐसा बिलकुल नहीं होना चाहिए. शायद इसी टैगिंग और खेमेबाजी के डर से तमाम ऐसे लोग, जिन्हें लोग सुनते और फॉलो करते हैं, जन-सामान्य के मुद्दों पर कुछ भी कहने से बचते हैं. इस पर तुर्रा ये कि फिर लोग ऐसे लोगों पर चुप्पी का आरोप लगाते हैं.

फेसबुक और ट्विटर पर लिखने वाला हर व्यक्ति आज ट्रोल्स के निशाने पर है

बतौर लोकगायिका लोक के मुद्दों पर बात करना, गीत गाना मेरा काम है, पर मैंने महसूस किया है कि जब भी मैं लोक के हितों और दुखों को अपने गीतों में व्यक्त करती हूं, लोग मुझे कम्युनिस्ट कहने लग जाते हैं. पर जैसे ही मैं भोजपुरी लोकगीतों की धरोहर संभालने की जुगत में कोई धार्मिक गीत गाती हूं, लोग मुझे दक्षिणपंथी साबित करने में लग जाते हैं. ये वाकई अजीब है.

लोकहित या जनहित के मुद्दों पर कम्युनिस्टों का एकाधिकार नहीं है, न ही श्रीराम किसी एक दल या समूह के आइकॉन हैं. मेरे राम...

मैं पिछले एक साल से सोशल मीडिया पर सक्रिय हूं. अपने गीत खुद लिखती और गाती हूं. बदले में खूब सारा प्यार, तारीफें, गालियां और बद्दुआएं पाती हूं. अच्छी बात ये है कि लोग प्रेम या नफरत करने के बावजूद मुझे नोटिस करते हैं. बीते एक साल में मुझे तमाम अनुभव मिले, पर जो सबसे अहम् बात मैंने महसूस की वो ये है कि जैसे ही आप चर्चा में आते हैं, आपके वैचारिक रुझान की टैगिंग के प्रयास शुरू हो जाते हैं. मुझे एकदम समझ नहीं आता कि लोग इतनी जल्दबाज़ी में क्यों हैं? वो किसी भी तरह जल्द से जल्द आपको वामपंथी या दक्षिणपंथी या अपनी सुविधानुसार कोई भी पंथी-वादी घोषित करने में लग जाते हैं. उन्हें आपकी बात से ज्यादा इंटरेस्ट आपके कथन में होता है, जिसकी वो मनमानी व्याख्या करते हैं. लोगों में धैर्य नहीं है. वो आपको या तो अपने पक्ष में रख लेते हैं, या दूसरे पाले में धकेल देते हैं. जबकि ऐसा बिलकुल नहीं होना चाहिए. शायद इसी टैगिंग और खेमेबाजी के डर से तमाम ऐसे लोग, जिन्हें लोग सुनते और फॉलो करते हैं, जन-सामान्य के मुद्दों पर कुछ भी कहने से बचते हैं. इस पर तुर्रा ये कि फिर लोग ऐसे लोगों पर चुप्पी का आरोप लगाते हैं.

फेसबुक और ट्विटर पर लिखने वाला हर व्यक्ति आज ट्रोल्स के निशाने पर है

बतौर लोकगायिका लोक के मुद्दों पर बात करना, गीत गाना मेरा काम है, पर मैंने महसूस किया है कि जब भी मैं लोक के हितों और दुखों को अपने गीतों में व्यक्त करती हूं, लोग मुझे कम्युनिस्ट कहने लग जाते हैं. पर जैसे ही मैं भोजपुरी लोकगीतों की धरोहर संभालने की जुगत में कोई धार्मिक गीत गाती हूं, लोग मुझे दक्षिणपंथी साबित करने में लग जाते हैं. ये वाकई अजीब है.

लोकहित या जनहित के मुद्दों पर कम्युनिस्टों का एकाधिकार नहीं है, न ही श्रीराम किसी एक दल या समूह के आइकॉन हैं. मेरे राम कट्टर नहीं हैं, दृढ हैं. मेरे राम उदार हैं. एक संतुलित व्यक्ति आखिर कैसे किसी खेमे में शामिल हो सकता है? आप ही बताइए! आखिर कैसे संभव है कि कोई पक्ष 100% सही या 100% गलत हो?

ऐसे में किसी एक पक्ष से स्थायी जुड़ाव व्यक्ति को दूसरे पक्ष की तमाम अच्छाइयों से न सिर्फ वंचित करता है, बल्कि उनका विरोध करने के लिए मजबूर भी करता है. सच तो ये है कि अपनी संस्कृति और धरोहर बचाने की मुहिम में जुटे दक्षिणपंथी हों, चाहे समानता के मूल्यों की बात करने वाले वामपंथी; दोनों मुझे समान रूप से प्रिय हैं.

ये परिदृश्य मुझे तब और ज्यादा खूबसूरत लगने लगता है जब एक दक्षिणपंथी समूह मानवीय मूल्यों को बचाने की पहल करता है और एक वामपंथी समूह हमारी संस्कृति के महत्त्वपूर्ण तत्त्वों को बचाने की जुगत करता दिखाई पड़ता है. दुर्भाग्य से मैं ऐसी घटनाएं कम ही देख पायी हूँ, पर मेरा विश्वास है कि ऐसे तत्त्व दोनों तरफ बराबर मौजूद हैं. अधिकांश मानवीय मूल्यों की दक्षिणपंथी व्याख्या मुझे आधुनिक व्याख्याओं से भिन्न होने के बावजूद काफी सारगर्भित लगती है.

मैंने देखा है कि तमाम वामपंथियों की कट्टर वामपंथी समझे जाने की हनक अनेक दक्षिणपंथियों की कट्टर दक्षिणपंथी समझे जाने की हनक से कहीं भी कम नहीं है. ये दोनों अपने-अपने तरीके से अपनी कट्टरता की नुमाइश करते हैं, और जब भी मौका पाते हैं, मुझे ट्रोल करते हैं.

मेरी अब तक की समझ यही है कि कट्टर वामपंथी हों या कट्टर दक्षिणपंथी, दोनों समान रूप से हमारे देश, समाज और संस्कृति के लिए खतरा हैं. चाहे हमारे देश का संविधान हो, समाज हो, चाहे हमारी परम्पराएं हों, हम बदलाव और संशोधन की संभावनाओं को साथ लेकर चलने वाले लोग रहे हैं, कट्टरता कुछ और नहीं बल्कि बदलाव की संभावनाओं को जड़ता से बदल देने की हिमायत भर है.

कट्टरता कैसी भी हो, मूर्खतापूर्ण और खतरनाक होती है. ये इतनी बुरी शै है कि कट्टर समझदार को भी अंततः मूर्ख साबित कर देती है. अभी कुछ महीने पहले ही लोकगारी गायन के लिए मेरे विरुद्ध मुकदमा दर्ज किया गया. आरोप लगाया गया कि मैं एक जिले के लोगों की छवि धूमिल कर रही हूं. पहले-पहल तो मुझे इस प्रकरण पर हंसी आई, पर ये काफी चिंताजनक बात थी.

आखिर कैसे सैकड़ों साल से गाई जाने वाली गालियों से भी लोगों की भावनाएं आहत होने लगी हैं.हमारा समाज सहजता से इतना असहज कैसे होता जा रहा है! लोगों की भावनाएं वाकई आहत हो रही हैं या लोगों को आहत भावनाओं का स्वांग करने में मजा आने लगा है. खैर, अभी-अभी तो मैंने अपनी यात्रा शुरू की है, पर ये अनुभव मेरे लिए चौंकाने वाले हैं.

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इस लेख में लेखक ने अपने निजी विचार व्यक्त किए हैं. ये जरूरी नहीं कि आईचौक.इन या इंडिया टुडे ग्रुप उनसे सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ लेखक ही जिम्मेदार है.

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