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देश के स्कूलों को अवनीश और मुनीश की जरूरत है

    • अबयज़ खान
    • Updated: 04 सितम्बर, 2016 07:54 PM
  • 04 सितम्बर, 2016 07:54 PM
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सारे स्कूल और सारे बच्चों की किस्मत ऐसी नहीं है कि उन्हें अवनीश और मुनीश जैसे गुरु मिलें. सरकारें तमाम स्कीमें चला रही हैं, लेकिन फिर भी लाखों बच्चे अभी स्कूल की चाहरदीवारी से कोसों दूर हैं.

शिक्षक दिवस से ठीक पहले दो ऐसी खबरें आईं जिसने सरकारी स्कूल और उनमें पढ़ाने वाले मास्टरों के लिए एक नई नज़ीर पेश कर दी. यूपी के देवरिया और रामपुर ज़िलों में अब बच्चे अपने मास्साब के तबादले पर ज़ार-ज़ार आंसू बहा रहे हैं. एक हमारा वक्त था, जब मास्साब महीनों स्कूल का मुंह ही नहीं देखते थे, बल्कि मेरे इलाके में तो मैं अब भी कई ऐसे मास्टरों को जानता हूं, जिनको ये ही नहीं पता कि उनका स्कूल कौन सा है, लेकिन महीने की पहली तारीख को उनके अकाउंट में सैलरी आ जाती है.

देवरिया जिले के पिपराधन्नी में पढ़ाने वाले अवनीश जब 2009 में इस स्कूल में आए थे, तो उनको भी उन्हीं दुश्वारियों का सामना करना पड़ा, जो उनसे पहले के टीचरों के सामने आई थीं, लेकिन बाकी लोग सरकारी नौकरी की तरह अपना वक्त पूरा कर चले गए. जबकि इससे उलट अवनीश ने इसे अपना फर्ज़ समझा, और स्कूल के साथ ही गांव को भी सुधारने का बीड़ा उठा लिया. शुरुआत में अवनीश को भी बड़ी दिक्कत हुई, एक तो गांव का खराब रास्ता ऊपर से गांववालों को बच्चों को ना पढ़ाने की सोच. दोनों ही बातों से लड़ना अवनीश के लिए बहुत मुश्किल था. लेकिन बंदे ने हार नहीं मानी. गाजीपुर जिले के बभनौली से आए अवनीश ने ठान लिया था कि इस मिशन को वो किसी कीमत पर अधूरा छोड़कर तो नहीं जाएंगे. आखिर 6 साल की मेहनत रंग लाई और आज अवनीश के पढ़ाए हुए बच्चे कॉन्वेंट के बच्चों से सीधे मुकाबला कर रहे हैं.

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शिक्षक दिवस से ठीक पहले दो ऐसी खबरें आईं जिसने सरकारी स्कूल और उनमें पढ़ाने वाले मास्टरों के लिए एक नई नज़ीर पेश कर दी. यूपी के देवरिया और रामपुर ज़िलों में अब बच्चे अपने मास्साब के तबादले पर ज़ार-ज़ार आंसू बहा रहे हैं. एक हमारा वक्त था, जब मास्साब महीनों स्कूल का मुंह ही नहीं देखते थे, बल्कि मेरे इलाके में तो मैं अब भी कई ऐसे मास्टरों को जानता हूं, जिनको ये ही नहीं पता कि उनका स्कूल कौन सा है, लेकिन महीने की पहली तारीख को उनके अकाउंट में सैलरी आ जाती है.

देवरिया जिले के पिपराधन्नी में पढ़ाने वाले अवनीश जब 2009 में इस स्कूल में आए थे, तो उनको भी उन्हीं दुश्वारियों का सामना करना पड़ा, जो उनसे पहले के टीचरों के सामने आई थीं, लेकिन बाकी लोग सरकारी नौकरी की तरह अपना वक्त पूरा कर चले गए. जबकि इससे उलट अवनीश ने इसे अपना फर्ज़ समझा, और स्कूल के साथ ही गांव को भी सुधारने का बीड़ा उठा लिया. शुरुआत में अवनीश को भी बड़ी दिक्कत हुई, एक तो गांव का खराब रास्ता ऊपर से गांववालों को बच्चों को ना पढ़ाने की सोच. दोनों ही बातों से लड़ना अवनीश के लिए बहुत मुश्किल था. लेकिन बंदे ने हार नहीं मानी. गाजीपुर जिले के बभनौली से आए अवनीश ने ठान लिया था कि इस मिशन को वो किसी कीमत पर अधूरा छोड़कर तो नहीं जाएंगे. आखिर 6 साल की मेहनत रंग लाई और आज अवनीश के पढ़ाए हुए बच्चे कॉन्वेंट के बच्चों से सीधे मुकाबला कर रहे हैं.

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आज अवनीश के पढ़ाए हुए बच्चे कॉन्वेंट के बच्चों से सीधे मुकाबला कर रहे हैं

कुछ ऐसी ही तस्वीर रामपुर ज़िले के रम्पुरा गांव में पढ़ाने वाले मुनीश की भी है. प्राथमिक विद्यालय रम्पुरा के हेडमास्टर मुनीश को मैं व्यक्तिगत तौर पर भी जानता हूं, लेकिन मुनीश इतने छुपे रुस्तम निकलेंगे कि वो आज मीडिया की सुर्खियां होंगे इसका अंदाज़ा तो मुझे भी कतई नहीं था. मैनपुरी ज़िले के परौड़ा गांव के रहने वाले मुनीश के पिता भी उत्तराखंड में एक प्राथमिक स्कूल में हेडमास्टर हैं और दादा स्वर्गीय नत्थू सिंह फ्रीडम फाइटर रह चुके हैं. ग्रेजुएशन के बाद मुनीश ने बीटीसी की और 1 फरवरी 2010 को उनकी पहली पोस्टिंग रामपुर जिले में ही परौता गांव में बतौर सहायक अध्यापक हुई. मुनीश को पोस्टिंग मिली तो स्कूल की खस्ता हालत और बच्चों की स्कूल से दूरी ने उनकी फिक्र बढ़ा दी. लेकिन मुनीश ने भी अवनीश की तरह हार नहीं मानी. लगातार मेहनत करते रहे तो अधिकारियों तक उनकी तारीफें पहुंचने लगीं, जिसका नतीजा ये हुआ कि उन्हें 22 अप्रैल 2015 में तरक्की देकर रम्पुरा के स्कूल का हेडमास्टर बना दिया गया.

 मुनीश(चेक शर्ट) बच्चों और उनके परिजनों के लिए मसीहा बन गए हैं

मेरे ही जिले में नौकरी करने वाले मुनीश को देखकर कभी नहीं लगता था, कि उनके दिमाग में क्या चल रहा है. एक साल से भी कम वक्त में मुनीश बच्चों के साथ-साथ गांव वालों के दिलो दिमाग पर भी छा गये. मुनीश ना सिर्फ बच्चों को उनके घरों से स्कूल तक लेकर आए, बल्कि आर्थिक आधार पर उनकी मदद भी की. जिसका नतीजा ये हुआ कि मुनीश उन सबके बीच मसीहा बन गए, और जब एक साल के अंदर उनका तबादला हो गया तो स्कूल के बच्चों के साथ-साथ गांव के लोग भी अपने आंसू रोक नहीं पाए.

आज अवनीश और मुनीश हमारे लिये मिसाल बनकर खड़े हैं. लेकिन सारे स्कूल और सारे बच्चों की किस्मत ऐसी नहीं है कि उन्हें अवनीश और मुनीश जैसे गुरु मिलें. सरकारें तमाम स्कीमें चला रही हैं, लेकिन फिर भी लाखों बच्चे अभी स्कूल की चाहरदीवारी से कोसों दूर हैं. आजादी के 70 साल बाद भी सरकारी स्कूलों की हालत में कोई सुधार नहीं है. कॉन्वेंट स्कूल गरीबों की पहुंच से बहुत दूर हैं और सरकारी स्कूलों की पढ़ाई राम भरोसे है.

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सरकारी स्कूलों की हालत और इनकी इमेज कितनी खराब है इसका अंदाजा पिछले साल अगस्त 2015 में इलाहाबाद हाईकोर्ट की उस टिप्पणी से समझ आता है, जिसमें कोर्ट ने कहा था कि 'यूपी के सभी अधिकारियों और जनप्रतिनिधियों को अपने बच्चों को सरकारी स्कूलों में पढ़ाना चाहिए'. पिछले दिनों यूनिसेफ की सालाना रिपोर्ट के मुताबिक शिक्षा के मामले में देश अभी बहुत पीछे है. करीब 61 लाख बच्चे ऐसे हैं जो स्कूल पहुंच ही नहीं पाते और इनमें से अकेले 16 लाख बच्चे उत्तर प्रदेश में ही हैं. अगर बच्चों और शिक्षकों का अनुपात देखा जाए तो ये और भी गंभीर है. देश में इस वक्त करीब 14 लाख प्राथमिक स्कूल हैं, जिनमें करीब 20 करोड़ बच्चे पढ़ रह हैं, लेकिन इनमें कुल 41 लाख के करीब ही टीचर तैनात हैं. ये खाई बहुत गहरी है. ऊपर से रही सही कसर इन मास्टरों को दूसरे कामों में लगाने से पूरी हो गई है. कभी इनको चुनावों में लगा दिया जाता है, कभी जनगणना में तो कभी पल्स पोलियो के अलावा सरकार की दूसरी स्कीमों में इनका इस्तेमाल किया जाता है.

सवाल ये है कि आपके पास संसाधन नहीं हैं, तो आप शिक्षकों का तो दुरुपयोग मत करो. आप हर स्कूल में अवनीश और मुनीश तैनात नहीं कर सकते, तो कम से काम उनको उनका काम तो करने दो. बेहतर होगा कि सरकारें टीचर्स डे के मौके पर नई स्कीमों की शुरुआत करने के बजाए स्कूलों में मौजूदा सिस्टम को दुरुस्त करने पर ही ज़ोर दे, ताकि इंडिया और भारत के बीच पैदा हुई खाई को दूर किया जा सके.

इस लेख में लेखक ने अपने निजी विचार व्यक्त किए हैं. ये जरूरी नहीं कि आईचौक.इन या इंडिया टुडे ग्रुप उनसे सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ लेखक ही जिम्मेदार है.

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