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शिक्षा नीति: दोष किसी और का तो सजा बच्चों को क्यों?

    • शिवानन्द द्विवेदी
    • Updated: 04 जून, 2016 04:43 PM
  • 04 जून, 2016 04:43 PM
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हमें मूल्यांकन एवं सुधार को प्रश्रय देने वाली शिक्षा नीति पर अमल करने की जरूरत है न कि छात्रों पर समस्त जवाबदेही थोपने की आवश्यकता है. ये दुर्भाग्य पूर्ण है कि इस बात पर कभी चर्चा नहीं होती कि शिक्षक कैसा कर रहे हैं ?

एक प्रावधान को लेकर 'शिक्षा का अधिकार' कानून एक बार फिर चर्चा में है. इसबार बहस इस बात पर हो रही है कि आरटीई के आर्टिकल 30 (1) में दिए गये 'नो डिटेंशन' नीति में बदलाव किया जाय अथवा नहीं! सबसे पहले तो ये समझते हैं कि आरटीई का आर्टिकल 30 (1) क्या कहता है? इस अनुच्छेद के अनुसार शिक्षा के अधिकार क़ानून में स्पष्ट तौर पर कहा गया है कि प्राथमिक स्तर पर किसी भी छात्र को कक्षा की परीक्षा में उत्तीर्ण-अनुतीर्ण करने की बाध्यता अथवा अनिवार्यता नहीं होगी.

दूसरे शब्दों में कहें तो कानून में एक 'सेट ऑफ़ क्वेश्चंस' वाली परीक्षा प्रणाली के आधार पर छात्रों को कक्षा में अनुत्तीर्ण कर उन्हें अगली कक्षा में प्रवेश से अवरुद्ध करने की प्रणाली को ही खारिज किया गया हैं. हालांकि इसी क़ानून के आर्टिकल 29(2)(H) के तहत इस बात की स्पष्ट व्याख्या की गयी है कि प्रत्येक स्कूल व्यापक स्तर पर हर छात्र के शैक्षणिक स्तर का मूल्यांकन अपने स्तर पर जरूर करे. आरटीई के यह प्रावधान 1 अप्रैल 2010 से लागू हैं और तबसे इन्हीं नियमों के तहत मूल्यांकन हो रहा है. अब सवाल है कि आखिर इस मामले में बहस और विवाद क्यों पैदा हो गया है?

दरअसल, सरकार द्वारा नई शिक्षा नीति का प्रारूप तैयार किया जा रहा है. नई शिक्षा नीति पर गठित सुब्रमन्यम कमेटी ने आरटीई के 'नो डिटेंशन' पालिसी को आठवीं तक की बजाय केवल पांचवी तक लागू करने की सिफारिश की है. 'नो डिटेंशन' पालिसी को हटाकर पुन: 'पास-फेल' प्रणाली लाने की सिफारिश 18 राज्यों ने की है. 'नो डिटेंशन' पालिसी क्यों हटना चाहिए और पुरानी प्रणाली क्यों लाई जानी चाहिए, इसके लिए तर्क दिया जा रहा है कि आठवीं तक परीक्षा से मुक्त प्रणाली में होने की वजह से नौवीं कक्षा में फेल होने वाले छात्रों की संख्या बेहद बढ़ रही है. संभवत: इन्हीं तर्कों अथवा आंकड़ों के आधार पर सुब्रमन्यम कमेटी ने 'नो डिटेंशन' की सीमा को घटाने की सिफारिश की होगी.

एक प्रावधान को लेकर 'शिक्षा का अधिकार' कानून एक बार फिर चर्चा में है. इसबार बहस इस बात पर हो रही है कि आरटीई के आर्टिकल 30 (1) में दिए गये 'नो डिटेंशन' नीति में बदलाव किया जाय अथवा नहीं! सबसे पहले तो ये समझते हैं कि आरटीई का आर्टिकल 30 (1) क्या कहता है? इस अनुच्छेद के अनुसार शिक्षा के अधिकार क़ानून में स्पष्ट तौर पर कहा गया है कि प्राथमिक स्तर पर किसी भी छात्र को कक्षा की परीक्षा में उत्तीर्ण-अनुतीर्ण करने की बाध्यता अथवा अनिवार्यता नहीं होगी.

दूसरे शब्दों में कहें तो कानून में एक 'सेट ऑफ़ क्वेश्चंस' वाली परीक्षा प्रणाली के आधार पर छात्रों को कक्षा में अनुत्तीर्ण कर उन्हें अगली कक्षा में प्रवेश से अवरुद्ध करने की प्रणाली को ही खारिज किया गया हैं. हालांकि इसी क़ानून के आर्टिकल 29(2)(H) के तहत इस बात की स्पष्ट व्याख्या की गयी है कि प्रत्येक स्कूल व्यापक स्तर पर हर छात्र के शैक्षणिक स्तर का मूल्यांकन अपने स्तर पर जरूर करे. आरटीई के यह प्रावधान 1 अप्रैल 2010 से लागू हैं और तबसे इन्हीं नियमों के तहत मूल्यांकन हो रहा है. अब सवाल है कि आखिर इस मामले में बहस और विवाद क्यों पैदा हो गया है?

दरअसल, सरकार द्वारा नई शिक्षा नीति का प्रारूप तैयार किया जा रहा है. नई शिक्षा नीति पर गठित सुब्रमन्यम कमेटी ने आरटीई के 'नो डिटेंशन' पालिसी को आठवीं तक की बजाय केवल पांचवी तक लागू करने की सिफारिश की है. 'नो डिटेंशन' पालिसी को हटाकर पुन: 'पास-फेल' प्रणाली लाने की सिफारिश 18 राज्यों ने की है. 'नो डिटेंशन' पालिसी क्यों हटना चाहिए और पुरानी प्रणाली क्यों लाई जानी चाहिए, इसके लिए तर्क दिया जा रहा है कि आठवीं तक परीक्षा से मुक्त प्रणाली में होने की वजह से नौवीं कक्षा में फेल होने वाले छात्रों की संख्या बेहद बढ़ रही है. संभवत: इन्हीं तर्कों अथवा आंकड़ों के आधार पर सुब्रमन्यम कमेटी ने 'नो डिटेंशन' की सीमा को घटाने की सिफारिश की होगी.

 समूची जवाबदेही बच्चों पर क्यों?

इस बहस पर बुद्धिजीवियों के बीच भी व्यापक अंतर है. एक धड़ा 'नो डिटेंशन' की पालिसी को गलत मानता है तो दूसरा आरटीई के इस प्रावधान को बेहद जरुरी और छात्रों के हित में होने की बात करता है. गौर करने वाली बात है कि 'नो डिटेंशन' के विरोध में अथवा इसकी सीमा कम किये जाने के पक्ष में खड़ा वर्ग इस पूरे प्रावधान के बहुआयामी पक्षों पर विचार करने की बजाय अपनी सोच को छात्रों की सफलता असफलता तक सीमिति करके देख रहा है. जबकि अगर इसका बहुआयामी विश्लेषण किया जाय तो ये सिर्फ छात्रों की सफलता-असफलता से जुड़ा मामला न होकर शिक्षकों एवं विद्यालयों की जवाबदेही एवं सफलता पूर्वक ढंग से काम करने की पद्धति से जुड़ा मामला नजर आता है.

भारतीय प्राचीनतम शिक्षा व्यवस्था में उतीर्ण और अनुतीर्ण जैसी प्रणाली का जिक्र कहीं नहीं मिलता. यहां तक कि लिखित परीक्षा की बजाय व्यवहारिक कौशल परीक्षण के मूल्यांकन पर ही जोर दिए जाने के तमाम उदाहरण परिलक्षित होते हैं. हम आरटीई के आर्टिकल 30(1) पर अगर विचार कर रहे हैं तो हम आर्टिकल 24 (1) की उपेक्षा कैसे कर सकते हैं? इस अनुच्छेद में छात्रों के शैक्षणिक स्तर में सुधार के लिए सिर्फ छात्रों को जवाबदेह बनाने की शिक्षकों की जवाबदेही की नीति को तरजीह दी गयी है. लेकिन दुर्भाग्य पूर्ण है कि इस प्रावधान पर कभी चर्चा नहीं होती कि शिक्षक कैसा कर रहे हैं ? बेहद साधारण ढंग से समझने योग्य बात है कि अगर कोई छात्र कक्षा में न्यूनतम अनिवार्य उपस्थिति से ज्यादा दर्ज कराता है और उसके बावजूद भी वो किसी ख़ास विषय में अच्छा नहीं सीख पाता तो उसे फेल करने की बजाय क्या हमें इस बात चिंता ज्यादा नहीं करनी चाहिए कि वो क्यों नहीं सीख पा रहा है ?

हमारा उद्देश्य उसे 'फेल-पास' करना है या स्तरीय ज्ञान देना है? अगर स्कूलों का उद्देश्य 'फेल-पास' करना भर है, तब तो नो डिटेंशन हटा लेना चाहिए लेकिन अगर हम यह मानते हैं कि स्कूलों का उद्देश्य स्तरीय ज्ञान देना है तो हमे फेल-पास की बजाय उस दिशा में प्रयास करने चाहिए कि किसी भी छात्र की शिक्षा का स्तर कैसे सुधारा जा सके? अगर कोई बच्चा नियमित कक्षा में है फिर भी उसे कहीं दिक्कत आ रही है, इसके लिए वही जिम्मेदार है, ऐसा मान लेना बेहद खतरनाक प्रवृति है. क्या स्कूल, शिक्षक आदि में कमी नहीं हो सकती है ? उनका भी तो मूल्यांकन किया जाना चाहिए!

खैर, डिटेंशन पॉलिसी इस लिहाज से भी छात्रों के प्रतिकूल है कि अगर कोई छात्र चार विषयों में अच्छा कर रहा और दो विषयों में अच्छा नहीं कर रहा फिर भी 'पास-फेल' की नीति की वजह से उसे कई बार फेल होना पड़ता है. जबकि इस सवाल पर किसी का ध्यान नहीं जाता कि जो बच्चा चार विषयों में अच्छा कर रहा है, नियमित कक्षा में है, वो दो विषयों अथवा एक विषय में क्यों अच्छा नहीं कर रहा ? डिटेंशन पालिसी में सारा ठीकरा उस छात्र के सिर फोड़कर स्कूल, शिक्षक, अभिभावक अपनी जवाबदेही से पल्ला झाड लेते हैं. जबकि सच्चाई यह है कि प्राथमिक स्तर पर किसी बच्चे की 'उन्नति-अवनति' में सामूहिक जवाबदेही होती है.

बेहतर होगा कि छात्रों को फेल-पास के मकड़जाल से निकालकर उनके सुधारों के प्रति सामूहिक जवाबदेही वाली नीतियों पर काम किया जाए. 'नो डिटेंशन' का अर्थ कतई यह नहीं होता कि छात्र का मूल्यांकन न किया जाय. मूल्यांकन जरुरी है मगर इस शर्त पर नहीं कि उसकी शैक्षिणक स्थिति के लिए सिर्फ उसे जवाबदेह ठहरा कर सारे दंड उसपर थोपे जाए. कम से कम हमें भारतीय शिक्षा प्रणाली से तो सीखना ही चाहिए. भारतीय शिक्षा प्रणाली में कभी भी 'सेट ऑफ़ क्वेश्चन्स' के आधार पर 'पास-फेल' वाली प्रणाली इस्तेमाल नहीं हुई है.

वैदिक शिक्षा से लेकर गुरुकल की अन्य परम्पराओं तक में सुधारों के व्यवहारिक तौर-तरीकों को आजमाते हुए मूल्यांकन की नीति को तरजीह दी गयी है. गुरु और शिष्य परम्परा में सीखने और सिखाने में संयुक्त जवाबदेही गुरु और शिष्य दोनों की तय होती थी. किस क्षेत्र (वर्तमान सन्दर्भ में विषय से आशय) में कौन निपुण हो सकता है, इसका मूल्यांकन भी भारतीय शिक्षा प्रणाली में शिक्षक की समझ और विद्यार्थी के कौशल से तय होता था. लेकिन आयातित शिक्षा पद्धतियों के भ्रमजाल में उलझी वर्तमान भारतीय शिक्षा प्रणाली अपने मूल तत्व को पहचानने में हमेशा नाकाम साबित हुई है.

हमें मूल्यांकन एवं सुधार को प्रश्रय देने वाली शिक्षा नीति पर अमल करने की जरूरत है न कि छात्रों पर समस्त जवाबदेही थोपने की आवश्यकता है. हम जब आरटीई के आर्टिकल 30(1) पर बात कर रहे हों तो हमे आर्टिकल 29(2)(H) और आर्टिकल 24(1) को भी ध्यान में रखने की जरुरत है.

इस लेख में लेखक ने अपने निजी विचार व्यक्त किए हैं. ये जरूरी नहीं कि आईचौक.इन या इंडिया टुडे ग्रुप उनसे सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ लेखक ही जिम्मेदार है.

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