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एनडीटीवी के नाम एक खुला पत्र

    • प्रो. सीपी सिंह
    • Updated: 07 नवम्बर, 2016 03:19 PM
  • 07 नवम्बर, 2016 03:19 PM
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एनडीटीवी इंडिया के प्रसारण पर चौबीस घंटे के प्रतिबंध के बाद कई सवाल उठ खड़े हुए हैं. भारतीय टीवी उद्योग और दर्शकों के प्रति एक समाचार चैनल की जिम्मेदारी को देखते हुए इन सवालों के जवाब आप से और उन सभी लोगों से अपेक्षित है, जो इस प्रतिबंध के खिलाफ या पक्ष में हो हल्ला मचा रहे हैं.

प्रिय एनडीटीवी,

एनडीटीवी इंडिया के प्रसारण पर चौबीस घंटे के प्रतिबंध के बाद कई सवाल उठ खड़े हुए हैं. भारतीय टीवी उद्योग और दर्शकों के प्रति एक समाचार चैनल की जिम्मेदारी को देखते हुए इन सवालों के जवाब आप से और उन सभी लोगों से अपेक्षित है, जो इस प्रतिबंध के खिलाफ या पक्ष में हो हल्ला मचा रहे हैं.

1. क्या मौजूदा केबल कानून के तहत सरकार की यह कार्रवाई गलत है?

2. एक लोकतांत्रिक व्यवस्था में किसी कानून को तोड़ने वाले  को क्या सिर्फ इस आधार पर बिना किसी सजा के छोड़ देना चाहिए क्योंकि उसी कानून को तोड़नेवाले दूसरों को सजा नहीं दी गई?

ये भी पढ़ें- क्या ये विवादास्पद रिपोर्टिंग बैन करने लायक है?

3. जिस कानून के तहत एनडीटीवी पर प्रतिबंध लगाया गया क्या वो वाकई में भारत जैसे लोकतांत्रिक व्यवस्था के खिलाफ है?

4. अगर उपरोक्त तीनों सवाल के जवाब “हां “में हैं तो उस कानून में बदलाव की मांग कभी  क्यों नहीं उठाई गई?

 सांकेतिक फोटो

5. अगर एनडीटीवी गलत है और केबल कानून सही है तो फिर उसमें दिए गए सजा के प्रावधान के मुकाबले चौबीस घंटे का प्रतिबंध क्या वाकई में इतना कठोर है? या सजा हल्की है या फिर नहीं के बराबर?

6. क्या देश में किसी टीवी चैनल पर प्रतिबंध की यह पहली घटना है या फिर इससे पहले भी ऐसे कदम सरकार ने उठाए हैं?

7. अगर पहले भी ऐसी कार्रवाईयां हुई हैं तो फिर एनडीटीवी के खिलाफ क्यों नहीं कार्रवाई होनी...

प्रिय एनडीटीवी,

एनडीटीवी इंडिया के प्रसारण पर चौबीस घंटे के प्रतिबंध के बाद कई सवाल उठ खड़े हुए हैं. भारतीय टीवी उद्योग और दर्शकों के प्रति एक समाचार चैनल की जिम्मेदारी को देखते हुए इन सवालों के जवाब आप से और उन सभी लोगों से अपेक्षित है, जो इस प्रतिबंध के खिलाफ या पक्ष में हो हल्ला मचा रहे हैं.

1. क्या मौजूदा केबल कानून के तहत सरकार की यह कार्रवाई गलत है?

2. एक लोकतांत्रिक व्यवस्था में किसी कानून को तोड़ने वाले  को क्या सिर्फ इस आधार पर बिना किसी सजा के छोड़ देना चाहिए क्योंकि उसी कानून को तोड़नेवाले दूसरों को सजा नहीं दी गई?

ये भी पढ़ें- क्या ये विवादास्पद रिपोर्टिंग बैन करने लायक है?

3. जिस कानून के तहत एनडीटीवी पर प्रतिबंध लगाया गया क्या वो वाकई में भारत जैसे लोकतांत्रिक व्यवस्था के खिलाफ है?

4. अगर उपरोक्त तीनों सवाल के जवाब “हां “में हैं तो उस कानून में बदलाव की मांग कभी  क्यों नहीं उठाई गई?

 सांकेतिक फोटो

5. अगर एनडीटीवी गलत है और केबल कानून सही है तो फिर उसमें दिए गए सजा के प्रावधान के मुकाबले चौबीस घंटे का प्रतिबंध क्या वाकई में इतना कठोर है? या सजा हल्की है या फिर नहीं के बराबर?

6. क्या देश में किसी टीवी चैनल पर प्रतिबंध की यह पहली घटना है या फिर इससे पहले भी ऐसे कदम सरकार ने उठाए हैं?

7. अगर पहले भी ऐसी कार्रवाईयां हुई हैं तो फिर एनडीटीवी के खिलाफ क्यों नहीं कार्रवाई होनी चाहिए? (2007 में यूपीए सरकार ने लाइव इंडिया को गैरजिम्मेदाराना और गलत रिपोर्टिंग के लिए महीने भर के लिए प्रतिबंधित किया था, जिसे बाद में चैनल के माफीनामे के बाद 15 दिन कर दिया गया था, जबकि एनडीटीवी पर राष्ट्रीय सुरक्षा के साथ खिलवाड़ करने का मामला है)

8. फेडरेशन ऑफ प्रेस क्लब ऑफ इंडिया और एडिटर्स गिल्ड ने क्या लाइव इंडिया के मामले में भी चैनल का पक्ष इसी तरह लिया था जैसा कि आज एनडीटीवी के मामले में लिया गया है? अगर नहीं तो फिर एनडीटीवी के पक्ष में क्यों? क्या एनडीटीवी देश की सुरक्षा से भी ऊपर है ?

9. फेडरेशन ऑफ प्रेस क्लब ऑफ इंडिया और एडिटर्स गिल्ड  ने एनडीटीवी के पक्ष में बयान जारी करने से पहले क्या अपने स्तर पर इस मामले की समीक्षा या आंतरिक जांच की?

10. फेडरेशन ऑफ प्रेस क्लब ऑफ इंडिया और एडिटर्स गिल्ड  क्या एनडीटीवी के मामले को एक केस स्टडी के रूप में लेने की हिम्मत जुटाएगा ताकि भविष्य में पत्रकारिता का स्तर सुधरे और देश की सुरक्षा और सम्मान पर कोई खतरा ना आए?

11. आज जबकि न्यूज एक बिजनेस बन कर रह गई है और सभी चैनल अपने संचालन और कमाई के लिए 85% तक विज्ञापनों पर निर्भर है (कॉरपोरेट घरानों से लेकर नीम-हकीम, दाद खाज खुजली,तम्बाकू से लेकर बाबा रामदेव तक), ऐसे में दर्शकों को निष्पक्ष खबर कैसे मिले , क्या इस पर  फेडरेशन ऑफ प्रेस क्लब ऑफ इंडिया और एडिटर्स गिल्ड के गणमान्य लोग विचार कर कोई रास्ता निकालने की हिम्मत जुटा पाएंगे ?

ये भी पढ़ें- कश्मीर में युद्ध शुरू हो गया है, सिर्फ एलान बाकी है

12. कहीं ऐसा तो नहीं कि हम पाठक/श्रोताओं ने अपने को सिर्फ ग्राहक मान नागरिकता की जिम्मेदारी से किनारा कर लिया है ताकि लगभग मुफ़्त में अख़बार पढ़ सकें और टीवी न्यूज़ देख सकें?

13. आज़ादी की लड़ाई के दौरान भारत के आज के बनिस्पत  करीब 20 गुना दाम देकर अख़बार और पत्रिकाएं खरीदते थे और निश्चय ही हमसे बेहतर नागरिक थे क्योंकि उन्होंने अपने प्रिय अख़बारों और पत्रिकाओं को विज्ञापनदाताओं की चेरी नहीं बनने दिया. इस प्रकार एक बड़ी हद तक गैरजिम्मेदार रिपोर्टिंग के लिए पाठकों और श्रोताओं की मुफ्तखोरी को भी क्यों न जिम्मेदार ठहराया जाए?

आपका विश्वासी,भारत का एक नागरिक

इस लेख में लेखक ने अपने निजी विचार व्यक्त किए हैं. ये जरूरी नहीं कि आईचौक.इन या इंडिया टुडे ग्रुप उनसे सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ लेखक ही जिम्मेदार है.

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