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'सैलरी लेने वाले शहीद नहीं' आखिर लोग ऐसा सोचते ही क्यों हैं?

    • देवेश त्रिपाठी
    • Updated: 07 अप्रिल, 2021 07:09 PM
  • 07 अप्रिल, 2021 07:09 PM
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माना जा सकता है कि लोगों की अपनी राजनीतिक और वैचारिक प्रतिबद्धाएं होती हैं, लेकिन इसके लिए सैन्यबलों का सहारा लेना एक गलत ट्रेंड हैं. लेखिका शिखा सरमा या फिर कोई भी शख्स हो, किसी को भी सैन्यबलों की शहादत पर सवाल उठाने का हक नहीं है.

भारत में लोग अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के नाम पर गंध फैलाने से बाज नहीं आते हैं. सोशल मीडिया युग में इस चलन को और बढ़ावा मिल गया है. भारत में किसी भी चीज पर सवाल उठाने में कोई प्रतिबंध नहीं है. लेकिन, लोगों को कम से कम सवाल तो जायज उठाने चाहिए. हमारे देश में हर व्यक्ति को एक चीज में महारत हासिल है और वो है लोगों की भावनाओं से खेलना. चाहे वो नेता हों या कोई आम आदमी, हर कोई अपने-अपने हिसाब से लोगों की भावनाओं के साथ खेलता चला आ रहा है.

इनमें से ही एक हैं असमिया लेखिका शिखा सरमा. छत्तीसगढ़ नक्सली हमले में शहीद हुए जवानों के बारे में इन्होंने फेसबुक पर एक पोस्ट करते हुए लिखा कि 'अपनी ड्यूटी के दौरान काम करते हुए मरने वाले वेतनभोगी पेशेवरों को शहीद का दर्जा नहीं दिया जा सकता. इस तर्क से तो बिजली विभाग में काम करने वाले कर्मचारी की अगर बिजली के झटकों की वजह से मौत हो जाती है, तो उसे भी शहीद का दर्जा मिलना चाहिए. लोगों की भावनाओं के साथ मत खेलो.' शिखा सरमा ने पोस्ट के आखिर में लिखा कि भावनाओं से मत खेलो, लेकिन वह खुद ही लोगों की भावनाओं से खेल रही हैं. भारतीय सैन्यबलों के लिए लिखी गई इस बात से शायद ही कोई इत्तेफाक रखता होगा. आखिर लोग भारतीय सैन्यबलों का अपमान करने की सोच भी कैसे सकते हैं?

सेना के जवान देश की रक्षा के लिए कुर्बान हो जाते हैं. उनके परिवार के सदस्य इस आघात को सहने के बाद भी किसी पर सवाल नहीं उठाते हैं. आतंकी घटना या हमलों में शहीद हुए जवानों के शव जब उनके घर पहुंचते हैं, तो हजारों की संख्या में लोग वहां इकट्ठा होते हैं. यह लोगों के अंदर की भावनाएं ही हैं, जो उन्हें ऐसा करने के लिए प्रेरित करती हैं. लोग धर्म या अन्य किसी चीज के नाम पर शायद एकसाथ न आएं. लेकिन, देश और सैन्यबलों के लिए लोगों की प्रबल भावनाएं सभी वर्जनाओं को तोड़ देती हैं. ऐसे मौकों पर किसी को बुलावा नहीं भेजा जाता है. यह कोई चुनावी रैली या किसी बड़ी कंपनी का सेमिनार नहीं होता है. सेना के साथ हर भारतीय का जुड़ाव बहुत ही भावनात्मक है और लोगों का...

भारत में लोग अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के नाम पर गंध फैलाने से बाज नहीं आते हैं. सोशल मीडिया युग में इस चलन को और बढ़ावा मिल गया है. भारत में किसी भी चीज पर सवाल उठाने में कोई प्रतिबंध नहीं है. लेकिन, लोगों को कम से कम सवाल तो जायज उठाने चाहिए. हमारे देश में हर व्यक्ति को एक चीज में महारत हासिल है और वो है लोगों की भावनाओं से खेलना. चाहे वो नेता हों या कोई आम आदमी, हर कोई अपने-अपने हिसाब से लोगों की भावनाओं के साथ खेलता चला आ रहा है.

इनमें से ही एक हैं असमिया लेखिका शिखा सरमा. छत्तीसगढ़ नक्सली हमले में शहीद हुए जवानों के बारे में इन्होंने फेसबुक पर एक पोस्ट करते हुए लिखा कि 'अपनी ड्यूटी के दौरान काम करते हुए मरने वाले वेतनभोगी पेशेवरों को शहीद का दर्जा नहीं दिया जा सकता. इस तर्क से तो बिजली विभाग में काम करने वाले कर्मचारी की अगर बिजली के झटकों की वजह से मौत हो जाती है, तो उसे भी शहीद का दर्जा मिलना चाहिए. लोगों की भावनाओं के साथ मत खेलो.' शिखा सरमा ने पोस्ट के आखिर में लिखा कि भावनाओं से मत खेलो, लेकिन वह खुद ही लोगों की भावनाओं से खेल रही हैं. भारतीय सैन्यबलों के लिए लिखी गई इस बात से शायद ही कोई इत्तेफाक रखता होगा. आखिर लोग भारतीय सैन्यबलों का अपमान करने की सोच भी कैसे सकते हैं?

सेना के जवान देश की रक्षा के लिए कुर्बान हो जाते हैं. उनके परिवार के सदस्य इस आघात को सहने के बाद भी किसी पर सवाल नहीं उठाते हैं. आतंकी घटना या हमलों में शहीद हुए जवानों के शव जब उनके घर पहुंचते हैं, तो हजारों की संख्या में लोग वहां इकट्ठा होते हैं. यह लोगों के अंदर की भावनाएं ही हैं, जो उन्हें ऐसा करने के लिए प्रेरित करती हैं. लोग धर्म या अन्य किसी चीज के नाम पर शायद एकसाथ न आएं. लेकिन, देश और सैन्यबलों के लिए लोगों की प्रबल भावनाएं सभी वर्जनाओं को तोड़ देती हैं. ऐसे मौकों पर किसी को बुलावा नहीं भेजा जाता है. यह कोई चुनावी रैली या किसी बड़ी कंपनी का सेमिनार नहीं होता है. सेना के साथ हर भारतीय का जुड़ाव बहुत ही भावनात्मक है और लोगों का यह जुड़ाव ही उन सैनिकों को शहीद का दर्जा देता है.

लेखिका की गिरफ्तारी के बाद तथ्य और तर्कों के साथ उन्हें 'विक्टिम' की तरह पेश करने वाली मशीनरी तुरंत एक्टिव हो गई.

माना जा सकता है कि लोगों की अपनी राजनीतिक और वैचारिक प्रतिबद्धाएं होती हैं, लेकिन इसके लिए सैन्यबलों का सहारा लेना एक गलत ट्रेंड हैं. लेखिका शिखा सरमा या फिर कोई भी शख्स हो, किसी को भी सैन्यबलों की शहादत पर सवाल उठाने का हक नहीं है. सर्जिकल स्ट्राइक हो या नक्सली हमला तमाम घटनाओं पर राजनेताओं ने खूब सवाल उठाए थे और सुबूत तक मांग लिए थे. कहना गलत नहीं होगा कि लोग नेताओं से ही सीखते हैं. कांग्रेस के पूर्व अध्यक्ष राहुल गांधी ने भी इस घटना के बाद मोदी सरकार को घेरने के लिए इंटेलिजेंस फेलियर और खराब प्लान को मुद्दा बनाया था. ऐसे तमाम उदाहरणों से सवाल उठाने वाले लोगों में एक आम सी धारणा बन गई है कि जब किसी पार्टी का एक बड़ा नेता सवाल उठा सकता है, तो हम भी सवाल उछाल ही सकते हैं.

नक्सली हमले में शहीद हुए जवानों को लेकर आपत्तिजनक टिप्पणी करने वाली लेखिका को राजद्रोह के आरोप में गिरफ्तार कर लिया गया. लेखिका की गिरफ्तारी के बाद तथ्य और तर्कों के साथ उन्हें 'विक्टिम' की तरह पेश करने वाली मशीनरी तुरंत एक्टिव हो गई. बताया जाने लगा कि शहीद शब्द तो सरकारी रिकॉर्ड में है ही नहीं. इसे सरकार ने कोर्ट में भी स्वीकारा है कि किसी को आधिकारिक तौर पर शहीद नहीं माना जाता है. लोगों की भावनाओं से खेलने वाले अचानक से टेक्निकल बातों पर आ जाते हैं. मान लेते हैं कि शहीद शब्द सरकारी रिकॉर्ड का हिस्सा नहीं है. लेकिन, जिन जवानों को लोगों ने अपनी भावनाओं से शहीद का दर्जा दिया है, उन पर आप अपनी टेक्निकल बातों के आधार पर सवाल नहीं उठा सकते हैं.

कथित बुद्धिजीवी वर्ग में पब्लिसिटी पाने के लिए इस तरह के बयान देना किसी भी हाल में शोभा नही देता हैं. यह सैन्यबलों के मनोबल को गिराने और उनकी देशभक्ति पर सवाल उठाने जैसा है. इस तरह के बयान देने से पहले लोगों को सोचना चाहिए कि वह सैन्यबलों के साथ लोगों की जुड़ी भावनाओं से खेल रहे हैं. सेना का जवान, जो न जाने कितनी ही विषम परिस्थितियों में रहने के बावजूद देश की रक्षा में लगा रहता है और देश को बचाने के लिए अपनी जान देने में भी संकोच नही करता, उसे सरकार से शहीद होने के सर्टिफिकेट की जरूरत नहीं है. इन जवानों को देश के लोग अपने मन से शहीद मानते हैं. सैन्यबलों के लिए अपमानजनक टिप्पणी करने वालों और उन्हें डिफेंड करने वालों के लिए केवल इतना ही कहा जा सकता है कि 'जाकी रही भावना जैसी प्रभु मूरत देखी तिन तैसी'.

इस लेख में लेखक ने अपने निजी विचार व्यक्त किए हैं. ये जरूरी नहीं कि आईचौक.इन या इंडिया टुडे ग्रुप उनसे सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ लेखक ही जिम्मेदार है.

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