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तीन साल एक ही राग प्रैक्टिस करने की सजा मिली, और वे रौशन हो गए

    • पीयूष पांडे
    • Updated: 13 जुलाई, 2017 11:07 PM
  • 13 जुलाई, 2017 11:07 PM
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रौशन साहब ने तमाम उम्र संगीत को जीया. वो कमाल के संगीतकार थे, लेकिन क्या आप यकीन करेंगे कि रौशन साहब के चमकता रौशन सितारा बनने में उनके गुरु की पिटाई का योगदान है.

रौशन लाल नागरथ कमाल के संगीत निर्देशक थे. जिंदगी भर न भूलेगी वो बरसात की रात, जो वादा किया वो निभाना पड़ेगा, पांव छू लेने दो और निगाहें मिलाने को जी चाहता है जैसे सैकड़ों दिलकश गाने रौशन ने रचे. लेकिन क्या आप यकीन करेंगे कि रौशन साहब के चमकता रौशन सितारा बनने में उनके गुरु की पिटाई का योगदान है.

दरअसल, बात उन दिनों की है, जब रौशन मैहर में उस्ताद अलाउद्दीन खां साहब से संगीत की शिक्षा ले रहे थे. एक दिन अलाउद्दीन खां ने रौशन से सारंगी पर राग यमन बजाने को कहा. रौशन साहब ने गलत बंदिश बजा दी. इतना सिखाने के बाद भी रौशन ने गलत राग बजाया तो अलाउद्दीन खां भड़क गए. इस कदर कि चूल्हे से जलती लकड़ी सीधे रौशन को दे मारी. उन दिनों रौशन अलाउद्दीन खां के घर ही रह रहे थे. रात में रौशन पीड़ा से कराहने लगे तो अलाउद्दीन खां उनके पास आकर बैठ गए. जख्मों पर मलहम लगाया और देर तक सिर सहलाते रहे.

उस्ताद अलाउद्दीन खां साहब से ली संगीत की शिक्षा

लेकिन, सख्त गुरु ने चेले को संगीत की बारीकियां सिखाने के लिए तीन साल तक सिर्फ राग यमन के अभ्यास का हुक्म दे डाला. रौशन ने धैर्य से तीन साल तक राग यमन की प्रैक्टिस की. शायद यही वजह भी है कि रौशन के 70 फीसदी गानों का बेस राग यमन है. अलाउद्दीन खां साहब के यहां रहते रहते रौशन सारंगी में प्रवीण हो गए. यह सारंगी उनके फिल्मी सफर में बार बार झलकती है. सारंगी का जितना व्यापक और खूबसूरत इस्तेमाल रौशन ने किया, शायद ही किसी दूसरे संगीतकार ने किया.

यूं रौशन ने मनोहर बर्वे और रतन जानकार जैसे दिग्गजों से भी संगीत की शिक्षा ली थी लेकिन सही मायने में उनकी प्रतिभा को निखारा अलाउद्दीन खां ने ही. या कहें अलाउद्दीन खां ने रौशन के गुरुर को बार-बार चुनौती दी और बार-बार गुरुर से आसमान में उड़ने की कोशिश करते रौशन...

रौशन लाल नागरथ कमाल के संगीत निर्देशक थे. जिंदगी भर न भूलेगी वो बरसात की रात, जो वादा किया वो निभाना पड़ेगा, पांव छू लेने दो और निगाहें मिलाने को जी चाहता है जैसे सैकड़ों दिलकश गाने रौशन ने रचे. लेकिन क्या आप यकीन करेंगे कि रौशन साहब के चमकता रौशन सितारा बनने में उनके गुरु की पिटाई का योगदान है.

दरअसल, बात उन दिनों की है, जब रौशन मैहर में उस्ताद अलाउद्दीन खां साहब से संगीत की शिक्षा ले रहे थे. एक दिन अलाउद्दीन खां ने रौशन से सारंगी पर राग यमन बजाने को कहा. रौशन साहब ने गलत बंदिश बजा दी. इतना सिखाने के बाद भी रौशन ने गलत राग बजाया तो अलाउद्दीन खां भड़क गए. इस कदर कि चूल्हे से जलती लकड़ी सीधे रौशन को दे मारी. उन दिनों रौशन अलाउद्दीन खां के घर ही रह रहे थे. रात में रौशन पीड़ा से कराहने लगे तो अलाउद्दीन खां उनके पास आकर बैठ गए. जख्मों पर मलहम लगाया और देर तक सिर सहलाते रहे.

उस्ताद अलाउद्दीन खां साहब से ली संगीत की शिक्षा

लेकिन, सख्त गुरु ने चेले को संगीत की बारीकियां सिखाने के लिए तीन साल तक सिर्फ राग यमन के अभ्यास का हुक्म दे डाला. रौशन ने धैर्य से तीन साल तक राग यमन की प्रैक्टिस की. शायद यही वजह भी है कि रौशन के 70 फीसदी गानों का बेस राग यमन है. अलाउद्दीन खां साहब के यहां रहते रहते रौशन सारंगी में प्रवीण हो गए. यह सारंगी उनके फिल्मी सफर में बार बार झलकती है. सारंगी का जितना व्यापक और खूबसूरत इस्तेमाल रौशन ने किया, शायद ही किसी दूसरे संगीतकार ने किया.

यूं रौशन ने मनोहर बर्वे और रतन जानकार जैसे दिग्गजों से भी संगीत की शिक्षा ली थी लेकिन सही मायने में उनकी प्रतिभा को निखारा अलाउद्दीन खां ने ही. या कहें अलाउद्दीन खां ने रौशन के गुरुर को बार-बार चुनौती दी और बार-बार गुरुर से आसमान में उड़ने की कोशिश करते रौशन को जमीन पर ला पटका. अलाउद्दीन खां साहब से जुड़ा उनका एक और किस्सा है. एक दिन अलाउद्दीन खां ने अपने शिष्य से पूछा-तुम रोजाना कितनी देर अभ्यास करते हो ? रौशन ने गर्व से कहा-सुबह दो घंटे और शाम को दो घंटे. इतना सुनते ही अलाउद्दीन खां साहब का फिर पारा चढ़ गया. उन्होंने दो टूक कहा-अगर वास्तव में संगीत सीखना है तो इससे कुछ नहीं होगा. अगर रोजाना 8 घंटे प्रैक्टिस नहीं कर सकते तो अपना बोरिया बिस्तर समेट कर यहां से निकल जाओ.

रौशन के 70 प्रतिशत गाने राग यमन पर ही बेस्ड हैं

रौशन ने 1940 में दिल्ली आकाशवाणी केंद्र में बतौर संगीतकार करियर की शुरुआत की. संगीतकार अनिल बिस्वास की सलाह पर 1949 में वह संगीतकार बनने का ख्वाब लिए मायानगरी मुंबई आ गए. करीब डेढ़ साल के संघर्ष के बाद उनकी मुलाकात केदार शर्मा से हुई, जिन्होंने उन्हें ‘नेकी और बदी’ में संगीत देने का अवसर दिया.

रौशन ने हिन्दी सिनेमा को बेहतरीन कव्वालियां दीं. उनकी कव्वाली ‘ये इश्क इश्क है, इश्क है’ को बॉलीवुड की सबसे सफलतम कव्वाली माना जाता है. हालांकि, उन्हें फिल्मफेयर अवॉर्ड 1963 में फिल्म 'ताजमहल' के लिए मिला.

रौशन साहब बेहद गुणी और संवेदनशील शख्स थे. वह महज 50 वर्ष की उम्र में दुनिया को अलविदा कह गए. लेकिन उनका निधन भी बेहद अजीब तरह से हुआ. 16 नवंबर 1967 को निर्माता हरि वालिया के यहां फिल्म ‘लाट साहब’ की सफलता की पार्टी थी. एक दावत में उन्होंने चुटकुले सुनाकर लोगों को पेट पकड़कर हंसने पर मजबूर कर दिया. लेकिन उसी दौरान ठहाका लगाते हुए वह अचानक बेहोश हो गए. ह्रदयघात से पलक झपकने से पहले ही उनका निधन हो गया. उनकी फिल्म अरमान भरा दिल तो रिलीज भी नहीं हो पाई, जबकि अमित सेन निर्देशित अनोखी रात उनके निधन के बाद रिलीज हुई.

रौशन साहब ने तमाम उम्र संगीत को जीया. वो कमाल के संगीतकार थे लेकिन इंडस्ट्री में तमाम दिग्गजों की मौजूदगी के बीच उन्हें शायद वो सम्मान नहीं मिल पाया, जिसके वो हकदार थे.

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इस लेख में लेखक ने अपने निजी विचार व्यक्त किए हैं. ये जरूरी नहीं कि आईचौक.इन या इंडिया टुडे ग्रुप उनसे सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ लेखक ही जिम्मेदार है.

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