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पहली जंगे आजादी पर गालिब की चुप्पी की वजह!

    • आर.के.सिन्हा
    • Updated: 11 मई, 2020 10:11 PM
  • 11 मई, 2020 10:11 PM
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11 मई 1857 को देश की पहली जंगे आजादी (Freedom Struggle) का श्रीगेणश हुआ था. उस दिन दिल्ली (Delhi) पर बागियों ने हल्ला बोला था. तब उर्दू के शिखर शायर गालिब (Ghalib) दिल्ली में थे. हमारे सामने बड़ा सवाल यही है कि वे पहली जंगे आजादी पर कमोबेश चुप क्यों रहे?

मिर्जा मोहम्मद असदुल्लाह बेग खान यानी चाचा गालिब (Mirza Ghalib) बेशक सदियों के शायर थे. इस मसले पर कोई विवाद नहीं हो सकता है. उन्होंने एक से बढ़कर एक शेर कहे. पर हैरानी होती है कि वे तब लगभग मौन थे जब उनकी अपनी दिल्ली (Delhi) में पहली जंगे आजादी की लड़ाई (First Freedom Struggle) लड़ी जा रही थी. दिल्ली पर 11 मई 1857 को मेरठ से आए बंगाल आर्मी के बागियों ने हमला कर दिया था. वे दिल्ली में ईस्ट इंडिया कंपनी (East India Company) के गोरे अफसरों और उनकी खिदमत करने वाले भारतीयों को मारते हैं. दिल्ली में अफरा-तफरी मच गई. बागियों ने बच्चों, बूढ़ों, जवानों औरतों, जो भी अंग्रेज़ सामने आया उसे मारा। नाम निहाद मुगल बादशाह बहादुर शाह ज़फर की सुरक्षा में तैनात कप्तान डगलस और ईस्ट इंडिया कम्पनी के एजेंट साइमन फ्रेज़र को भी बेरहमी से मार दिया गया. बागियों ने बहादुर शाह ज़फर (Bahadur Shah Zafar) को हिन्दुस्तान का बादशाह घोषित कर दिया और इसके साथ ही दिल्ली उनके कब्जे में थी. गालिब खुद बहादुर शाह जफर के पास काम करते थे. यानी गालिब ने 1857 में भारतीय स्वतंत्रता का पहला युद्ध ने अपनी आंखों के सामने से देखा था. पर वे कौन से कारण थे जिनकी वजह से वे कमोबेश कलम चलाने से बचते रहे.

ग़ालिब जिन्होंने तकरीबन सभी मुद्दों पर लिखा मगर जब बात जंगे आजादी की आई तो उनकी कलम खामोश रही

कहते हैं कि गालिब के भाई मिर्जा यूसुफ वर्षों से विक्षिप्त थे और अंग्रेजों ने कत्लेआम के दौरान उन्हें गोली मार दी पर गालिब ने यह जानकारी जाहिर नहीं की. उन्होंने लिखा कि उनके भाई की सामान्य मृत्यु हुई है. क्या वे कत्लेआम को देखकर अंदर से बहुत डरे हुए थे? वे इनाम, वजीफे, पेंशन और उपाधियों के लिए अंग्रेजों के पीछे भागते रहे. यही वजह रही उन्होंने कभी अंग्रेज़ों के बारे में गलत नहीं लिखा...

मिर्जा मोहम्मद असदुल्लाह बेग खान यानी चाचा गालिब (Mirza Ghalib) बेशक सदियों के शायर थे. इस मसले पर कोई विवाद नहीं हो सकता है. उन्होंने एक से बढ़कर एक शेर कहे. पर हैरानी होती है कि वे तब लगभग मौन थे जब उनकी अपनी दिल्ली (Delhi) में पहली जंगे आजादी की लड़ाई (First Freedom Struggle) लड़ी जा रही थी. दिल्ली पर 11 मई 1857 को मेरठ से आए बंगाल आर्मी के बागियों ने हमला कर दिया था. वे दिल्ली में ईस्ट इंडिया कंपनी (East India Company) के गोरे अफसरों और उनकी खिदमत करने वाले भारतीयों को मारते हैं. दिल्ली में अफरा-तफरी मच गई. बागियों ने बच्चों, बूढ़ों, जवानों औरतों, जो भी अंग्रेज़ सामने आया उसे मारा। नाम निहाद मुगल बादशाह बहादुर शाह ज़फर की सुरक्षा में तैनात कप्तान डगलस और ईस्ट इंडिया कम्पनी के एजेंट साइमन फ्रेज़र को भी बेरहमी से मार दिया गया. बागियों ने बहादुर शाह ज़फर (Bahadur Shah Zafar) को हिन्दुस्तान का बादशाह घोषित कर दिया और इसके साथ ही दिल्ली उनके कब्जे में थी. गालिब खुद बहादुर शाह जफर के पास काम करते थे. यानी गालिब ने 1857 में भारतीय स्वतंत्रता का पहला युद्ध ने अपनी आंखों के सामने से देखा था. पर वे कौन से कारण थे जिनकी वजह से वे कमोबेश कलम चलाने से बचते रहे.

ग़ालिब जिन्होंने तकरीबन सभी मुद्दों पर लिखा मगर जब बात जंगे आजादी की आई तो उनकी कलम खामोश रही

कहते हैं कि गालिब के भाई मिर्जा यूसुफ वर्षों से विक्षिप्त थे और अंग्रेजों ने कत्लेआम के दौरान उन्हें गोली मार दी पर गालिब ने यह जानकारी जाहिर नहीं की. उन्होंने लिखा कि उनके भाई की सामान्य मृत्यु हुई है. क्या वे कत्लेआम को देखकर अंदर से बहुत डरे हुए थे? वे इनाम, वजीफे, पेंशन और उपाधियों के लिए अंग्रेजों के पीछे भागते रहे. यही वजह रही उन्होंने कभी अंग्रेज़ों के बारे में गलत नहीं लिखा ताकि उन्हें अंग्रेज़ों से पेंशन जैसे फायदे मिल सके. लेकिन इसके बावजूद लाल किले से बहादुर शाह ज़फर के उस्ताद के रूप में वो जुड़े रहे.

‘हज़ारों ख़्वाहिशें ऐसी कि हर ख़्वाहिश पर दम निकले

बहुत निकले मेरे अरमान लेकिन फिर भी कम निकले.

जैसे लाजवाब शेर कहने वाले गालिब ने अपनी शायरी में वे सारे दुख, तकलीफ और त्रासदियों का जिक्र किया जिससे वे महान शायर बनते. कुलमिलाकर लगता है कि गालिब भी एक आम आदमी थे, उनमें एक आम आदमी की कई कमज़ोरियां भी थीं. ग़ालिब ने अपने जीवन में कई दुःख देखे उन्हें सात बच्चे थे लेकिन सातों की मृत्यु हो गई थी. ग़ालिब अपने ग़मों में भी मुस्कुराना जानते थे अपने ग़मों को उन्होंने कलम के माध्यम से लोगों तक पहुंचाया.

गौर करने वाली बात है की ग़ालिब अपने ज़माने में काफी मशहूर थे इसके बावजूद वो बहुत गरीब थे. वे जीवनभर दिल्ली के बल्लीमरान में किराए के घरों में ही रहे. इतिहासकार बताते हैं कि 1857 में मुगल शासक बहादुर शाह जफर के कैद हो जाने के बाद अंग्रेजों ने हिन्दुस्तानियों पर जुल्म करने शुरू कर दिए. हिन्दू-मुसलमानों सेदो आने का टैक्‍स हर महीने लिया जाने लगा.ये रकम न देने पर व्‍यक्ति को दिल्‍ली के बाहर धकेल दिया जाता था.

मिर्जा गालिब के साथ भी हुआ. वे दिल्‍ली में हर महीने दो आने अंग्रेजों को देते थे. गालिब ने इस परेशानी का जिक्र का किया है. गालिब ने जुलाई 1858 को हकीम गुलाम नजफ खां को पत्र लिखा था. दूसरा पत्र फरवरी 1859 को मीर मेहंदी हुसैन नजरू शायर को लिखा. दोनों पत्र में गालिब ने कहा है, 'हफ्तों घर से बाहर न‍हीं निकला हूं, क्योंकि दो आने का टिकट नहीं खरीद सका. घर से निकलूंगा तो दारोगा पकड़ ले जाएगा.'

‘यादगारे ग़ालिब’ में मौलाना हाली लिखते हैं, ‘ग़दर के ज़माने में गालिब दिल्ली से, बल्कि घर से भी बाहर नहीं निकले. ज्यों ही बग़ावत का उपद्रव उठा, गालिब घर में कैद हो गए. कुछ उसी तरह से जैसे आजकल दुनिया कोरोना के कारण घरों में है. वे ग़दर के हालातों पर कम और उस दौर में उन्हें हो रहे कष्टों पर अधिक लिखते थे.

गालिब ने सन् 1857 की क्रांति को 11 मई, 1857 से लेकर 31 जुलाई, 1858 तक दस्तंबू नामक डायरी में लिखा है. ग़ालिब ग़दर के वक़्त किन हालात से गुज़र रहे थे, ‘मुझे क्या बुरा था मरना गर एक बार होता.’ अपने एक दोस्त को लिखे ख़त में उस वक़्त की दिल्ली के हालात को बयान करते हुए मिर्ज़ा लिखतेहैं, ‘पूछो कि ग़म क्या है? ग़म-ए-मर्ग, ग़म-ए-फ़िराक़, ग़म-ए-रिज़्क, ग़म-ए-इज़्जत?’

बहरहाल उस दौर में जहां गालिब चुप बैठे थे तब भी दिल्ली में एक पत्रकार गोरों के खिलाफ खुलकर लिख रहे थे. उनाका नाम मोहम्मद बकर था. वह अपने ‘दिल्ली उर्दू अखबार में ब्रिटिश फौजों और बागियों के बीच हो रही जंग को निर्भीकता और निष्पक्षता से कवर कर रहे थे. बकर साहब की लेखनी का जोर हिन्दू-मुस्लिम एकता पर रहता था. इसमें क्रांतिकारी कविताएं भी छपती थीं. इसका एक कॉलम ‘हजूर ए वाला’ पाठक बहुत पसंद किया करते थे. ये चार पन्नों का छपता था. हरेक पन्ने में दो कॉलम और 32 लाइनें रहती थीं.

उन्होंने कभी ‘देहली उर्दू अखबार’ के लिए कुछ लिखा हो इसकी जानकारी नहीं मिलती है. बकर साहिब इस्लामिक विद्वान भी थे. वे उर्दू, फारसी और अरबी जानते थे. बहरहाल 14 सितंबर, 1857 को जंगे ए आजादी में आखिर गोरे जीते तो बकर साहब का अखबार बंद हो गया. बकर साहब पर ब्रिटिश सरकार ने देशद्रोह का मुकदमा चलाया. उन्हें 14 दिसंबर, 1857 को खुले आम फांसी पर लटका दिया गया.

हैरानी होती है कि गालिब ने बकर साहब की फांसी पर भी कुछ नहीं लिखा. पर गालिब की पर्सनेल्टी का समग्र रूप से मूल्यांकन करना होगा. सिर्फ इसलिए उन्हें कोई खारिज नहीं कर सकता क्योंकि वे आजादी की पहली जंग के गवाह होने पर भी कुछ खास नहीं कहते.

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इस लेख में लेखक ने अपने निजी विचार व्यक्त किए हैं. ये जरूरी नहीं कि आईचौक.इन या इंडिया टुडे ग्रुप उनसे सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ लेखक ही जिम्मेदार है.

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