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हुई मुद्दत कि ग़ालिब मर गया पर याद आता है...

    • प्रीति अज्ञात
    • Updated: 15 फरवरी, 2022 04:56 PM
  • 14 फरवरी, 2019 10:59 PM
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मिर्जा गालिब की शायरी के दीवाने तो पूरी दुनिया में हैं. उन्ही की शायरी से प्रेम करने वाली एक लेखिका ने अपना हाल बता दिया है.

"बल्लीमारान के मोहल्ले की वो पेचीदा दलीलों की सी गलियां,

सामने टाल के नुक्कड़ पर बटेरों के कसीदे,

गुड़गुड़ाती हुई पान की पीकों में वो दाद, वो वाह! वाह!

चंद दरवाज़ों पर लटके हुए बोशीदा से कुछ टाट के परदे,

एक बकरी के मिमियाने की आवाज़,

और धुंधलाई हुई शाम के बेनूर अंधेरे ऐसे दीवारों से मुंह जोड़ के चलते हैं यहां,

चूड़ीवालां के कटड़े की बड़ी बी जैसे अपनी बुझती हुई आंखों से दरवाज़े टटोले,

इसी बेनूर अंधेरी सी गली कासिम से एक तरतीब चरागों की शुरू होती है,

एक कुराने सुखन का सफा खुलता है,

असदुल्ला खां ग़ालिब का पता मिलता है"

गुलज़ार साहब ने ग़ालिब का पता इतनी ख़ूबसूरती से बताया हुआ है कि वह हरएक के ज़हन में शब्दशः गढ़ गया है और जिसने ग़ालिब का लिखा कभी पढ़ा नहीं, वह भी इस अद्भुत अंदाज़ में लिखे परिचय को पढ़ उन्हें जानने को बेताब हो उठेगा.

अक्सर देखने में आता है कि 1975-85 के बीच जन्मे लोग पुराने दिनों को याद कर बेहद भावविह्वल हो उठते हैं. सचमुच वो भी क्या दिन थे! महाभारत, रामायण सीरियल के दौर में दूरदर्शन का क्रेज़ अपने चरम पर था और उसी समय मियां ग़ालिब से हमारी पहली मुलाक़ात हुई. मामला कुछ-कुछ 'Love at first sight' जैसा ही था. गुलज़ार द्वारा लिखित धारावाहिक 'मिर्ज़ा ग़ालिब' का प्रसारण शुरू हुआ. नसीरुद्दीन शाह, नीना गुप्ता, तन्वी आज़मी, शफ़ी इनामदार, सुधीर दलवी जैसे मंजे हुए कलाकारों के अभिनय ने इस धारावाहिक की उत्कृष्टता में चार चांद लगा दिए थे. वो पीढ़ी जिसे ग़ालिब की ऊंचाई का अंदाज़ा तक न था, उसके लिए गुलज़ार का यह धारावाहिक किसी तोहफ़े से कम न था.

अपनी क्या कहें! बस यूं समझिये कि जहां बच्चे स्कूलों में तमाम शैतानियां करते हैं और हम जैसे किताबी कीड़े को दीन-दुनिया से ज्यादा मतलब नहीं हुआ करता था. उस...

"बल्लीमारान के मोहल्ले की वो पेचीदा दलीलों की सी गलियां,

सामने टाल के नुक्कड़ पर बटेरों के कसीदे,

गुड़गुड़ाती हुई पान की पीकों में वो दाद, वो वाह! वाह!

चंद दरवाज़ों पर लटके हुए बोशीदा से कुछ टाट के परदे,

एक बकरी के मिमियाने की आवाज़,

और धुंधलाई हुई शाम के बेनूर अंधेरे ऐसे दीवारों से मुंह जोड़ के चलते हैं यहां,

चूड़ीवालां के कटड़े की बड़ी बी जैसे अपनी बुझती हुई आंखों से दरवाज़े टटोले,

इसी बेनूर अंधेरी सी गली कासिम से एक तरतीब चरागों की शुरू होती है,

एक कुराने सुखन का सफा खुलता है,

असदुल्ला खां ग़ालिब का पता मिलता है"

गुलज़ार साहब ने ग़ालिब का पता इतनी ख़ूबसूरती से बताया हुआ है कि वह हरएक के ज़हन में शब्दशः गढ़ गया है और जिसने ग़ालिब का लिखा कभी पढ़ा नहीं, वह भी इस अद्भुत अंदाज़ में लिखे परिचय को पढ़ उन्हें जानने को बेताब हो उठेगा.

अक्सर देखने में आता है कि 1975-85 के बीच जन्मे लोग पुराने दिनों को याद कर बेहद भावविह्वल हो उठते हैं. सचमुच वो भी क्या दिन थे! महाभारत, रामायण सीरियल के दौर में दूरदर्शन का क्रेज़ अपने चरम पर था और उसी समय मियां ग़ालिब से हमारी पहली मुलाक़ात हुई. मामला कुछ-कुछ 'Love at first sight' जैसा ही था. गुलज़ार द्वारा लिखित धारावाहिक 'मिर्ज़ा ग़ालिब' का प्रसारण शुरू हुआ. नसीरुद्दीन शाह, नीना गुप्ता, तन्वी आज़मी, शफ़ी इनामदार, सुधीर दलवी जैसे मंजे हुए कलाकारों के अभिनय ने इस धारावाहिक की उत्कृष्टता में चार चांद लगा दिए थे. वो पीढ़ी जिसे ग़ालिब की ऊंचाई का अंदाज़ा तक न था, उसके लिए गुलज़ार का यह धारावाहिक किसी तोहफ़े से कम न था.

अपनी क्या कहें! बस यूं समझिये कि जहां बच्चे स्कूलों में तमाम शैतानियां करते हैं और हम जैसे किताबी कीड़े को दीन-दुनिया से ज्यादा मतलब नहीं हुआ करता था. उस किशोरवय में हम ग़ालिब और जगजीत सिंह से एक साथ ही इश्क़ कर बैठे; जो अब तक बदस्तूर जारी है. ग़ालिब के अल्फाज़ और उस पर जगजीत की मखमली आवाज़ ने सिर्फ़ हमें ही नहीं, न जाने कितने दिलों को उनका दीवाना बना दिया था. फ़िर तो ये पागलपन इस हद तक बढ़ा कि उनसे जुड़ी क़िताब और कैसेट (नई पीढ़ी इसको गूगल पे समझ ले) हम ढूंढ-ढूंढकर ख़रीदते. अच्छा-ख़ासा कलेक्शन था हमारे पास, जो अब भी सहेजा हुआ है.

गालिब की शायरी कई लोगों के लिए इश्क को समझने का जरिया थी.

लोग कहते हैं कि इश्क़ में डूबे, टूटे, चकनाचूर हुए लोगों को शराब सहारा देती है और हम जैसे नामुराद इन हालातों में ग़ालिब को गले लगा लेते हैं. "हैं और भी दुनिया में सुखनवर बहुत अच्छे,कहते हैं कि ग़ालिब का है अंदाज़े-बयां और"

ग़ालिब न होते तो कई टूटे हुए दिल, नए दिलों से जुड़ गए होते. ये ग़ालिब का ही जादू है जो प्रेम की पीड़ा को भी सेलिब्रेट करवा सकता है. ग़ालिब के अल्फ़ाज़ और उस पर जगजीत/चित्रा की आवाज ज़ालिम आशिक़ी पर जो क़हर ढाती है कि उफ्फ!! बानगी देखिये-

जला है जिस्म जहां दिल भी जल गया होगा,

कुरेदते हो जो अब राख जुस्तजूं क्या है.

रगों में दौड़ते फिरने के हम नहीं क़ायल,

जब आंख ही से न टपका तो फिर लहू क्या है.

इश्क़ पर जोर नहीं है ये वो आतिश 'ग़ालिब',

कि लगाये न लगे और बुझाये न बुझे.

इशरत-ए-क़तरा है दरिया में फ़ना हो जाना,

दर्द का ह़द से गुजरना है दवा हो जाना.

इश्क़ ने ग़ालिब निकम्मा कर दिया, वर्ना हम भी आदमी थे काम के.

आईना देख अपना सा मुंह ले के रह गए, साहब को दिल न देने पे कितना ग़ुरूर था.

हर एक बात पे कहते हो तुम कि तू क्या है, तुम्हीं कहो कि ये अंदाज़-ए-गुफ़्तगू क्या है.

तुम न आए तो क्या सहर न हुई, हां मगर चैन से बसर न हुई,

मेरा नाला सुना ज़माने ने, एक तुम हो जिसे ख़बर न हुई.

जिंदगी की जद्दोज़हद पर भी ग़ालिब ने ख़ूब लिखा है -

न था कुछ तो ख़ुदा था, कुछ न होता तो ख़ुदा होता,

डुबोया मुझ को होने में,न मैं होता तो क्या होता.

 

बाज़ीचा-ए-अतफ़ाल है दुनिया मिरे आगे,होता है शब-ओ-रोज़ तमाशा मिरे आगे.

ग़ालिब हमारे जीवन में इस क़दर घुल चुके हैं कि बात करते हुए उनके लफ्ज़ जुबां से ख़ुद-ब-ख़ुद बाहर निकलते हैं. हर एक भारतीय ने अपने जीवन में कई बार उनके ये शेर जरूर दोहराए होंगे -

हजारों ख़्वाहिशें ऐसी कि हर ख़्वाहिश पे दम निकले, बहुत निकले मेरे अरमां लेकिन फिर भी कम निकले.

हमको मालूम है जन्नत की हक़ीक़त लेकिन, दिल को ख़ुश रखने को ग़ालिब ये ख़्याल अच्छा है.

वो आए घर में हमारे, खुदा की क़ुदरत है, कभी हम उनको, कभी अपने घर को देखते हैं.

मिर्ज़ा ग़ालिब की शख्सियत ही इतनी विशाल है कि उसे चंद लफ़्ज़ों में बांध लेना नामुमकिन है. आज उनकी पुण्यतिथि पर उनका ही शेर उन्हें समर्पित -

हुई मुद्दत कि 'ग़ालिब' मर गया पर याद आता है

वो हर इक बात पर कहना कि यूं होता तो क्या होता!

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इस लेख में लेखक ने अपने निजी विचार व्यक्त किए हैं. ये जरूरी नहीं कि आईचौक.इन या इंडिया टुडे ग्रुप उनसे सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ लेखक ही जिम्मेदार है.

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