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श्श..! किसी को बताना मत!

    • प्रीति अज्ञात
    • Updated: 13 अक्टूबर, 2018 06:31 PM
  • 13 अक्टूबर, 2018 06:31 PM
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स्त्रियां हर बात पर झट से यूं ही नहीं रो देती हैं, ये कुछ दफ़न किये हुए किस्सों से उपजी गहन पीड़ा का वो भरा समुन्दर है जो जरा सी दरार देख भरभराकर बह उठता है.

कुछ भी कहने के पहले मैं उन सभी स्त्री-पुरुषों को सलाम करती हूं जो इस विषय पर बेझिझक साथ खड़े हैं. #MeToo कैंपेन के समर्थन में स्त्रियों का होना स्वाभाविक है क्योंकि यही वह वर्ग है जिसने यौन शोषण की गहन पीड़ा उम्र के हर दौर में झेली है और नियम यह था कि 'मौन' रहना होगा! ये जो चुप्पी है न, ये कभी सिखाई नहीं जाती!

दरअसल बचपन से ही स्त्री के इर्दगिर्द एक ऐसा वातावरण बना दिया जाता है या यूं कहिये कि हम उसमें ही जन्म लेते हैं जहां देह को इज़्ज़त/मान-सम्मान से जोड़ दिया गया है और फिर इसको तार-तार करने वाला चाहे कोई भी हो. पर इज्ज़त तो ज़नाब 'स्त्री' की ही जाती है. चाहे घर के भीतर किसी रिश्तेदार या घनिष्ठ मित्र ने भी उसके साथ गलत व्यवहार किया है. पर परिवार की नाक सलामत रहती है लेकिन यह उसी वक़्त कटी घोषित कर दी जाती है ग़र यह बात घर से बाहर चली जाए! चूंकि बेटी तो घर की लाज होती है तो यह किस्सा घर में ही दबा दिया जाता है. इसे बहुधा संस्कार, प्रतिष्ठा और अनुशासन के भारी लेबल के साथ सलीक़े से इस तरह स्थापित किया जाता है कि बदनामी, अपनों को खो देने का भय, उनकी चिंता, परिवार का सम्मान, कौन शादी करेगा? जैसे प्रश्नों की विभिन्न परतें उसके अस्तित्त्व पर लिपटती चली जाती हैं.  

हर स्त्री ने कम/ज्यादा ही सही पर अपने जीवन में शारीरिक शोषण कभी-न-कभी न अवश्य ही झेला होगा

"किसी को बताना मत!" की सलाह के साथ कर्त्तव्य निभा लिया जाता है पर कोई एक पल भी नहीं सोचता कि उम्र भर उस घिनौने इंसान को अपनी आंखों के सामने कुटिलता से मुस्कुराते देख वो रोज कितनी दफ़ा टूटती होगी! भयभीत हो सिहर जाती होगी! ख़ुद को कमरे में बंद कर घंटों अकेले रहती होगी! उस लिजलिजे, घृणित स्पर्श को याद कर चीत्कार मार रातों को उठ-उठ बिलखती होगी! शायद उस घटना से कई और बार भी गुज़रती होगी! पर...

कुछ भी कहने के पहले मैं उन सभी स्त्री-पुरुषों को सलाम करती हूं जो इस विषय पर बेझिझक साथ खड़े हैं. #MeToo कैंपेन के समर्थन में स्त्रियों का होना स्वाभाविक है क्योंकि यही वह वर्ग है जिसने यौन शोषण की गहन पीड़ा उम्र के हर दौर में झेली है और नियम यह था कि 'मौन' रहना होगा! ये जो चुप्पी है न, ये कभी सिखाई नहीं जाती!

दरअसल बचपन से ही स्त्री के इर्दगिर्द एक ऐसा वातावरण बना दिया जाता है या यूं कहिये कि हम उसमें ही जन्म लेते हैं जहां देह को इज़्ज़त/मान-सम्मान से जोड़ दिया गया है और फिर इसको तार-तार करने वाला चाहे कोई भी हो. पर इज्ज़त तो ज़नाब 'स्त्री' की ही जाती है. चाहे घर के भीतर किसी रिश्तेदार या घनिष्ठ मित्र ने भी उसके साथ गलत व्यवहार किया है. पर परिवार की नाक सलामत रहती है लेकिन यह उसी वक़्त कटी घोषित कर दी जाती है ग़र यह बात घर से बाहर चली जाए! चूंकि बेटी तो घर की लाज होती है तो यह किस्सा घर में ही दबा दिया जाता है. इसे बहुधा संस्कार, प्रतिष्ठा और अनुशासन के भारी लेबल के साथ सलीक़े से इस तरह स्थापित किया जाता है कि बदनामी, अपनों को खो देने का भय, उनकी चिंता, परिवार का सम्मान, कौन शादी करेगा? जैसे प्रश्नों की विभिन्न परतें उसके अस्तित्त्व पर लिपटती चली जाती हैं.  

हर स्त्री ने कम/ज्यादा ही सही पर अपने जीवन में शारीरिक शोषण कभी-न-कभी न अवश्य ही झेला होगा

"किसी को बताना मत!" की सलाह के साथ कर्त्तव्य निभा लिया जाता है पर कोई एक पल भी नहीं सोचता कि उम्र भर उस घिनौने इंसान को अपनी आंखों के सामने कुटिलता से मुस्कुराते देख वो रोज कितनी दफ़ा टूटती होगी! भयभीत हो सिहर जाती होगी! ख़ुद को कमरे में बंद कर घंटों अकेले रहती होगी! उस लिजलिजे, घृणित स्पर्श को याद कर चीत्कार मार रातों को उठ-उठ बिलखती होगी! शायद उस घटना से कई और बार भी गुज़रती होगी! पर स्त्री है, इसलिए चुप रहना होगा!

यदि उसने एक अच्छा और सुखी बचपन जिया है तब भी वह स्वयं को एक सभ्य समाज में रहने लायक बनाने के लिए इन सारी बातों को उम्र-भर गांठ बांधे रखती रही है. तभी तो घर से बाहर जाते समय बीच राह कोई उसे टोकता, छूता, सीटी मारकर गंदे शब्द कहता...वह आंखें नीची कर चुपचाप निकल जाती. बोलने का मतलब, तमाशा और फिर घर की नाक का सवाल जो ठहरा. घर, ऑफिस, बस, ट्रेन, लम्बी लाइन, धार्मिक स्थल, शादी-ब्याह, पारिवारिक कार्यक्रम....हर परिचित/अपरिचित स्थान पर ऐसा होना और बर्दाश्त करना उसने अपनी नियति मान लिया.

मैं यह पूरे दावे के साथ कह सकती हूं कि हर स्त्री ने कम/ज्यादा ही सही पर अपने जीवन में शारीरिक शोषण कभी-न-कभी न अवश्य ही झेला होगा! याद कीजिये बस/ट्रेन में वो अचानक से किसी कोहनी का स्पर्श, जांघों पर हाथ या लाइन में किसी का सटकर खड़ा होना...पलटकर देखने पर वही गन्दी निग़ाह और भद्दे इशारे....और हमारा भीतर ही भीतर गड़ जाना!

हमारी पीढ़ियां एक-दूसरे को चुप रहना सिखाती रहीं. उनकी सिसकियां घर की खोखली चारदीवारी के भीतर ही 'सम्मानित' होती रहीं. स्त्रियां हर बात पर झट से यूं ही नहीं रो देती हैं, ये कुछ दफ़न किये हुए किस्सों से उपजी गहन पीड़ा का वो भरा समुन्दर है जो जरा सी दरार देख भरभराकर बह उठता है.

लानत है उन लोगों पर जो हाल के घटनाक्रम से बौखलाए हुए ऊलजलूल कहे जा रहे हैं. जिन्हें स्त्री के अब बोलने से इसलिए आपत्ति है कि वो 'तब' क्यों नहीं बोली? जिन्हें सबूत की दरक़ार है, वे ये सवाल कभी अपने घर की स्त्रियों से करकर देखें! उनकी आँखों की नमी और आवाज़ की कंपकंपाहट आपके नीचे की ज़मीन खिसका देगी.

समाज ने महिलाओं को चुप रहना ही सिखाया

वो जिन्हें लगता है कि स्त्री उनकी बदौलत आगे बढ़ी और अब उसकी जुबां निकल आई है तो वे भी जान लें कि किसी की मदद कर देने से वे उसके शरीर के अधिकारी नहीं हो जाते. इनका एक गलत स्पर्श उस इंसान का जीवन तबाह कर देता है. देह के परे एक इंसान भी है उसमें कहीं, उसका सम्मान करना सीखिए.

आशंका है कि अब कोई नया भीषण मुद्दा योजनाओं की कड़ाही में खलबलाया जा रहा होगा जिसे जल्द ही सबके सामने परोस इस मुद्दे का मुंह शीघ्र ही बंद कर दिया जाएगा क्योंकि यदि इसके दोषियों को सज़ा मिलने लगी तो देश की जेलें कम पड़ जायेंगी.

सज़ा!! मैं भी क्या सोच रही हूं!

ध्यान से अपने आसपास देखिये कि हर बात पर गालीगलौज पर उतर आने वाले कुछ नेताओं/प्रवक्ताओं की बोलती इस विषय पर कैसे बंद है? वे पत्रकार/ साहित्यकार जो जरा-जरा सी बात में क्रांति का उद्घोष कर रणक्षेत्र में कूद पड़ते हैं, इस समय मैदान छोड़ क्यों भाग खड़े हुए हैं? बवाल काट देने वाले सूरमाओं को सांप कैसे सूंघ गया है?

बड़े-बड़े नामों के गले में ये कौन-सी हड्डी फंसी हुई है जिससे उनसे न बोलते बन रहा है न उगलते?

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इस लेख में लेखक ने अपने निजी विचार व्यक्त किए हैं. ये जरूरी नहीं कि आईचौक.इन या इंडिया टुडे ग्रुप उनसे सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ लेखक ही जिम्मेदार है.

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