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लिव-इन रिश्‍तों के ब्रेकअप का बोझ पुरुषों को ही उठाना पड़ेगा

    • वंदना सिंह
    • Updated: 07 जुलाई, 2018 05:20 PM
  • 07 जुलाई, 2018 05:19 PM
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लिव इन में रहने वाले जोड़ों की वही जिम्मेदारियां और अधिकार होने चाहिए जो शादीशुदा लोगों के होते हैं. क्योंकि दोनों के बीच फर्क सिर्फ शादी के ठप्पे का ही होता है.

समाजवादी नेता राम मनोहर लोहिया का एक प्रसिद्ध कथन है- एक आदमी और एक औरत के बीच, सबकुछ तब तक जायज जब तक इसके लिए किसी भी तरह के बल का प्रयोग न किया गया हो. या फिर प्रतिबद्धता का उल्लंघन नहीं होता है. खुद लोहिया ने कभी शादी नहीं की लेकिन दिल्ली विश्वविद्यालय की लेक्चरर रमा मित्र के साथ लिव इन में रहे.

हालांकि, लोहिया ने इस बारे में कुछ नहीं कहा कि अगर वादा तोड़ा गया तो फिर क्या होना चाहिए. इस सवाल को अदालतों और कानूनी विशेषज्ञों को जवाब देने के लिए छोड़ दिया गया. और अब, भारत के सुप्रीम कोर्ट ने लिव इन रिश्तों को लेकर एक बहुत ही महत्वपूर्ण बहस को जन्म दिया है. अगर कोई लिव इन रिश्ता टूट जाता है तो क्या पुरुषों को मुआवजे का भुगतान करना चाहिए? लिव इन रिश्तों को शादी का ही दर्जा नहीं दिया जा सकता है?

जिस संदर्भ में अदालत ने इस बहस की शुरुआत की है उसे समझना ज्यादा जरुरी है.

अभी ही क्यों

एससी बेंच, ट्रायल कोर्ट और हाई कोर्ट के आदेश को चुनौती देने वाली एक याचिका पर सुनवाई कर रही थी. एक व्यक्ति पर उसकी लिव इन पार्टनर ने रेप का आरोप लगाया था. व्यक्ति ने इसके खिलाफ ही याचिका डाली थी. वो पुरुष और महिला कथित तौर पर पिछले छह सालों से लिव इन में रह रहे थे. इसके बाद महिला ने उस आदमी के खिलाफ रेप का मामला दर्ज करा दिया. उस आदमी ने महिला से "शादी का वादा" किया था और दोनों के बीच शारीरिक संबंध भी थे.

महिलाओं को अधिकार मिलने चाहिए

बेंच ने कहा कि अगर आरोपी पर लड़की द्वारा लगाए अापराधिक आरोप को नहीं भी मानें तो भी पीड़िता को हर वो सुविधा मिलनी चाहिए जो कि एक शादीशुदा स्त्री को मिलती है. इससे महत्वपूर्ण बात जो कोर्ट ने कही: "इसे इस तरह से देखने की जरुरत है ताकि रिश्ते से बाहर आने के बाद महिला...

समाजवादी नेता राम मनोहर लोहिया का एक प्रसिद्ध कथन है- एक आदमी और एक औरत के बीच, सबकुछ तब तक जायज जब तक इसके लिए किसी भी तरह के बल का प्रयोग न किया गया हो. या फिर प्रतिबद्धता का उल्लंघन नहीं होता है. खुद लोहिया ने कभी शादी नहीं की लेकिन दिल्ली विश्वविद्यालय की लेक्चरर रमा मित्र के साथ लिव इन में रहे.

हालांकि, लोहिया ने इस बारे में कुछ नहीं कहा कि अगर वादा तोड़ा गया तो फिर क्या होना चाहिए. इस सवाल को अदालतों और कानूनी विशेषज्ञों को जवाब देने के लिए छोड़ दिया गया. और अब, भारत के सुप्रीम कोर्ट ने लिव इन रिश्तों को लेकर एक बहुत ही महत्वपूर्ण बहस को जन्म दिया है. अगर कोई लिव इन रिश्ता टूट जाता है तो क्या पुरुषों को मुआवजे का भुगतान करना चाहिए? लिव इन रिश्तों को शादी का ही दर्जा नहीं दिया जा सकता है?

जिस संदर्भ में अदालत ने इस बहस की शुरुआत की है उसे समझना ज्यादा जरुरी है.

अभी ही क्यों

एससी बेंच, ट्रायल कोर्ट और हाई कोर्ट के आदेश को चुनौती देने वाली एक याचिका पर सुनवाई कर रही थी. एक व्यक्ति पर उसकी लिव इन पार्टनर ने रेप का आरोप लगाया था. व्यक्ति ने इसके खिलाफ ही याचिका डाली थी. वो पुरुष और महिला कथित तौर पर पिछले छह सालों से लिव इन में रह रहे थे. इसके बाद महिला ने उस आदमी के खिलाफ रेप का मामला दर्ज करा दिया. उस आदमी ने महिला से "शादी का वादा" किया था और दोनों के बीच शारीरिक संबंध भी थे.

महिलाओं को अधिकार मिलने चाहिए

बेंच ने कहा कि अगर आरोपी पर लड़की द्वारा लगाए अापराधिक आरोप को नहीं भी मानें तो भी पीड़िता को हर वो सुविधा मिलनी चाहिए जो कि एक शादीशुदा स्त्री को मिलती है. इससे महत्वपूर्ण बात जो कोर्ट ने कही: "इसे इस तरह से देखने की जरुरत है ताकि रिश्ते से बाहर आने के बाद महिला किसी परेशानी में न पड़ जाए और उसका शोषण न हो."

आज के समय में महिलाओं ने अपने दम पर बहुत कुछ पा लिया है लेकिन फिर भी पितृसत्ता हर कदम पर उनके लिए बाधाएं खड़ी करती रहती है. आज समानता और जेंडर जस्टिस के आधार पर बने रिश्तों की जरुरत है, लेकिन ये अभी दूर की कौड़ी ही साबित हो रही है. शादीशुदा महिलाओं को कानूनी सुरक्षा प्रदान करने के लिए कानून बनाए गए हैं. लेकिन शादी के बगैर भी महिलाओं को कानूनी सुरक्षा सुनिश्चित करने के लिए कानून क्यों नहीं बनाया जाना चाहिए?

यह सुनिश्चित करना बहुत महत्वपूर्ण है कि एक इंसान के साथ लंबे समय तक रहने के दौरान महिला ने कई तरह के त्याग किए होंगे. शायद उसने अपने करियर को तवज्जो नहीं दी होगी और जीवन के कई तरह के विकल्पों पर भी समझौता किया होगा. ऐसे में किसी भी महिला के पास खुद के लिए फिर कुछ नहीं बच जाता- न पैसा, न ताकत, न उत्साह, न भरोसा. वो टूट जाती है. इस परिस्थिति में कोई भी उसकी सहायता करने के लिए नहीं आता है.

लिव-इन संबंध वन नाईट स्टैंड नहीं होते

लिव-इन रिलेशनशिप की बराबरी वन नाईट स्टैंड से नहीं की जा सकती है जिसमें दोनों लोग एक रात के लिए अपनी मर्जी से मौज मस्ती करते हैं.

लिव-इन रिलेशन साथ रहने के बारे में है, जहां दो व्यस्क सिर्फ भावनाएं और शरीर ही नहीं बांटते बल्कि इसके अलावा भी बहुत से जुड़ाव होते हैं. लिव-इन रिश्तों में रहने वाले वयस्क वित्तीय जिम्मेदारियों को भी साझा करते हैं. हमारी सामाजिक परिस्थिति में हम अक्सर देखते हैं कि महिलाएं अपने वित्तीय निर्णयों और उसको मैनेज करने का पूरा काम अपने पति को दे देती हैं या फिर शादी के बगैर भी जिस इंसान के साथ वो अपना सबकुछ बांट रही है उसे थमा देती हैं.

शादियों में अक्सर हम देखते हैं कि महिलाएं अपनी नौकरी छोड़ देती हैं और बच्चों के लिए घर पर रहती हैं. कई लिव इन रिश्तों में लोग कई तरह के कारणों जैसे घर के पालतू जानवरों की देखभाल करने के लिए नौकरियां छोड़ देते हैं. लेकिन ये ऐसा फैसला है जिसे दोनों लोग लेते हैं.

ऐसे में इसके दुष्परिणामों को सिर्फ एक ही इंसान क्यों भुगते?

मुआवजा, सिर्फ उस महिला को ही नहीं मिलना चाहिए जिसने लिव इन में रहते हुए घर की जिम्मेदारियों की वजह से अपनी नौकरी छोड़ दी. बल्कि इसमें वो सारे समझौतों को भी जोड़ा जाना चाहिए जो उस महिला ने इस रिश्ते में रहते हुए किए हैं.

सिर्फ महिलाओं की रक्षा ही क्यों करें

हमें इस बात को स्वीकार कर लेना चाहिए कि महिलाओं पर अत्याचार सर्वव्यापी है. तलाकशुदा, पति द्वारा छोड़ दी गई औरतों या विधवा महिलाओं को कानूनी सुरक्षा देने के पीछे यह सुनिश्चित करना था कि उनके पास कोई अधिकार ही न बचे. क्योंकि हमारे देश में तो स्त्रियों का अधिकार तो अपने घर की संपत्ति पर नहीं होता फिर साथ छोड़ देने के बाद स्त्री की चिंता क्यों करें.

अब देश को लिव इन संबंधों को स्वीकार करना चाहिए

क्या हमें महिलाओं को सिर्फ इसलिए बेसहारा छोड़ देना चाहिए क्योंकि शादी जैसी संस्था में वो विश्वास नहीं करती या उन्होंने अपनी शादी में देरी करना चुना?

क्या इससे पुरुषों के शोषण की गुंजाइश बन जाती है

फेमिनिस्ट और फेमिनिस्ट आंदोलन करने वालों को ये समझना होगा कि गलत, गलत ही होता है. और उसे और ज्यादा गलतियां करके सही नहीं किया जा सकता है. सशक्त महिलाओं के होने का मतलब ये नहीं पुरुषों को ही वंचित और निरीह कर दिया जाए. बिल्कुल भी नहीं.

और शादी की बात पर कानून पहले ही इस बात को कह चुका है.

हर औरत जिसकी शादी टूट गई या उसने खुद तोड़ दी उसे एलिमनी या फिर जीवन यापन के लिए वित्तीय रखरखाव पाने की पात्र है. यह अवधारणा केवल उन महिलाओं की सहायता करने के लिए है जिनके पास "इज्जत" से जीवन यापन करने का कोई तरीका नहीं है, उन्हें एलिमनी जरुर मिलना चाहिए. लेकिन जो महिलाएं कमा रही हैं वो एलिमनी की मांग नहीं कर सकती. हर केस को उसकी योग्यता पर तय किया जाता है. और यही नियम लंबे समय से लिव इन में रह रहे रिश्तों के लिए भी लागू होते हैं. और उनके लिए भी इसी नियम का पालन होना चाहिए. अब कितने समय को 'लंबा समय' इसके लिए विशेषज्ञों के निर्णय लेना होगा. अदालत ने इस बहस के रास्ते खोलकर अच्छा किया है. सिविल सोसाइटी को अब इस सवाल जवाब देने के लिए माथापच्ची करनी होगी.

कानून कितनी दूर पहुंचा है

2010 से लगातार सुप्रीम कोर्ट ने पति और पत्नी की तरह रह रहे जोड़ों के मामले में महिला को पत्नी का अधिकार देकर उनके पक्ष में आदेश दिया है.

2015 में, सुप्रीम कोर्ट ने एक महिला को उसके साथी की मौत के बाद संपत्ति में हिस्सा देते हुए आदेश दिया कि साथ रहने वाले जोड़ों को पति पत्नी माना जाएगा. अदालत ने एक संपत्ति विवाद में इस आदेश को पारित किया था. इस केस में आदमी के परिवार के सदस्यों ने दलील दी थी कि हालांकि उनके दादा 20 साल से एक महिला के साथ रह रहे थे, लेकिन वो दोनों विवाहित नहीं थे. परिवार ने तर्क दिया था कि महिला को संपत्ति में हिस्सा नहीं मिलना चाहिए क्योंकि वो उनके दादा जी की पत्नी नहीं थी, बल्कि "रखैल" थी.

यही कारण है कि रिश्तों में महिलाओं की हालत इतनी अधिक कमजोर होती है, और अलग होने के बाद भी ऐसी ही रहती है. ये भी एक कारण है कि क्यों महिलाओं को कानूनी सुरक्षा की आवश्यकता है.

अब समय आ गया है जब भारत में भी लिव इन रिलेशनशिप को अपनाया जाए.

(DailyO से साभार)

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इस लेख में लेखक ने अपने निजी विचार व्यक्त किए हैं. ये जरूरी नहीं कि आईचौक.इन या इंडिया टुडे ग्रुप उनसे सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ लेखक ही जिम्मेदार है.

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