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गुजरात के दलितों के लिए धर्म की दीवार सबसे उंची

    • मंजुला प्रदीप
    • Updated: 02 अगस्त, 2016 03:29 PM
  • 02 अगस्त, 2016 03:29 PM
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गुजरात के अधिकांश इलाकों में दलितों ने जब मंदिर में घुसने की कोशिश की या भेदभाव का विरोध किया तो उन्हें भारी हिंसा का सामना करना पड़ा. कहीं घायल हुए तो कहीं मारे भी गए.

दलित समुदाय से आने के बावजूद मुझे कभी इस बात का एहसास नहीं हुआ कि देश में दलितों को कई तरह के भेदभाव का सामना करना पड़ता है. और यदि वह इन भेदभावों का विरोध करते हैं तो उन्हें हिंसा और जुल्म का सामना करना पड़ता है. गुजरात में शहर के नजदीक ग्रामीण इलाकों में घूमने के बाद मुझे अपने समुदाय में व्याप्त भय और उनका दर्द समझने का मौका मिला. किस तरह इन इलाकों में दलितों के साथ रोजमर्रा की जिंदगी में अछूत जैसा व्यवहार होता है. इन इलाकों में दलितों की खामोशी सिर्फ यही दर्शाती है कि किसी तरह पूरा समुदाय इस अमानवीय व्यवहार के चलते समाज और व्यवस्था से बुरी तरह निराश है.

इसे भी पढ़ें: गुजरात में दलित कांड के बाद क्या हटाई जा सकती हैं CM आनंदीबेन?

हम कई ऐसे मामलों को झेल चुके हैं जहां दलितों को मंदिर में घुसने की कोशिश करने पर हिंसा का सामना करना पड़ता है. जबकि इन मंदिरों का निर्माण गांव की पंचायत के पैसों से हुआ है. राज्य के अहमदाबाद जिले के गलसाना, वंथाड, त्रंसाद गांव, सुरेन्द्र नगर जिले के रामपार गांव, आनंद जिले के भेटासी गांव, वडोदरा के जासपुर गांव, मेहसाना के खेरपुर गांव और खेड़ा के रधवनाज गांव में दलितों ने या तो मंदिर में जब भी घुसने की कोशिश की या भेदभाव का विरोध किया तो उन्हें भारी हिंसा का सामना करना पड़ा. इन हिंसाओं में कहीं कई लोग गंभीर रूप से घायल हुए तो कहीं कुछ लोगों को मौत के घाट उतार दिया गया.

इसे भी पढ़ें: ‘विकसित’ गुजरात की जड़ों में है धार्मिक कट्टरता और जातिवाद

2010 में मैंने छुआछूत को समझने के लिए मेरे...

दलित समुदाय से आने के बावजूद मुझे कभी इस बात का एहसास नहीं हुआ कि देश में दलितों को कई तरह के भेदभाव का सामना करना पड़ता है. और यदि वह इन भेदभावों का विरोध करते हैं तो उन्हें हिंसा और जुल्म का सामना करना पड़ता है. गुजरात में शहर के नजदीक ग्रामीण इलाकों में घूमने के बाद मुझे अपने समुदाय में व्याप्त भय और उनका दर्द समझने का मौका मिला. किस तरह इन इलाकों में दलितों के साथ रोजमर्रा की जिंदगी में अछूत जैसा व्यवहार होता है. इन इलाकों में दलितों की खामोशी सिर्फ यही दर्शाती है कि किसी तरह पूरा समुदाय इस अमानवीय व्यवहार के चलते समाज और व्यवस्था से बुरी तरह निराश है.

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हम कई ऐसे मामलों को झेल चुके हैं जहां दलितों को मंदिर में घुसने की कोशिश करने पर हिंसा का सामना करना पड़ता है. जबकि इन मंदिरों का निर्माण गांव की पंचायत के पैसों से हुआ है. राज्य के अहमदाबाद जिले के गलसाना, वंथाड, त्रंसाद गांव, सुरेन्द्र नगर जिले के रामपार गांव, आनंद जिले के भेटासी गांव, वडोदरा के जासपुर गांव, मेहसाना के खेरपुर गांव और खेड़ा के रधवनाज गांव में दलितों ने या तो मंदिर में जब भी घुसने की कोशिश की या भेदभाव का विरोध किया तो उन्हें भारी हिंसा का सामना करना पड़ा. इन हिंसाओं में कहीं कई लोग गंभीर रूप से घायल हुए तो कहीं कुछ लोगों को मौत के घाट उतार दिया गया.

इसे भी पढ़ें: ‘विकसित’ गुजरात की जड़ों में है धार्मिक कट्टरता और जातिवाद

2010 में मैंने छुआछूत को समझने के लिए मेरे एनजीओ ने गुजरात के 1589 गावों में शोध किया. इस शोध में मैंने देखा कि दलितों के खिलाफ 98 तरह के छुआछूत के मामले प्रचलन में थे. जिसमें धार्मिक स्थल, धार्मिक त्यौहार और धार्मिक बर्तनों जैसे भेदभाव सर्वाधिक पाए गए. इनके स्‍तर को अलग अलग श्रेणी में ऐसे समझा जा सकता है-

  गुजरात के 1589 गांवों में भेदभाव का तरीका भेदभाव (फीसदी में)
1 दलित धार्मिक स्थलों पर गैर-दलितों का नहीं जाना 83.1 %
2 ग्राम पंचायत द्वारा आयोजित नवरात्री डांस (गरबा) में दलितों का नहीं शामिल होना 85.2%
3 गांव के मंदिर में दलितों के घुसने पर प्रतिबंध 90.8%
4 दलितों को सत्‍संग में भाग लेने से मनाही 91.1%
5 गांव के पुजारियों द्वारा दलितों को प्रसाद वितरण में भेदभाव 92.3%
6 गांव के मंदिरों में कथा आयोजन में दलितों को अलग बैठाना या शामिल होने से रोकना 93.1%
7 नए मंदिरों के उद्घाटन का निमंत्रण दलितों को नहीं देना 95.6%
8 गैर-दलित पुजारियों का दलितों के यहां धार्मिक काम करने से मना करना 96.9%
9 गांव में देवी के मंदिरों में दलितों को घुसने से रोकना 97.2%
10 मंदिर के पुजारियों द्वारा दलित महिला और पुरुष से सेवा नहीं लेना 97.2%
11 मंदिरों में पूजा-पाठ की सामग्री को दलितों के छूने पर मनाही 97.3%

गुजरात में मौजूदा स्थिति इसलिए भी भयावह है क्योंकि यहां राज्य सरकार दलितों के खिलाफ छुआछूत की किसी भी घटना से साफ इंकार करती है. इसके चलते इस प्रगतिशील और तेजी से विकसित हो रहे राज्य में दलितों डर और निराशा के साथ रहने पर मजबूर है. लेकिन अब स्थिति को बदलने की जरूरत है और उन्हें वह सभी अधिकार मिलने चाहिए जिसकी गारंटी संविधान देता है.

इस लेख में लेखक ने अपने निजी विचार व्यक्त किए हैं. ये जरूरी नहीं कि आईचौक.इन या इंडिया टुडे ग्रुप उनसे सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ लेखक ही जिम्मेदार है.

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