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आखिर इतना गुस्सा क्यों कि मुसलमान होने की वजह से बच्चे को भीड़ मार डाले?

    • राजदीप सरदेसाई
    • Updated: 28 जून, 2017 02:13 PM
  • 28 जून, 2017 02:13 PM
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जलालुद्दीन ने इस साल ईद नहीं मनाया और बल्लभगढ़ के कई ग्रामीणों ने घटना के विरोध में हाथों पर काली पट्टी बांधी थी. मैंने उन्हें वादा किया कि अगले साल ईद की जश्न में मैं उनके साथ रहूंगा. और मुझे आशा है कि वह मेरे साथ दिवाली में शामिल होंगे.

कल रात को मैंने जुनैद खान के पिता, जलालुद्दीन का इंटरव्यू किया. इंटरव्यू के दौरान उन्होंने एक सवाल किया जिसने मुझे सन्न कर दिया: 'सर आखिर वो हमसे इतनी नफरत क्यों करते हैं कि वे हमारे धर्म के कारण हमें जान से मार देते हैं?' जलालुद्दीन उन रिपोर्टों के बारे में मेरे सवाल का जवाब दे रहे थे जिसके मुताबिक उनके 16 साल के बेटे जुनैद का कत्ल ट्रेन में सिर्फ सीट को लेकर हुए विवाद के कारण कर दिया गया था.

जलालुद्दीन ने कहा- 'इतना गुस्सा सीट को लेकर नहीं होता है सर. वो मेरे बेटे को 'देशद्रोही' कह रहे थे. उसकी टोपी और कपड़ों को लेकर गाली दे रहे थे.' जलालुद्दीन बहुत गुस्सा थे लेकिन फिर भी उन्होंने अपना आपा नहीं खोया था. इतने गुस्से के बाद भी उन्होंने कहा कि उनके बेटे को मारने वाले समाज के प्रतिनिधि नहीं थे: 'पांचो उंगलियां एक जैसी नहीं होती सर, कुछ लोग ऐसा सोचते हैं.'

इसी बात ने मुझे सोचने पर मजबूर कर दिया कि- आखिर ये 'कुछ लोग' कौन हैं जो एक जवान आदमी को सिर्फ इसलिए मौत के घाट उतार देते हैं कि वो सा दिखता है, वो क्या कपड़े पहनता है, वो किस धर्म का पालन करता है? ये कुछ लोग कौन हैं जो इस्लामोफोबिया से इस हद तक ग्रसित हो जाते हैं कि एक पूरी कौम से नफरत करने लगते हैं और अच्छे और बुरे के बीच अंतर समझ नहीं पाते हैं?

आखिर ये 'कुछ लोग' कौन हैं जिन्होंने कौमों के बीच भय और नफरत फैलाने का रास्ता चुना है?

सच्चाई ये है कि जिन लोगों ने जुनैद को मार डाला वो सिर्फ प्यादे थे. इन सभी को धर्म और राजनीति के नाम पर बेगुनाहों का कत्ल करने की हिम्मत अपने धर्म-राजनैतिक अधिकारियों और उनके चियरलीडर्स द्वारा फैलाए गए धार्मिक राष्ट्रवाद के कारण मिलती है. उनके ये आका मानते हैं कि एक खास समुदाय के सदस्यों को 'सबक सिखाया' जाना चाहिए. लश्कर द्वारा आतंकवादी हमलों के लिए सबक, कश्मीरी...

कल रात को मैंने जुनैद खान के पिता, जलालुद्दीन का इंटरव्यू किया. इंटरव्यू के दौरान उन्होंने एक सवाल किया जिसने मुझे सन्न कर दिया: 'सर आखिर वो हमसे इतनी नफरत क्यों करते हैं कि वे हमारे धर्म के कारण हमें जान से मार देते हैं?' जलालुद्दीन उन रिपोर्टों के बारे में मेरे सवाल का जवाब दे रहे थे जिसके मुताबिक उनके 16 साल के बेटे जुनैद का कत्ल ट्रेन में सिर्फ सीट को लेकर हुए विवाद के कारण कर दिया गया था.

जलालुद्दीन ने कहा- 'इतना गुस्सा सीट को लेकर नहीं होता है सर. वो मेरे बेटे को 'देशद्रोही' कह रहे थे. उसकी टोपी और कपड़ों को लेकर गाली दे रहे थे.' जलालुद्दीन बहुत गुस्सा थे लेकिन फिर भी उन्होंने अपना आपा नहीं खोया था. इतने गुस्से के बाद भी उन्होंने कहा कि उनके बेटे को मारने वाले समाज के प्रतिनिधि नहीं थे: 'पांचो उंगलियां एक जैसी नहीं होती सर, कुछ लोग ऐसा सोचते हैं.'

इसी बात ने मुझे सोचने पर मजबूर कर दिया कि- आखिर ये 'कुछ लोग' कौन हैं जो एक जवान आदमी को सिर्फ इसलिए मौत के घाट उतार देते हैं कि वो सा दिखता है, वो क्या कपड़े पहनता है, वो किस धर्म का पालन करता है? ये कुछ लोग कौन हैं जो इस्लामोफोबिया से इस हद तक ग्रसित हो जाते हैं कि एक पूरी कौम से नफरत करने लगते हैं और अच्छे और बुरे के बीच अंतर समझ नहीं पाते हैं?

आखिर ये 'कुछ लोग' कौन हैं जिन्होंने कौमों के बीच भय और नफरत फैलाने का रास्ता चुना है?

सच्चाई ये है कि जिन लोगों ने जुनैद को मार डाला वो सिर्फ प्यादे थे. इन सभी को धर्म और राजनीति के नाम पर बेगुनाहों का कत्ल करने की हिम्मत अपने धर्म-राजनैतिक अधिकारियों और उनके चियरलीडर्स द्वारा फैलाए गए धार्मिक राष्ट्रवाद के कारण मिलती है. उनके ये आका मानते हैं कि एक खास समुदाय के सदस्यों को 'सबक सिखाया' जाना चाहिए. लश्कर द्वारा आतंकवादी हमलों के लिए सबक, कश्मीरी पत्थरबाजों के लिए, लन्दन में हुए हमले के लिए, पाकिस्तान बनाने के लिए, पुराने समयों में वापस जाने के लिए, मुगलों के भारत में घुस आने के लिए, समय पर वापस जाने, कथित तौर पर राज्यों के 'तुष्टीकरण' के लिए, और गौक्षकों के मामले में, यहां तक की 'वो' क्या खाते हैं इसके लिए भी इन सभी को सबक सिखाया जाना चाहिए. हर बार किसी की निर्मम हत्या के बाद उनके नारे और बुलंद होते जाते हैं: हत्या को सही साबित करने के लिए नए बहाने ईजाद कर लिए जाते हैं.

ये सारा शोर इसलिए मचाया जाता है ताकि इस तरह की 'सामान्य' आपराधिक गतिविधियों को लोगों के शोर से चुप करा दिया जाए. जो भी इस तरह की घटनाओं के खिलाफ आवाज उठाता है उसे 'सिकूलर' का दर्जा दिया जाता है जो पक्षपातपूर्ण तरीके से सिर्फ एक ही कौम के लिए आवाज उठाते हैं. वो आपसे पूछेंगे- 'आखिर आपलोग तब कहां थे जब आवारा भीड़ ने दिल्ली के डा. नारंग को सरेआम पीट-पीटकर मार डाला था?'

आप उनसे गुस्से में कहेंगे कि हां हमने उस घटना को भी कवर किया था. आपके इस जवाब में वो पलटकर पूछेंगे- 'लेकिन आखिर कोई अभियान क्यों नहीं चलाया था.'

तो अगर देश में कहीं भी किसी हिन्दू हत्या होने पर आपने 'पर्याप्त' गुस्सा नहीं दिखाया तो फिर आपको कोई हक नहीं कि आप सिर्फ मुसलमान होने के कारण किसी मुस्लिम की हत्या पर आवाज उठाएं. उद्देश्य बिल्कुल साफ है: जो भी कमजोर लोगों के समर्थन में आवाज उठाए उनकी आवाज को इस हद तक दबा दो कि कोई और उन्हें सुन भी न पाए. या तो वो आपके साथ मिल जाएं या फिर सजा भुगतें. जब सिर्फ एक भीड़ वो काम कर सकती है तो फिर अब दंगों की क्या जरूरत है. जहां एक केंद्रीय मंत्री दादरी में हत्यारों के अंतिम संस्कार में तो शामिल होंगे, लेकिन दुखी परिवार को सांत्वना देने नहीं जाएंगे; जहां हत्यारों को अलवर में "सम्मानित" किया जाता है, लेकिन पीड़ितों को न्याय पाने की अपनी लड़ाई खुद ही लड़नी पड़ती है.

लेकिन फिर भी जब भी किसी को उसकी पहचान की वजह से एक पागल भीड़ अपना शिकार बनाए, हमें हर बार अपनी आवाज उठानी चाहिए. क्योंकि हर जिम्मेदार और संवेदनशील यही काम करेगा. क्योंकि हमें अब और अखलाक, अयूब, पहलू और जुनैद या फिर ऊना, दादरी और अलवर नहीं चाहिए. क्योंकि किसी भी लोकतंत्र में सत्ता पर बैठे लोगों तक आपकी आवाज पहुंचनी चाहिए, साथ ही दोषियों के खिलाफ तुरंत कार्रवाई भी करनी चाहिए. क्योंकि चुप्पी कोई विकल्प नहीं है. तब तो बिल्कुल भी नहीं जब साथी भारतीय भयभीत हैं और पीड़ित महसूस कर रहे हैं. क्योंकि अगर नेता अपना काम नहीं करेंगे तो फिर जनता को उन्हें जवाबदेह बनाना चाहिए. क्योंकि ये भारत है. एक ऐसा देश जहां कानून का राज चलता है. जहां का संविधान सभी नागरिकों के समानता का अधिकार देता है. क्योंकि भारत, पाकिस्तान नहीं है. क्योंकि कोई भी 'सच्चा हिन्दू' 'राष्ट्रीय गौरव' की आड़ में इस तरह की हिंसा का समर्थन नहीं करेगा. क्योंकि जो भारत सही और गलत के बीच का अंतर नहीं कर सकता वो मेरा भारत नहीं है.

जलालुद्दीन ने इस साल ईद नहीं मनाई और बल्लभगढ़ के कई ग्रामीणों ने घटना के विरोध में हाथों पर काली पट्टी बांधी थी. मैंने उन्हें वादा किया कि अगले साल ईद की जश्न में मैं उनके साथ रहूंगा. और मुझे आशा है कि वह मेरे साथ दिवाली में शामिल होंगे. ये एक अनूठा देश है: काश उसके सेवईयों और मेरे श्रीखंड की मिठास उन 'कुछ लोगों' के 'नफरत' के जहर को खत्म कर दे.

( यह लेख सबसे पहले राजदीप सरदेसाई के ब्‍लॉग पर Breaking Views प्रकाशित हुआ है.)

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इस लेख में लेखक ने अपने निजी विचार व्यक्त किए हैं. ये जरूरी नहीं कि आईचौक.इन या इंडिया टुडे ग्रुप उनसे सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ लेखक ही जिम्मेदार है.

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