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एक गर्भवती हथिनी की निर्मम मृत्यु से हमने क्या सीखा?

    • अंकिता जैन
    • Updated: 03 जून, 2020 11:14 PM
  • 03 जून, 2020 11:13 PM
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केरल (Kerala) के मल्लपुरम (Malappuram) में इंसानों की मूर्खता और ठिठोली का खामियाजा एक गर्भवती हथिनी (Pregnant Elephant) अपनी जान देकर भुगत चुकी है. मगर सवाल अब भी जस का तस है कि क्या वाक़ई इस निर्मम मौत से इंसानों ने कोई सबक लिया है.

मम्मी से जो सबसे पहली डांट पड़ी वो एक फूल तोड़ने के लिए पड़ी थी. बालपन में अक्सर ही हम करते हैं ना. कोई सुंदर फूल दिखा तो उत्सुकता वश तोड़ लिया. फूल पर बैठी कोई तितली दिखी तो उसे पकड़ लिया. फिर उससे खेलने लगे. जुगनू को डब्बे में बंद कर लिया. चलते-फिरते कूदते-फांदते कहीं से गुज़रते हुए किसी पेड़ से पत्ते तोड़ लिए. चींटी को फूंक मारकर ऊपर से नीचे फेंकना और फिर देखना कि मरी या नहीं, या उसे हाथ रखकर उसका रास्ता रोक लेना. सड़क चलते किसी जानवर को सताकर, पत्थर मारकर या उसकी पूंछ ही खींचकर ठिठौली करने जैसे कई काम बच्चे करते हैं. मैंने जब भी किए मम्मी ने बहुत डांटा, कई बार चांटा भी मारा. हर बार यही कहतीं, 'किसी जीव को सताना हिंसा है. उसे दुःख देना हिंसा है. हम तो अहिंसावादी हैं. तुम्हें पाप लगेगा.' पाप का भय कह लो या मम्मी की डांट का डर या फिर मम्मी का यह कहना कि 'उनकी जगह ख़ुद को रखकर देखो, तब जानोगे कि कैसा लगता है', तब मेरे बालमन में एक इमेजिनेशन बनती जिसमें मैं देखती कि फूल रो रहा है. इन सबसे मन में वो मानवीयता आई कि आज ख़ुद किसी भी जीव को उद्देश्य पूर्वक मारने की बात मन में नहीं सोच भी नहीं सकती.

केरल में गर्भवती हथिनी की निर्मम मौत के बाद क्या प्रकृति की इज्जत करना सीख पाएगा इंसान

दिन-ब-दिन क्रूरतम घटनाओं का सामने आना और हमें उनका आदी बनाते जाना, ऐसे अमानवीय अपराधों पर भी मनुष्य का विचलित ना होना और प्रकृति के प्रति समर्पण ना होना ही यह समझाने के लिए काफ़ी है कि हम उन संस्कारों से अछूते होते जा रहे हैं जिनमें हमें मानवता का पाठ पढ़ाया जाता है. जिनमें जीव को जीव समझना सिखाया जाता है. जिनमें सिखाया जाता था कि अपने स्वार्थ के किए किसी को तकलीफ़ नहीं देना.

इसी स्वार्थ का नतीजा यह है आज हमारे सामने कॉन्क्रीट के...

मम्मी से जो सबसे पहली डांट पड़ी वो एक फूल तोड़ने के लिए पड़ी थी. बालपन में अक्सर ही हम करते हैं ना. कोई सुंदर फूल दिखा तो उत्सुकता वश तोड़ लिया. फूल पर बैठी कोई तितली दिखी तो उसे पकड़ लिया. फिर उससे खेलने लगे. जुगनू को डब्बे में बंद कर लिया. चलते-फिरते कूदते-फांदते कहीं से गुज़रते हुए किसी पेड़ से पत्ते तोड़ लिए. चींटी को फूंक मारकर ऊपर से नीचे फेंकना और फिर देखना कि मरी या नहीं, या उसे हाथ रखकर उसका रास्ता रोक लेना. सड़क चलते किसी जानवर को सताकर, पत्थर मारकर या उसकी पूंछ ही खींचकर ठिठौली करने जैसे कई काम बच्चे करते हैं. मैंने जब भी किए मम्मी ने बहुत डांटा, कई बार चांटा भी मारा. हर बार यही कहतीं, 'किसी जीव को सताना हिंसा है. उसे दुःख देना हिंसा है. हम तो अहिंसावादी हैं. तुम्हें पाप लगेगा.' पाप का भय कह लो या मम्मी की डांट का डर या फिर मम्मी का यह कहना कि 'उनकी जगह ख़ुद को रखकर देखो, तब जानोगे कि कैसा लगता है', तब मेरे बालमन में एक इमेजिनेशन बनती जिसमें मैं देखती कि फूल रो रहा है. इन सबसे मन में वो मानवीयता आई कि आज ख़ुद किसी भी जीव को उद्देश्य पूर्वक मारने की बात मन में नहीं सोच भी नहीं सकती.

केरल में गर्भवती हथिनी की निर्मम मौत के बाद क्या प्रकृति की इज्जत करना सीख पाएगा इंसान

दिन-ब-दिन क्रूरतम घटनाओं का सामने आना और हमें उनका आदी बनाते जाना, ऐसे अमानवीय अपराधों पर भी मनुष्य का विचलित ना होना और प्रकृति के प्रति समर्पण ना होना ही यह समझाने के लिए काफ़ी है कि हम उन संस्कारों से अछूते होते जा रहे हैं जिनमें हमें मानवता का पाठ पढ़ाया जाता है. जिनमें जीव को जीव समझना सिखाया जाता है. जिनमें सिखाया जाता था कि अपने स्वार्थ के किए किसी को तकलीफ़ नहीं देना.

इसी स्वार्थ का नतीजा यह है आज हमारे सामने कॉन्क्रीट के जंगल हैं. खिड़की से देखो तो इमारतें नज़र आती हैं पेड़ नहीं. अब सड़कों पर हिरण फुदकते नहीं दिखते। गौरैया विलुप्त होने लगी हैं. टाइगर्स को बचाने के लिए आंदोलन करने पड़ते हैं. समंदर के कोरल्स अपना रंग खो रहे हैं. मछलियां अब तटों पर नहीं आतीं. पानी को साफ़ करने के लिए, हवा को साफ़ करने के लिए मशीन लगानी पड़ती हैं. अब शास्त्रों में लिखी वह बात भी झूठ नहीं लगती कि, 'एक ऐसा काल भी आएगा जब इंसान इंसान को ही काटकर खाएगा'.

प्रकृति को ख़तम करने के बाद इंसान के पास बचेगा ही क्या सिवाय एक दूसरे को खाने के?

मनुष्य अपने निकृष्ट रूप में सामने आ रहा है. संस्कारों का मख़ौल उड़ाना अब बुद्धिमत्ता की, आज के ज़माने की नई पहचान है. लेकिन हम ये भूल गए कि यही वे संस्कार थे जिसने इतने वर्षों तक मनुष्य और प्रकृति का तालमेल बनाकर रखा. और अब देखिए, मात्र 100 वर्षों में हम कहां से कहां पहुंच गए. इन वर्षों में जंगलों के कटने का, जानवरों की प्रजातियां विलुप्त होने का, जल-हवा-मिट्टी के प्रदूषित होने के आंकड़ें देखेंगे तो शर्म आएगी ख़ुद पर. मानो हमने प्रकृति का बलात्कार किया हो.

घरों में बचपन में दिए गए संस्कार ही किसी मनुष्य की प्रवर्ति तय करते हैं. यह दुनिया सभी की है. किसी भी मूक प्राणी को तकलीफ़ नहीं पहुंचाना चाहिए, बच्चों को यदि नहीं सिखाएंगे तो बड़े होकर वे वही करेंगे जो आज उस हथिनी के साथ हुआ है.

उसे तकलीफ़ पहुंचाने वालों में यदि इतने संस्कार होते कि यह पृथवी सिर्फ मनुष्यों की नहीं, वह भी जीव है, उसे भी दर्द होता है, यदि ऐसा ही हमारे साथ हो तो कैसा लगेगा, या पाप का ही भय होता तो शायद गर्भ में पलने वाला वह निर्दोष जीव अपनी मां के साथ मर जाने के लिए मजबूर नहीं होता

'पाप-वाप कुछ नहीं होता' जैसी बातें इस विज्ञान के युग में हमारा एडवांस होना तो दिखाती हैं लेकिन अब लगता है कि पाप का भय ही संभवतः वह कुंजी रही होगी जिससे अमानवीय घटनाओं को समाज रोक पाता होगा.

आज एक गर्भवती हथिनी के मरने से हम विचलित हैं. कल को यह दुर्घटना भी पुरानी हो जाएगी. हम सब भूलकर फिर अपने जीवन में लौट आएंगे. किंतु यदि अब भी यह घटना हमें जीवों के प्रति दया और प्रकृति के लिए लड़ना, उसे बचाना, अपने बच्चों को जीवों से प्रेम करने के संस्कार देना, या यह दुनिया सबकी है नहीं सिखा पाती तो आज की हमारी सारी संवेदनाएं झूठी हैं. हमारा सारा रुदन बेकार है. हमारी सारी बातें खोखली हैं. हमने उस हथिनी की मृत्यु से कोई सबक नहीं लिया ना ही उसे सच्ची श्रद्धांजलि ही दे पाए.

जीव हिंसा, सबसे बड़ा पाप है. यह समझना ही संभवतः हमें प्रकृति और मानवता के कुछ क़रीब ले जा पाएगा.

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इस लेख में लेखक ने अपने निजी विचार व्यक्त किए हैं. ये जरूरी नहीं कि आईचौक.इन या इंडिया टुडे ग्रुप उनसे सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ लेखक ही जिम्मेदार है.

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