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डॉ.केदारनाथ सिंह : गमछे-तौलिए, दो जूतों के बीच की बातों को पकड़ लेने वाला भावुक कवि

    • बिलाल एम जाफ़री
    • Updated: 20 मार्च, 2018 10:36 PM
  • 20 मार्च, 2018 10:36 PM
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हिन्दी के प्रसिद्ध कवि केदारनाथ सिंह हमारे बीच नहीं रहे. उनकी कुछ कविताओं को पढ़िये और जानिये आज के इस दौर में हमें क्यों और किन कारणों के चलते उन्हें और उनकी कविता को याद रखना चाहिए.

तमाम उतार चढ़ावों के बीच हम अपनी दुनिया में खुश हैं. देखा जाए तो हमें यूं भी किसी के होने या न होने से ज्यादा फर्क नहीं पड़ता. मान्यता भी तो यही कहती है कि जिसने जन्म लिया है उसकी मृत्यु निश्चित होगी. यानी जो आया है वो एक न एक दिन अवश्य जाएगा. इतना पढ़कर हो सकता है कि आपके दिमाग में प्रश्न आए कि हम आज जीवन-मृत्यु आने-जाने की बात क्यों कर रहे हैं तो आपको बताते चलें कि समकालीन हिंदी कविता के स्तम्भ या फिर हिंदी के हस्ताक्षर डॉ. केदारनाथ सिंह नहीं रहे. दिल्ली के अखिल भारतीय आयुर्विज्ञान संस्थान (एम्स) में उन्होंने आखिरी सांस ली. केदारनाथ सिंह के परिजनों के अनुसार 86 वर्षीय केदारनाथ सिंह को करीब डेढ़ माह पहले कोलकाता में निमोनिया हो गया था. इसके बाद से वे बीमार चल रहे थे. कुछ दिन पहले पेट में हुए संक्रमण के कारण उन्हें एम्स मे भर्ती कराया गया था.

आज हमारे पास ऐसी तमाम वजहें हैं जिसके चलते हम केदारनाथ सिंह को कभी भूल नहीं पाएंगे

1934 में उत्तर प्रदेश के बलिया में जन्में केदारनाथ सिंह ने बीएचयू से हिंदी में एमए फिर पीएचडी की उपाधि ली थी. साथ ही केदारनाथ सिंह ने दिल्ली स्थित जेएनयू के भारतीय भाषा केंद्र में बतौर आचार्य और अध्यक्ष के रूप में भी उन्होंने अपनी सेवाएं दीं. ये शायद डॉक्टर केदारनाथ सिंह का काम ही है जिसके चलते हिंदी सिनेमा के मशहूर गीतकार स्क्रिप्ट राइटर और निर्देशक गुलज़ार उन्हें अपना गुरु मानते थे. बात अगर केदारनाथ सिंह की लेखन शैली पर हो तो इनके बारे में मिलता है कि इन्होंने बेहद जटिल विषयों को बेहद सरलता से लिखा और इनका ऐसा करने का उद्देश्य बस इतना था कि लोग मुश्किल चीजों को आसानी से समझ सकें.

तमाम उतार चढ़ावों के बीच हम अपनी दुनिया में खुश हैं. देखा जाए तो हमें यूं भी किसी के होने या न होने से ज्यादा फर्क नहीं पड़ता. मान्यता भी तो यही कहती है कि जिसने जन्म लिया है उसकी मृत्यु निश्चित होगी. यानी जो आया है वो एक न एक दिन अवश्य जाएगा. इतना पढ़कर हो सकता है कि आपके दिमाग में प्रश्न आए कि हम आज जीवन-मृत्यु आने-जाने की बात क्यों कर रहे हैं तो आपको बताते चलें कि समकालीन हिंदी कविता के स्तम्भ या फिर हिंदी के हस्ताक्षर डॉ. केदारनाथ सिंह नहीं रहे. दिल्ली के अखिल भारतीय आयुर्विज्ञान संस्थान (एम्स) में उन्होंने आखिरी सांस ली. केदारनाथ सिंह के परिजनों के अनुसार 86 वर्षीय केदारनाथ सिंह को करीब डेढ़ माह पहले कोलकाता में निमोनिया हो गया था. इसके बाद से वे बीमार चल रहे थे. कुछ दिन पहले पेट में हुए संक्रमण के कारण उन्हें एम्स मे भर्ती कराया गया था.

आज हमारे पास ऐसी तमाम वजहें हैं जिसके चलते हम केदारनाथ सिंह को कभी भूल नहीं पाएंगे

1934 में उत्तर प्रदेश के बलिया में जन्में केदारनाथ सिंह ने बीएचयू से हिंदी में एमए फिर पीएचडी की उपाधि ली थी. साथ ही केदारनाथ सिंह ने दिल्ली स्थित जेएनयू के भारतीय भाषा केंद्र में बतौर आचार्य और अध्यक्ष के रूप में भी उन्होंने अपनी सेवाएं दीं. ये शायद डॉक्टर केदारनाथ सिंह का काम ही है जिसके चलते हिंदी सिनेमा के मशहूर गीतकार स्क्रिप्ट राइटर और निर्देशक गुलज़ार उन्हें अपना गुरु मानते थे. बात अगर केदारनाथ सिंह की लेखन शैली पर हो तो इनके बारे में मिलता है कि इन्होंने बेहद जटिल विषयों को बेहद सरलता से लिखा और इनका ऐसा करने का उद्देश्य बस इतना था कि लोग मुश्किल चीजों को आसानी से समझ सकें.

केदारनाथ सिंह का शुमार उन कवियों में है जो हिंदी को एक नई ऊंचाई पर ले गए

केदारनाथ सिंह नहीं रहे. और ऐसा नहीं है कि हम आपको विकिपीडिया से जानकारियां जुटाकर उनकी जीवनी से अवगत कराने वाले हैं. इस लेख में हम केदारनाथ सिंह की कृतियों को शामिल करेंगे जिनको पढ़कर आप इस बात का अंदाजा आसानी से लगा सकते हैं कि कैसे केदारनाथ सिंह के जाने से हिंदी भाषा को गहरी क्षति हुई है.

मैं जा रही हूँ – उसने कहा

जाओ – मैंने उत्तर दिया

यह जानते हुए कि जाना

हिंदी की सबसे खौफनाक क्रिया है.

डॉक्टर केदारनाथ सिंह की इस रचना को पढ़िये और अंदाजा लगाइए उनकी मनोदशा का कि कैसे उन्होंने गमन को खुद हिंदी भाषा से जोड़ दिया.

केदारनाथ सिंह ने हिंदी को आम जनमानस के लिए बेहद आसान बनाया

आज नेताओं को इस बात का गुमान है कि वो अपनी रैली या भाषण में भीड़ जुटा सकते हैं मगर क्या कभी किसी ने इस बात को सोचा कि भाषण या रैली के बाद उस भीड़ का क्या होता है. यदि उस भावना को समझना हो तो हमें केदारनाथ सिंह की इस रचना को अवश्य पढ़ना चाहिए जिसमें उन्होंने बड़े ही मार्मिक अंदाज में एक ऐसा वर्णन किया था जो आज भी समाज के दोहरे रवैये पर एक गहरी चोट है

सभा उठ गई

रह गए जूते

सूने हाल में दो चकित उदास

धूल भरे जूते

मुँहबाए जूते जिनका वारिस

कोई नहीं था

चौकीदार आया

उसने देखा जूतों को

फिर वह देर तक खड़ा रहा

मुँहबाए जूतों के सामने

सोचता रहा -

कितना अजीब है

कि वक्ता चले गए

और सारी बहस के अंत में

रह गए जूते

उस सूने हाल में

जहाँ कहने को अब कुछ नहीं था

कितना कुछ कितना कुछ

कह गए जूते

अक्सर ही हमनें सुना है कि हम जो कुछ भी बोलें उसे बोलने से पहले हमें उसके बारे में पूर्ण रूप से सोच विचार कर लेना चाहिए. ऐसा करके हम कई सारी मुसीबतों से बच सकते हैं. हमें क्यों अपनी कही बात पर सोच विचार करना चाहिए तो इसका कारण भी जीवन और मृत्यु से जुड़ा है. कब कौन सा वाक्य हमारा अंतिम वाक्य बन जाए कुछ कहा नहीं जा सकता. शायद इसी बात को सोचते हुए केदारनाथ सिंह ने भी कहा है कि "मनुष्य के मुख से सुना गया अंतिम वाक्य उसके न होने के बाद एक अच्छी कविता की अंतिम पंक्ति की तरह हो जाता है, जो गूँजता रहता है देर तक - दूर तक."

 

केदारनाथ सिंह की मौत को देखकर ये कहना बिल्कुल भी गलत नहीं है कि इनकी मौत से हिंदी को एक भारी नुकसान हुआ है

केदारनाथ सिंह की कई रचनाओं को देखने पर मिलता है कि जहां एक तरफ वो जीवन के प्रति आशावादी थे तो वहीं दूसरी तरफ वो इस बात से भली प्रकार परिचित थे कि एक दिन हम सबको जाना है और हम ऐसा कुछ करके जाएं ताकि वो परिवेश जहां हम रह रहे हैं हमें याद रखे. केदारनाथ सिंह की लिखी एक अन्य कविता देखिये शायद इस रचना को पढ़कर ही आपको एहसास हो जाए कि कवि और उसकी सोच दोनों ही कितनी महान थी.

केदारनाथ सिंह लिखते हैं कि

सारा शहर छान डालने के बाद

मैं इस नतीजे पर पहुँचा

कि इस इतने बड़े शहर में

मेरी सबसे बड़ी पूँजी है

मेरी चलती हुई साँस

मेरी छाती में बंद मेरी छोटी-सी पूँजी

जिसे रोज मैं थोड़ा-थोड़ा

खर्च कर देता हूँ

क्यों न ऐसा हो

कि एक दिन उठूँ

और वह जो भूरा-भूरा-सा एक जनबैंक है-

इस शहर के आखिरी छोर पर-

वहाँ जमा कर आऊँ

सोचता हूँ

वहाँ से जो मिलेगा ब्याज

उस पर जी लूँगा ठाट से

कई-कई जीवन.

डॉक्टर केदारनाथ सिंह ने न सिर्फ उत्कृष्ट रचनाएं की बल्कि समाज के मद्देनजर कई करारे व्यंग्य भी किये. इस बात को समझने के लिए आप केदारनाथ सिंह की इस कविता को पढ़ें.

मेरी हड्डियाँ

मेरी देह में छिपी बिजलियाँ हैं

मेरी देह

मेरे रक्त में खिला हुआ कमल

क्या आप विश्वास करेंगे

यह एक दिन अचानक

मुझे पता चला

जब मैं तुलसीदास को पढ़ रहा था.

इसी तरह केदारनाथ सिंह की एक अन्य रचना है जो आपको इस बात से अवगत कराएगी कि कैसे एक कवि उन सूक्ष्म चीजों को भी देख लेता है जिन्हें आपकी और हमारी आंख नहीं देख पाती. कह ये भी सकते हैं कि ये केवल एक कवि की ही नजर होती है जो उन चीजों का भी अर्थ निकाल लेती है जिन्हें हम देखते तो रोज हैं मगर उन पर ध्यान नहीं देते. इस रचना में कवि केदारनाथ सिंह ने तौलिये और गमछे के बीच हुए एक संवाद का वर्णन किया है.

गमछा और तौलिया

दोनों एक तार पर टंगेसूख रहे थे साथ- साथ

वे टंगे थे

जैसे दो संस्कृतियाँ

जैसे दो हाथ- बायाँ और दायाँ

झूलते हुए अगल - बगल

तेज़ धूप में

थोड़ी -सी गरमा - गर्मी के बाद

मैंने सुना -

तौलिया गमछे से कह रहा था

तू, हिंदी में सूख रहा है

सूख,

मैं अंग्रेज़ी में कुछ देर

झपकी लेता हूँ.

अंत में हम केदारनाथ सिंह की ही कुछ पंक्तियों से अपनी बात खत्म करते हुए कहेंगे कि इनके जाने से उन लोगों को ज़रूर नुकसान हुआ है जिन्हें कविताएं जीवन जीने का सलीका सिखाती थीं. बाक़ी जीवन चल रहा है और चलते हुए जीवन को देखकर बहुत पहले ही केदारनाथ सिंह ने कह दिया था कि.

एक पगडंडी

एक बस का पायदान

एक फुटपाथ भी बहुत है

जीवन - भर सिर्फ़ चलते रहने

और कहीं पहुँचने के तिलिस्म को ध्वस्त करने के लिए.

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इस लेख में लेखक ने अपने निजी विचार व्यक्त किए हैं. ये जरूरी नहीं कि आईचौक.इन या इंडिया टुडे ग्रुप उनसे सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ लेखक ही जिम्मेदार है.

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